ईमानदारी ही सर्वश्रेष्ठ नीति

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निकीत गंगाविषन गुर्जर (कक्षा 6)

काम की तलाश में इधर-उधर धक्के खाने के बाद निराश होकर दीनू घर लौटने लगा। तो पीछे से एक आवाज आई। ऐ भाई! यहाँ कोई मजदूर मिलेगा क्या?' उसने पीछे मुड़कर देखा कि एक बूढ़ा तीन-तीन गठरियाँ उठाए खड़ा है। उसने कहा - हाँ! बोलो क्या काम है? मैं ही मजदूरी कर लूँगा।'

यह तीसरी गठरी जरा भारी है। तुम इसे उठा लो, मैं तुम्हें दो रुपए दूँगा।' दीनू ने कहा - 'ठीक है! चलो आप बूढ़े हैं। इतनी मदद तो मैं यूँ ही कर दूँगा।' इतना कहकर वह गठरी सिर पर रखकर चलने लगा। चलते-चलते दीनू ने बूढ़े से कहा - गठरी काफी भारी है, इसमें है क्या?'
बूढ़े ने धीरे से कहा - इसमें एक-एक रुपए के सिक्के हैं।' चलते-चलते दीनू ने देखा कि बूढ़ा उस पर नजर रखे है। उसने सोचा यह बूढ़ा सोच रहा होगा कि कहीं यह भाग नहीं जाए। पर मैं इतना बेइमान एवं लालची नहीं हूँ। मैं सिक्के के लालच में फँसकर बेइमानी नहीं करूँगा।

कुछ दूरी तय करने पर रास्ते में एक नदी पड़ी। दीनू ने देखा कि बूढ़ा थका हुआ है। उससे यह नदी पार नहीं होगी। उसने बूढ़े से कहा - 'बाबा आप थक चुके हैं। यदि आप ठीक समझें तो इन दो गठरियों में से एक और गठरी मुझे पकड़ा दें। मैं इसका बोझ आसानी से सह लूँगा।'
बूढ़े ने रुककर दीनू से कहा - 'ठीक है! लो पर तुम इसे लेकर कहीं भाग न जाना। इसमें चाँदी के सिक्के हैं।'
दीनू बोला - 'भला मैं क्यों भागूँगा? मैं आपको चोर, बेइमान दिखाई देता हूँ क्या? मैं धन के लालच में किसी को धोखा देने वाला नहीं हूँ।'
दीनू ने दूसरी गठरी उठाई और नदी पार कर ली। चाँदी के सिक्कों का लालच भी उसे डिगा नहीं पाया।

थोड़ी दूर चलने के बाद सामने एक पहाड़ी आ गई। बूढ़े ने फिर कहा - 'ए भाई! मैं तो ठीक से चल भी नहीं पा रहा हूँ।

ऊपर से कमर पर गठरी का बोझ और फिर पहाड़ी की चढ़ाई।'

दीनू बोला - लाइए बाबा यह गठरी भी मुझे दे दीजिए।'
बूढ़े ने कहा - 'कैसे दे दूँ?
इसमें तो सोने के सिक्के हैं। अगर तुम इसे लेकर भाग गए तो मैं बूढ़ा तुम्हारा पीछा भी नहीं कर सकूँगा।'
दीनू बोला - कहा ना, मैं ऐसा आदमी नहीं हूँ। ईमानदारी के चक्कर में ही मुझे मजदूरी करना पड़ रही है। वरना मैं एक सेठ के यहाँ मुनीम की नौकरी करता था। सेठ मुझे हिसाब में गड़बड़ करके लोगों को ठगने के लिए दबाव बनाता था। तब मैंने ऐसा करने से मना किया, तो उसने मुझे नौकरी से निकाल दिया।' तो फिर ठीक है। तीसरी गठरी भी तुम्हीं उठा लो, मैं धीरे-धीरे पहाड़ी चढ़ता हूँ।'

दीनू अब सोने की गठरी भी उठाकर चलने लगा। इस समय उसके दिमाग में आया कि यदि मैं तीनों गठरी लेकर भाग जाऊँ तो यह बूढ़ा मेरी पीछा भी न कर सकेगा और मैं एक झटके में मालामाल हो जाऊँगा। तब मेरी पत्नी भी खुश हो जाएगी। पैसा होगा तो इज्जत ऐशो आराम सभी कुछ मिलेगा। दिमाग में इतना आते ही उसके दिल में लालच आ गया और वह तीनों गठरियों को लेकर भाग खड़ा हुआ।
घर पहुँचकर उसने गठरियों को खोलकर देखा तो वह अपना सिर पीटकर रह गया। क्योंकि गठरियों में सिक्कों की आकृति के मिट्‍टी के ढेले थे।

वह सोच में पड़ गया कि बूढ़े ने ऐसा नाटक क्यों किया? तभी उसकी पत्नी को मिट्‍टी के सिक्कों में एक कागज मिला जिस पर लिखा था - 'यह नाटक इस राज्य के खजाने की सुरक्षा के लिए किया गया था। परीक्षा लेने वाला बूढ़ा कोई और नहीं स्वयं महाराज ही थे। तुम इस तरह नहीं भागते तो तुम्हें मंत्री पद मान-सम्मान सभी कुछ मिलता, कोई बात नहीं। अब दीनू को ईमानदारी की कीमत समझ आ गई थी।

साभार : देवपुत्र

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