कुछ सयाने मेंढकों तथा बुद्धिमानों ने एकजुट होकर एक स्वर में कहा, 'राजन, पड़ोसी कुएं में हमसे दुगने मेंढक हैं। वे स्वस्थ व हमसे अधिक ताकतवर हैं। हम यह लड़ाई नहीं लड़ेंगे।'
गंगदत्त सन्न रह गया और बुरी तरह तिलमिला गया। मन ही मन उसने ठान ली कि इन गद्दारों को भी सबक सिखाना होगा। गंगदत्त ने अपने बेटों को बुलाकर भड़काया, 'बेटा, पड़ोसी राजा ने तुम्हारे पिताश्री का घोर अपमान किया है। जाओ, पड़ोसी राजा के बेटों की ऐसी पिटाई करो कि वे पानी मांगने लग जाएं।'
गंगदत्त के बेटे एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। आखिर बड़े बेटे ने कहा, 'पिताश्री, आपने कभी हमें टर्राने की इजाजत नहीं दी। टर्राने से ही मेंढकों में बल आता है, हौसला आता है और जोश आता है। आप ही बताइए कि बिना हौसले और जोश के हम किसी की क्या पिटाई कर पाएंगे?'
अब गंगदत्त सबसे चिढ़ गया। एक दिन वह कुढ़ता और बड़बड़ाता कुएं से बाहर निकल इधर-उधर घूमने लगा। उसे एक भयंकर नाग पास ही बने अपने बिल में घुसता नजर आया। उसकी आंखें चमकीं। जब अपने दुश्मन बन गए हों तो दुश्मन को अपना बनाना चाहिए। यह सोच वह बिल के पास जाकर बोला, 'नागदेव, मेरा प्रणाम।'
नागदेव फुफकारा, 'अरे मेंढक मैं तुम्हारा बैरी हूं। तुम्हें खा जाता हूं और तू मेरे बिल के आगे आकर मुझे आवाज दे रहा है।
गंगदत्त टर्राया, 'हे नाग, कभी-कभी शत्रुओं से ज्यादा अपने दुख देने लगते हैं। मेरा अपनी जाति वालों और सगों ने इतना घोर अपमान किया है कि उन्हें सबक सिखाने के लिए मुझे तुम जैसे शत्रु के पास सहायता मांगने आना पड़ा है। तुम मेरी दोस्ती स्वीकार करो और मजे करो।'
नाग ने बिल से अपना सिर बाहर निकाला और बोला, 'मजे, कैसे मजे?'
गंगदत्त ने कहा, 'मैं तुम्हें इतने मेंढक खिलाऊंगा कि तुम मोटाते-मोटाते अजगर बन जाओगे।'
नाग ने शंका व्यक्त की, 'पानी में मैं जा नहीं सकता। कैसे पकडूंगा मेंढक?'
गंगदत्त ने ताली बजाई, 'नाग भाई, यहीं तो मेरी दोस्ती तुम्हारे काम आएगी। मैंने पड़ोसी राजाओं के कुओं पर नजर रखने के लिए अपने जासूस मेंढकों से गुप्त सुरंगें खुदवा रखीं हैं। हर कुएं तक उनका रास्ता जाता है। सुरंगें जहां मिलती हैं, वहां एक कक्ष है। तुम वहां रहना और जिस-जिस मेंढक को खाने के लिए कहूं, उन्हें खाते जाना।'
नाग गंगदत्त से दोस्ती के लिए तैयार हो गया। क्योंकि उसमें उसका लाभ ही लाभ था। एक मूर्ख बदले की भावना में अंधे होकर अपनों को दुश्मन के पेट के हवाले करने को तैयार हो तो दुश्मन क्यों न इसका लाभ उठाए?
नाग गंगदत्त के साथ सुरंग कक्ष में जाकर बैठ गया। गंगदत्त ने पहले सारे पड़ोसी मेंढक राजाओं और उनकी प्रजाओं को खाने के लिए कहा। नाग कुछ सप्ताहों में सारे दूसरे कुओं के मेंढकों को सुरंगों के रास्ते जा-जाकर खा गया। जब सब समाप्त हो गए तो नाग गंगदत्त से बोला, 'अब किसे खाऊं? जल्दी बता। चौबीस घंटे पेट फुल रखने की आदत पड़ गई है।'
गंगदत्त ने कहा, 'अब मेरे कुएं के सभी सयाने और बुद्धिमान मेंढकों को खाओ।'
वह खाए जा चुके तो प्रजा की बारी आई। गंगदत्त ने सोचा, 'प्रजा की ऐसी की तैसी। हर समय कुछ न कुछ शिकायत करती रहती है। उनको खाने के बाद नाग ने खाना मांगा तो गंगदत्त बोला, 'नाग मित्र, अब केवल मेरा कुनबा और मेरे मित्र बचे हैं। खेल खत्म और मेंढक हजम।'
नाग ने फन फैलाया और फुफकारने लगा, 'मेंढक, मैं अब कहीं नहीं जाने का। तू अब खाने का इंतजाम कर वर्ना।'
गंगदत्त की बोलती बंद हो गई। उसने नाग को अपने मित्र खिलाए फिर उसके बेटे नाग के पेट में गए। गंगदत्त ने सोचा कि मैं और मेंढकी जिंदा रहे तो बेटे और पैदा कर लेंगे। बेटे खाने के बाद नाग फुफकारा, 'और खाना कहां है? गंगदत्त ने डरकर मेंढकी की ओर इशार किया। गंगदत्त ने स्वयं के मन को समझाया, 'चलो बूढ़ी मेंढकी से छुटकारा मिला। नई जवान मेंढकी से विवाह कर नया संसार बसाऊंगा।'
मेंढकी को खाने के बाद नाग ने मुंह फाड़ा, 'खाना।'
गंगदत्त ने हाथ जोड़े, 'अब तो केवल मैं बचा हूं। तुम्हारा दोस्त गंगदत्त। अब लौट जाओ।'
नाग बोला, 'तू कौन-सा मेरा मामा लगता है और उसे हड़प गया।
सीखः अपनो से बदला लेने के लिए जो शत्रु का साथ लेता है, उसका अंत निश्चित है ।