गेट खोलकर कार बाहर निकालते-निकालते प्रभात की नजर बाईं तरफ बने कमरे की ओर चली गईं, जहां पापा दरवाजे के पास ही रखे सोफे पर अखबार या कोई मैगजीन पढ़ते रहते थे।
वह प्रतीक्षा करने लगा कि पापा अब कहने वाले हैं कि कहां जा रहे हो सवेरे-सवेरे? कितनी ठंड है, टोपा नहीं पहना?
परंतु अरे... पापा हैं कहां अब? वे तो हैं ही नहीं इस दुनिया में। उसने अपना सिर झटक दिया। उफ्! क्या सोचने लगा?
कार लेकर चल दिया वह आगे।
पापा की आदत से परेशान हो जाता था प्रभात। घर से निकले नहीं कि टोकना कि कहां जा रहे हो? कब तक लौटोगे? अरे! स्वेटर नहीं पहना? कितनी ठंड है, टोपा तो लगा लेते?
और आखिरकार उसने एक दिन कह ही दिया था कि पापा रोज-रोज मत टोका करो, अब मैं कोई बच्चा नहीं हूं। उस दिन पापा उसे एकटक उसे देखते रह गए थे। हां, उस दिन से उन्होंने टोकना बिलकुल ही बंद कर दिया था। बंद क्या कर दिया, उस तरफ देखते ही नहीं थे, जहां से वह बाहर जा रहा होता। कार से जा रहा हो, बाइक से या पैदल- उन्हें कोई मतलब नहीं होता। क्या पहने हैं और क्या नहीं? इससे भी सरोकार नहीं रहा।
प्रभात की आंखें भर आईं। काश! आज पापा फिर टोकते कि कहां जा रहे हो इस ठंड में, टोपा नहीं पहना? परंतु अब...?
मन बड़ा उदास हो गया। उसने कार झील की तरफ मोड़ दी। शरद ऋतु के धुंधलके में झील के पार सारा क्षितिज डूबा हुआ था। शीतल पवन में झील का पानी उछाल मार रहा था।
उसे लगा कि पानी की एक लहर से पापा की धीमी आवाज आ रही है- 'कहां जा रहे हो?'
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