एक दिन उल्लू पानी पीने के बहाने झील के किनारे उगी एक झाड़ी पर उतरा। निकट ही एक बहुत शालीन व सौम्य हंस पानी में तैर रहा था। हंस तैरता हुआ झाड़ी के निकट आया।
उल्लू ने बात करने का बहाना ढूंढा, 'हंस जी, आपकी आज्ञा हो तो पानी पी लूं। बड़ी प्यास लगी है।'
हंस ने चौंककर उसे देखा और बोला, 'मित्र! पानी प्रकृति द्वारा सबको दिया गया वरदान है। उस पर किसी एक का अधिकार नहीं।'
उल्लू ने पानी पीया। फिर सिर हिलाया जैसे उसे निराशा हुई हो। हंस ने पूछा, 'मित्र! असंतुष्ट नजर आ रहे हो। क्या प्यास नहीं बुझी?'
उल्लू ने कहा, 'हे हंस! पानी की प्यास तो बुझ गई पर आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि आप नीति व ज्ञान के सागर हैं। मुझमें उसकी प्यास जग गई है। वह कैसे बुझेगी?'
हंस मुस्कुराया, 'मित्र, आप कभी भी यहां आ सकते हैं। हम बातें करेंगे। इस प्रकार मैं जो जानता हूं, वह आपका हो जाएगा और मैं भी आपसे कुछ सीखूंगा।'
इसके पश्चात हंस व उल्लू रोज मिलने लगे। एक दिन हंस ने उल्लू को बता दिया कि वह वास्तव में हंसों का राजा हंसराज है। अपना असली परिचय देने के बाद हंस अपने मित्र को निमंत्रण देकर अपने घर ले गया। शाही ठाठ थे। खाने के लिए कमल व नरगिस के फूलों के व्यंजन परोसे गए और जानें क्या-क्या दुर्लभ खाद्य थे, उल्लू को पता ही नहीं लगा। बाद में सौंफ-इलायची की जगह मोती पेश किए गए। उल्लू दंग रह गया।
अब हंसराज उल्लू को महल में ले जाकर खिलाने-पिलाने लगा। रोज दावत उड़ती। उसे डर लगने लगा कि किसी दिन साधारण उल्लू समझकर हंसराज दोस्ती न तोड़ ले।
इसलिए स्वयं को हंसराज की बराबरी का बनाए रखने के लिए उसने झूठ कह दिया कि वह भी उल्लुओं का राजा उल्लूकराज है। झूठ कहने के बाद उल्लू को लगा कि उसका भी फर्ज बनता है कि हंसराज को अपने घर बुलाए।
एक दिन उल्लू ने दुर्ग के भीतर होने वाली गतिविधियों को गौर से देखा और उसके दिमाग में एक युक्ति आई। उसने दुर्ग की बातों को खूब ध्यान से समझा। सैनिकों के कार्यक्रम नोट किए। फिर वह चला हंस के पास। जब वह झील पर पहुंचा, तब हंसराज कुछ हंसनियों के साथ जल में तैर रहा था। उल्लू को देखते ही हंस बोला, 'मित्र, आप इस समय?'
उल्लू ने उत्तर दिया, 'हां मित्र! मैं आपको आज अपना घर दिखाने व अपना मेहमान बनाने के लिए ले जाने आया हूं। मैं कई बार आपका मेहमान बना हूं। मुझे भी सेवा का मौका दीजिए।'
हंस ने टालना चाहा, 'मित्र, इतनी जल्दी क्या है? फिर कभी चलेंगे।'