बाल कहानी : गुलशन‌

प्रभुदयाल श्रीवास्तव
उसका नाम था गुलशन। छोटी-सी प्यारी-सी गुड़िया। उम्र कोई 10-11 साल। जैसे गुलशन में फूल महकते हैं और अपनी आभा बिखेरते हैं, वह भी अपने नाम के अनुरूप, अपने गुणों, अपनी योग्यता और अपनी वाणी से अपने घर और आसपास के वातावरण को महकाती रहती थी। उसके अब्बू रहीम खान के प्राण तो जैसे उसी में बसते थे। 
 

 
गुलशन को खरोंच भी लग जाती तो रहीम खान दर्द से बिलबिला उठते थे। गुलशन पढ़ने- लिखने में तो कुशाग्र बुद्धि थी ही, खेलकूद में भी उतनी ही माहिर थी। अपनी कक्षा में पढ़ाई में प्रथम आती तो खेलकूद विशेषकर दौड़ में वह अपनी श्रेणी के विद्यार्थियों में अक्सर अव्वल‌ आती। दौड़ना उसका प्रिय खेल था। 100 मीटर, 200 मीटर और 500 मीटर की दौड़ में अपने आयु वर्ग के बच्चों में वह हमेशा बाजी मारती थी। 
 
मजे की बात यह थी कि जब वह मैदान‌ में दौड़ती तो उसके अब्बू भी मैदान के बाहर उसके साथ-साथ समानांतर दौड़ते और चिल्लाते जाते 'गुलशन दौड़ो, गुल‌शन दौड़ो'। 
 
मैदान के बाहर अपने अब्बू को अपने साथ दौड़ते हूए देखकर गुलशन का उत्साह जोर मारने लगता और वह सभी प्रतिभागियों को पीछे छोड़कर प्रथम आ जाती थी। अब्बू को भी अपार आनंद मिलता। वह बेटी को हृदय से लगा लेते। उनकी आंखों से आंसुओं की धार बहने लगती। 
 
गुलशन जानती थी कि जितनी तेज वह मैदान में दौड़ती है, उसी गति से अब्बू भी मैदान के बाहर दौड़ते होंगे तभी तो साथ-साथ दौड़ते दिखते हैं। वह कहती, 'अब्बू मत दौड़ा करो इतनी तेज‌, आप थक जाएंगे', परंतु अब्बू को कहां मानना था, 'कहते मैं दौड़ता हूं तभी तो तू दौड़ पाती है।' गुलशन हंस‌ देती। 
 
गुलशन के पड़ोस में मोहन रहता था मोहनलाल गोड़बोले। सीधा-सादा सलोना-सा लड़का, परंतु भगवान ने न जाने किस अपराध का उसे दंड दिया था कि वह एक‌ पैर से विकलांग था। बड़ी मुश्किल से चल पाता था, वह भी बैसाखी के सहारे। गुलशन को उस पर बहुत दया आती थी। उसके वश में होता तो उसका पैर पलभर में ठीक कर देती, परंतु न तो वह डॉक्टर थी, न ही उसके पास इतना पैसा था कि उसकी सहायता कर सके। 
 
मोहन कहता कि बड़ा होकर मैं भी गुलशन के समान दौड़ में शामिल होऊंगा और प्रथम आऊंगा। गुल‌शन उसका हौसला बढ़ाती। 
 
 

उस दिन गुलशन की दौड़ में अंतिम प्रतिस्पर्धा थी। लीग प्रतिस्पर्धा को पार कर वह फाइनल में पहुंच गई थी। तैयार‌ होकर जैसे ही वह घर से निकली, रास्ते में बैसाखी पर चलता हुआ मोहन मिल गया। 
 
कहने लगा- 'दीदी, आज मैं भी आपके साथ दौड़ने चलूंगा। मुझे भी ले चलो।' 
 
घर से निकलते ही मोहन का यह व्यवधान गुलशन को न जाने क्यों अच्छा नहीं लगा।
 
'जा-जा लंगड़े, तू मेरे साथ क्या दौड़ेगा?' गुलशन ने उसे झिड़क दिया और आगे बढ़ गई।
 
अब्बू तो पहले ही आगे जा चुके थे। मोहन अवाक् रह गया था। गुलशन से उसे ऐसी उम्मीद बिलकुल नहीं थी। 
 
गुलशन अपने ट्रैक में बिलकुल तैयार खड़ी थी। अब्बू हमेशा की तरह मैदान के बाहर सीमा पर दौड़ने को तैयार थे। जैसे ही सीटी बजी, गुलशन दौड़ पड़ी। उधर रहीम खान भी दौड़े, उसी पुरानी 'गुलशन दौड़ो' की आवाज के साथ। 500 मीटर की दौड़ थी। 
 
गुलशन बहुत तेज दौड़ रही थी। तेज और..., तेज और...। अब्बू उसकी बराबरी से उसके साथ- साथ दौड़ रहे थे। दोनों एक-दूसरे की प्रेरणा थे, एक-दूसरे का उत्साह थे और एक-दूसरे का विश्वास थे। 
 
अचानक ऐसा लगा, जैसे गुलशन के पैरों में ब्रेक लगने लगे हों। जैसे रेलगाड़ी धीरे-धीरे चूं चूं चें चें की आवाज के साथ रुक जाती है, गुलशन भी रुकने लगी। अरे-अरे...? यह क्या हो रहा है? वह मन ही मन बुदबुदाई। अरे-अरे... यह क्या...? उसके पैरों ने बिलकुल ही जवाब दे दिया और आगे बढ़ने से पूरी तरह से इंकार कर दिया। वह वहीं खड़ी रह गई। 
 
अब्बू चिल्ला रहे थे, 'गुलशन दौड़ो, गुलशन दौड़ो'। आगे बढ़ते हुए वे भी वहीं रुक गए। 'क्या हुआ गुलशन?' वे जोरों से चिल्लाए।
 
'अब्बू मेरे पैर आगे नहीं बढ़ रहे हैं, अब्बू मैं पराजित हो गई', वह जोर से चीख उठी। 
 
एक-एक करके सभी प्रतिभागी उससे आगे निकल गए। 
 
'या अल्लाह, यह क्या हुआ? मेरे पैर आगे क्यों नहीं बढ़ रहे', वह वहीं खड़े होकर रोने लगी। पैर तो जैसे किसी ने जंजीर से बांध दिए थे। 
 
उसकी आंखों में मोहनलाल गोड़बोले का चेहरा घूम गया। 'जा-जा लंगड़े, तू मेरे साथ क्या दौड़ेगा?' उसके स्वयं के शब्द कानों में बैंड-बाजों की तरह बजने लगे। तो क्या मोहन की बद दुआओं का असर...? नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता। फिर क्या हुआ? उसका सिर चकराने लगा। 
 
मोहन की परवशता पर वह कभी नहीं हंसी, उसे सदा प्रोत्साहित किया, पर उस दिन? 'दीदी मैं भी आपके साथ दौड़ने चलूंगा' यही तो कहा था बेचारे ने। और उसने कैसा घुड़क दिया था, 'नहीं-नहीं...'। 
 
उसकी आत्मा चीख उठी। करनी का फल ही उसे मिला था। निरंतर प्रथम आने वाली वह संपूर्ण दौड़ भी नहीं दौड़ सकी। 
 
'निर्बल‌ को न सताइए, जाकी जाकि मोटी हाय...' उसे किसी कवि की पंक्तियां स्मरण‌ हो आईं।
 
'अब कभी भी अपंग-लाचार को ठेस नहीं पहुंचाऊंगी' यह सोचते-सोचते वह मैदान से बाहर आ गई और अपने अब्बू से लिपटकर‌ रो पड़ी।

 
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