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मौलिक बाल कहानी : 'मैं डाकू नहीं बनूंगी'

हमें फॉलो करें मौलिक बाल कहानी : 'मैं डाकू नहीं बनूंगी'
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प्रभुदयाल श्रीवास्तव

, बुधवार, 18 सितम्बर 2024 (17:02 IST)
'कशिश तुम बड़ी होकर क्या बनोगी ?'
'क्या बनूंगी-क्या बनूंगी ऊं-ऊं-ऊं,.......सोच कर बताती हूं अभी ...हां-हां मैं टमाटर बनूंगी टमाटर।'कशिश चहक उठी। 
'टमाटर, यह भी कोई बनने की चीज़ है' कमल ने चिढ़कर कहा। 
 
'क्यों नहीं जब तुम कल स्कूल में बैगन बने थे, मुंह पर काले बैगन का मास्क लगाया था और उसके ऊपर हरे रंग की पत्ती चिपकी थी। जब तुम बैगन बन सकते हो तो मैं टमाटर क्यों क्यों नहीं बन सकती ?'
'अरे बाबा वह बनना नहीं कहलाता, वह तो स्कूल का कार्यक्रम- फेंसी ड्रेस की प्रतियोगिता थी। तुम सच में क्या बनोगी ?
'भैया पहले तुम बताओ तुम क्या बनोगे ? तुम्हारा उत्तर सुनकर मैं सोचूंगी मुझे क्या बनना है।'
 
'भई मुझे तो समझ में नहीं आता क्या बनूंगा। अभी तो बहुत सारा पढ़ना है। अभी थर्ड में हूं, कब पढ़ूंगा-क्या पढ़ूंगा और कब क्या बन पाऊंगा, क्या पता।'
'भैया क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ भी न पढ़ना पड़े और कुछ बन जाएं?'
 
'हट पगली ऐसा कैसे हो सकता है !बिना पढ़े तो कोई घास भी न डाले। अरे मज़दूरी ही करना पड़ेगी। खेत में काम करना पड़ेगा या रिक्शा चलाना पड़ेगा। परिश्रम अधिक और पैसे कम।'
 
'भैया हम क्या डाकू नहीं बन सकते ? कल मैंने एक फिल्म देखी थी पापा के साथ .....डाकू ! बाप रे बाप कितने सारे डाकू घोड़ों पर दौड़ रहे थे।  किडविंग-किडविंग -किडविंग ...कितना बड़ा जंगल, कितने ऊंचे-ऊंचे पहाड़, कितना मज़ा आ रहा था। और जब डाकू नदी किनारे पानी पी रहे थे तो कितना अच्छा लग रहा था। काले चिकने घोड़े, ऊपर जींस, मुंह में लगाम।  घोड़े भी कैसे उछल-उछल कर हिनहिना रहे थे।  कितना प्यारा दृश्य था। 
 
मैं डाकू बनूंगी-मैं डाकू बनूंगी 'कहते हुए वह कमरे से बाहर आकर हॉल में आ गई। 
हॉल में दादाजी बैठे अखबार पढ़ रहे थे।'क्या डाकू बनेगी !तेरे पास और कुछ नहीं है बनने के लिए जो डाकू बनना चाहती है।'
'हां-हां डाकू बनूंगी। डाकू बनने के लिए पढ़ना-लिखना बिलकुल जरूरी नहीं है। पढ़ना छोड़ दूंगी और डाकू बनने का तरीका सीखूंगी।'
 
दादाजी ने कसकर उसके हाथ पकड़ लिए 'तुझे पता भी है डाकू किसे कहते हैं ?'
'किसे कहते हैं?, अरे डाकू वह होते हैं जो घोड़े पर जंगल में घूमते हैं, नदी में पानी पीते हैं, कितना मज़ा आता होगा न दादाजी, जंगल पहाड़ों में घूमने से ?
'अरे पागल डाकू अकेले जंगल में नहीं घूमते वह डाके डालते हैं, लोगों का रुपया पैसा, गहने छीन लेते हैं और बिना कसूर के ही लोगों को मार डालते हैं।'
'क्या कहा मार डालते हैं, किसे, किसको लूट लेते हैं ?'
'बेटा जिसके रुपए-पैसे छीनते हैं, उन्हें ही मार डालते हैं।  अगर किसी ने विरोध किया तो जान जाना सुनिश्चित हो जाता है।'
'लेकिन दादाजी कल वाली फिल्म में तो डाकू एक बड़े से घर से जो सामान लूटकर भागे थे, वह तो उन्होंने एक गरीब बस्ती के लोगों को बांट दिया था। सारे रुपए-पैसे, आभूषण, सब कुछ बांट दिया था। मैं भी ऐसा ही करूंगी।'
 
'बेटी यह तो बुरी बात है। अगर अमीरों का पैसा छीनकर ग़रीबों को भी बांटा जाता है तब भी यह कानून अपराध है। जिस घर का रुपया-पैसा लूटा जाता है उस घर के लोगों का क्या हॉल होता होगा, हमें क्या पता ? उसने, हो सकता है अपनी बेटी के विवाह के लिए यह धन बचा रखा हो। यह भी हो सकता है बच्चे की पढ़ाई के लिए यह रुपए पैसे एकत्रित करके रखे हों।'
'लेकिन दादाजी डाकू दूसरों का भला भी तो करते हैं| '
'ऐसा भला क्या काम का जिसमें दूसरों को हानि पहुंचे।'
 
'दादाजी मैं तो कह रही थी कि डाकू बनने के लिए पढ़ाई बिलकुल नहीं करना पड़ती, न ही कोई टेस्ट होता है और न ही कठिन परीक्षा इसीलिए.........'
कशिश की मम्मी और दादी कमरे के दरवाजे के पास खडी होकर उसकी प्यारी बातों का मज़ा ले रही थीं। 
 
दादी ने आकर बड़े प्रेम से उसे अपनी गोदी में बिठा लिया- 'तो मेरी बिटिया डाकू बनेगी'
'हां दादी हां मैं......'
'तब तो तुझे बंदूक चलाना पड़ेगी, मालूम है न डाकुओं के पास बंदूक होती है।'
'हां मैनें पिक्चर में देखा है|' 
'तू बंदूक चलाएगी?किसी को मारना भी पड़ सकता है।  '
'मैं क्यों मारूंगी किसी को, डाकू मारते क्या ?'
'और नहीं तो क्या। डाकू मारते हैं, धमकी देते हैं, चिल्लाते हैं, लूटते हैं और हाथ पैर बांध कर खम्भे से कस देते हैं।'
'क्या सच में!'
'और नहीं तो क्या।'
 
'तो फिर मैं डाकू नहीं बनूंगी। कभी नहीं। पढूंगी लिखूंगी और लड़की बनूंगी।'
'लड़की तो अभी हो ही, अच्छी लड़की बनूंगी बोलो -हां।'
'हां-हां-हां-हां अच्छी लड़की बनूंगी।'
 
सब लोग हंसने लगे। 
'अब तो मैं ड्राइंगकार बनूंगी, मुझे जंगल, पहाड़, हवा, फूल, पत्ते, पौधे, पेड़, समुद्र, नदी, झरने अच्छे लगते हैं।'
'मेरी बेटी आर्चीटेक्चर बनेगी, मकानों की ड्राइंग बनाएगी, पुल बनाएगी।' 
सामने के दरवाजे से आकर पापा ने कह-कहा लगाया और कशिश को कंधे पर उठा लिया। 
 
'और बेटा कमल तू, तू क्या बनेगा ?तुझे तो पुलिस बनना है न। 'दादाजी ने सामने बैठे कमल को छेड़ा। 
'पुलिस तो मैं तब बनता जब कशिश डाकू बनती। जब वह डाकू नहीं बन रही तो मैं पुलिस बनकर क्या करूंगा। उसे पकड़ने के लिए ही तो मुझे पुलिस बनना था। अब तो डॉक्टर बनूंगा-डॉक्टर।'
सब तालियां बजा-बजा कर हंस रहे थे।  

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