कहानी : मेरी छात्रा

रामजी मिश्र 'मित्र'
बात पुरानी हो चली है। उन्नीस सौ चौहत्तर ईसवीं में कठिघरा नाम के गांव में एक नई शिक्षिका आई। हमेशा वह समय से विद्यालय आती। विद्यालय में कई बच्चे स्कूल आना छोड़ रहे थे। सबकी सूची बनाकर वह बच्चों के घर संपर्क साधने लगी। वह चाहती थी कोई बच्चा शिक्षा से वंचित न हो। कुछ बच्चे मार की डर से विद्यालय छोड़ रहे थे।


 
अध्यापकों का उस समय का प्रसिद्ध फॉर्मूला था 'या तो पढ़ाई छोड़ दोगे या पढ़ने लगोगे'।
 
नई शिक्षिका ने बच्चों को पढ़ाने का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वह अन्य अध्यापिकाओं से भिन्न थी। धीरे-धीरे बच्चों के मन का भय निकलने लगा। बच्चे अपनी नई अध्यापिका की सब बात मानने लगे।
 
विद्यालय का वातावरण बहुत हद तक बदल चुका था। अन्य चार अध्यापिकाओं से बच्चे थोड़ा-बहुत डरते से थे। अध्यापिका सत्यभामा की मेहनत से पूरे गांव के लोग काफी प्रभावित थे।
 
सत्यभामा पहले इमिलिया और अढ़ौरी गांव में तैनात रही थी। वहां के गांव के लोग और बच्चे बार-बार उस सत्यभामा के पुनः तैनाती करवाने का संदेश भेजते। वहां के बच्चे अब भी उस महान शिक्षिका की याद में आंसू न रोक पाते।
 
कठिघरा गांव में लगभग सब लोग खेतिहर और मजदूर थे। स्कूल के पास में एक गहरा तालाब था। एक दिन इंटरवेल की घंटी लगी तो रोज की तरह आज भी बच्चे खेलने के लिए भाग खड़े हुए। सत्यभामा ने उच्च स्वर में आदेशित किया 'धीरे से निकलिए भागिए नहीं, नहीं तो चोट लग सकती है'।
 
भले ही सत्यभामा बच्चों को मारती-पीटती न हो, पर बच्चे फिर भी उसकी सारी बात मानते थे। सब बच्चे अनुशासन के साथ कक्षा से बाहर निकले। एक बच्चा फिर भी बहुत तेज भागा।
 
 
 

सत्यभामा ने उससे कहा- अभी आओ, तुमको ठीक करती हूं। इतना सुनते ही वह बच्चा भी अनुशासन में आ गया। यद्यपि वह जानता था कि वह किसी को पीटती नहीं। शेष अध्यापिकाएं अपने घर से लाए भोजन को करने में और बातचीत में मशगूल हो गईं।
 
सत्यभामा नए पाठ को कैसे पढ़ाया, इस तैयारी में जुट गई। कुछ देर बाद उसने परीक्षा की शेष कॉपियां जांचने का काम शुरू किया। कक्षा एक के दो बच्चे अचानक कक्षा में घुसे और आपस में बातें करने लगे।


 
एक ने कहा- बहनजी से मत बताना। सत्यभामा अनजान बनकर उनकी बातें सुन रही थीं। दूसरी बोली- हां बोदिका (स्याही की दवात) में पानी डालने गई थी, डूब गई। यह सुनते ही सत्यभामा की सारी कॉपियां बिखरती चली गईं। पेन उंगलियों में दबा रह गया और वह भाग खड़ी हुई।
 
तालाब के पास जाकर देखा तो बच्ची के एक हाथ ऊपर पानी आ चुका था। जान की परवाह छोड़ वह तालाब में कूद गई। तालाब गहरा था। मिट्टी निकाले जाने की वजह से यह किनारों पर से ही गहरा होता चला गया था। सारे बच्चे अपनी प्रिय अध्यापिका के पीछे दौड़ पड़े। सभी अध्यापिकाओं ने देखा कि सत्यभामा ने बहुत बड़ा खतरा मोल ले लिया है।
 
गांव के लोग भी कोहराम सुन जमा होने लगे। सत्यभामा उस बच्ची को पकड़ने के लिए आगे बढ़ रही थी। वह बिलकुल असावधान थी और बेपरवाह भी। बच्ची गहरे तालाब के मध्य खिंची जा रही थी। प्राणरक्षा को धीरे-धीरे हाथ-पैर चला रही थी।
 
सत्यभामा की नाक तक पानी आ चुका था, लेकिन वह उस छात्रा को पकड़ने में सफल हो गई। अब वह उसे हाथों से ऊपर उठाकर किनारे की तरफ बढ़ रही थी। बिना भय के पानी में छलांग लगाने वाली वह अध्यापिका अब सतर्कता से बाहर आ रही थी।
 
गांव के लोग और सारा विद्यालय पसरे सन्नाटे के साथ भयभीत होकर तमाशा देख रहे थे। किनारे आकर उसने बच्ची को बाहर की तरफ फेंका और फिर बड़ी मुश्किल से खुद बाहर आई। उसके मुंह से कुछ उल्टी कराई। चारों तरफ उस अध्यापिका की बहादुरी के किस्से शुरू हो गए।
 
जिसकी बिटिया बची थी, वे ठाकुर थे। पूरी ठाकुर बिरादरी के लोग इकट्ठा थे।
 
शिक्षिका ने बेटी के सर पर बड़े प्यार से हाथ फेरते हुए पूछा- कहां गई थीं, वह बोली- मामा के घर।
 
शिक्षिका ने उसे प्यार से देखकर प्रसन्न भाव से कहा- हम्म, फिर उसे गले लगा लिया और पीठ थपथपाकर उत्साह दिया ताकि वह तनिक भय महसूस न करे।
 
वह एक अच्छे शिक्षक की भांति उसके मनोभावों को समझ रही थी। फिर अचानक उसकी निगाह छात्रा की मां पर गई। उसने उससे कहा- वो देखो मां रास्ता देख रही है। बच्ची की मां लगातार आंसू बहाए चली जा रही थी। गांव वालों ने उसे पुरस्कृत करने का फैसला किया।
 
जैसे ही प्रस्ताव अध्यापिका के पास आया, वह बोली- कर्तव्यों के निर्वहन का पुरस्कार नहीं लिया जाता। मेरी छात्रा को ईश्वर ने जीवनदान दिया, यह मेरे लिए एक बड़ा और अनमोल पुरस्कार है।
 
गांव का कोई व्यक्ति उस आदर्श अध्यापिका के शब्दों के आगे न बोल सका। उनके मन में 'अध्यापिका' शब्द के प्रति अगाध सम्मान पैदा हो चुका था।
 
'अध्यापिका' शब्द की सच्ची परिभाषा को सभी जीवित रूप में देख रहे थे।
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