खिसियानी बिल्ली : झुंझलाए-तिलमिलाए अमेरिका को लगा कि रॉकेट भले ही गिर गया हो, हाथी दुबला हो जाएगा तो क्या हाथी नहीं रहेगा? 'असली महाशक्ति तो हमीं हैं- दिखा देंगे दुनिया को।' अंतरिक्ष में एक-दूसरे के साथ होड़ का वह समय धरती पर सोवियत संघ और अमेरिका के बीच बेजोड़ शीतयुद्ध का भी समय था। अमेरिका की हालत ऐसी खिसियानी बिल्ली जैसी हो गई थी, जो अपनी झेंप मिटाने के लिए कोई खंबा नोचने को व्याकुल हो उठती है।
झेंप मिटाने की अपनी व्याकुलता में अमेरिका को यही विचार आया कि क्यों न चंद्रमा पर परमाणु बम पटक कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए। अतः चंद्रमा पर एक ऐसा परमाणु धमाका करने की योजमा बनाई जाने लगी, जिससे बिजली जैसी प्रचंड कौंध पैदा होती और साथ ही धूल का कुकुरमुत्ते जैसा एक ऐसा विशाल बदल बनता, जो धरती पर से भी सब को दिखाई पड़ता। ऐसा होने पर दुनिया अमेरिका का लोहा मान ही लेती। दुनिया यह भी मान लेती कि अमेरिका चंद्रमा पर न केवल पहुंचने का ही पराक्रम रखता है, धरती पर के हिरोशिमा और नागासाकी की तरह ही वहां भी महाबम पटकने का दम-खम दिखा सकता है।
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रूसी भी कुछ कम नहीं : कमाल तो यह था कि आज के रूस वाला तत्कालीन सोवियत संघ भी उस समय एक ऐसी ही योजना बना रहा था। अमेरिका पर अपनी तकनीकी श्रेष्ठता का एक और प्रमाण देने और हो सके तो उसे चंद्रमा से दूर रखने के लिए वह भी वहां पर परमाणु विस्फोट करने की एक गुप्त योजना बनाने में लगा हुआ था।
इस योजना का पता सोवियत संघ का विघटन हो जाने के कई साल बाद 1999 में चला। अंतरिक्ष में पहुंचने की होड़ के बहाने से दोनों प्रतिस्पर्धियों ने अपने सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों से कहा कि वे पता लगाएं और तैयारी करने में जुट जाएं कि चंद्रमा पर परमाणु बम चला कर वहां कैसे ऐसा भभका रचा जा सकता है कि दूसरा पक्ष वहां जाने की हिम्मत ही न करे।
हालांकि 'वैनगार्ड टीवी 3' दुर्घटना के कुछ ही सप्ताह बाद, 31 मई 1958 को, अमेरिका 'एक्प्लोरर 1' नाम का अपना एक उपग्रह अंतरिक्ष में भेजने मे सफल रहा था, तब भी उस का समझना था कि अपनी हेठी का दंश मिटाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। चंद्रमा पर परमाणु बम का धमाका ही पूरे धमाके के साथ उस की लुट गई प्रतिष्ठा को पुनर्प्रतिष्ठित कर सकता है। अतः इस काम के लिए मई 1958 में दस सदस्यों वाला एक विशेषज्ञ दल गठित किया गया। लेओनार्ड राइफल, जो बाद में अमेरिकी अंतरिक्ष अधिकरण नासा के उपनिदेशक बने, विशेषज्ञ दल के प्रमुख बनाए गए।
परमाणु के बदले हाइड्रोजन बम : " A119" कोडनाम से एक गुप्त योजना पर काम शुरू हुआ। अमेरिकी वायुसेना के अलबुकर्क स्थित विशेष अस्त्र निर्माण केंद्र को उस का प्रायोजक बनाया गया। वैज्ञानिकों के विशेषज्ञ दल का सुझाव था कि चंद्रमा पर यदि बम गिराना ही है, तो परमाणु बम के बदले क्यों न सीधे हाइड्रोजन बम गिराया जाए।
हाइड्रोजन बम परमाणु बम से कहीं अधिक विध्वंसक होता है। परमाणु बम में यूरेनियम या प्लूटोनियम के नाभिकों में विखंडन से विस्फोटक ऊर्जा पैदा होती है, जबकि हाइड्रोजन बम में एक अरंभिक विस्फोट इतनी प्रचंड गर्मी और दबाव पैदा करता है कि नाभिकों के गल कर आपस में जुड़ जाने से और अधिक ऊर्जा मुक्त होती है।
सुझाव तो लोकलुभावन था, लेकिन उस पर अमल उतना ही दुष्कर भी था। अमेरिकी वायुसेना ने यह कह कर उसे अस्वीकार कर दिया कि हाइड्रोजन बम इतना भारी होगा कि उसे बिना भारी खतरा मोल लिए 385000 किलोमीटर दूर चंद्रमा तक पहुंचाना संभव नहीं होगा। अंत में यह तय हुआ कि हाइड्रोजन बम नहीं, परमाणु बम ही भेजा जाएगा और उस की विस्फोटक क्षमता भी हिरोशिमा पर गिराए गए बम के दसवें हिस्से के बराबर ही होगी।
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विस्फोट ऐसा कि पृथ्वी पर से दिखे : योजना यह थी कि बम को एक रॉकेट की सहायता से चंद्रमा के अंधेरे पक्ष पर दागा जाएगा। चंद्रमा की सतह से टकराते ही उस का इस तरह विस्फोट होगा कि उस के विस्फोट से धूल और गर्द का जो प्रचंड गुबार उठेगा, वह सूर्य-प्रकाश के उजाले में धरती पर से भी दिखाई पड़ेगा। धरती पर से जब हर कोई उसे देख सकेगा, तो सोवियत संघ की पिछली सफलताएं लोगों को अपने आप धुंधली प्रतीत होने लगेंगी। अमेरिका की धाक एक बार फिर जम जाएगी।
अमेरिका को पक्का पता तो नहीं था, पर वहां अटकलें जरूर लगाई जा रही थीं कि रूसी भी चंद्रमा पर ऐसा कोई धमाका करने की सोच रहे होंगे। अमेरिकी दैनिक "पिट्सबर्ग प्रेस" ने 1 नवंबर 1957 को यही अटकल लगाते हुए लिखा कि सोवियत संघ अपने यहां समाजवादी क्राति की आगामी 7 नवंबर को पड़ने वाली 40वीं वर्षगांठ इस बार चंद्रमा पर बंबारी द्वारा मनाएगा।
लेकिन, 7 नवंबर 1957 को ऐसा कुछ नहीं हुआ। सोवियत रॉकेटों के उस समय के इंजीनियर बोरिस चेर्तोक ने सोवियत संघ के विघटन के बाद 1999 में रहस्योद्घाटन किया कि चंद्रमा पर परमाणु प्रहार की सोवियत योजना 1957 में नहीं, बल्कि 1958 के शुरू में बनी थी- यानी लगभग उसी समय, जब अमेरिकी योजना पर भी काम शुरू हुआ था।
परमाणु प्रहार की सोवियत योजना : सोवियत योजना का कोडनाम " E- 4" था। उस के पीछे मुख्य दिमाग़ सोवियत परमाणु वैज्ञानिक याकोव बोरिसोविच त्सेल्दोविच का था। वे यह मान कर चल रहे थे कि चंद्रमा पर अंतरिक्षयात्री भेजे जाएंगे और वे इस विस्फोट को फिल्मांकित करेंगे। यह फिल्म बाद में सारी दुनिया को दिखाई जाएगी। तब दुनिया को यह भी पता चलेगा कि सोवियत संघ चंद्रमा पर परमाणु बम का विस्फोट करने का ही नहीं, वहां आदमी को उतारने का भी दम रखता है। अमेरिका वाले तो चंद्रमा पर जाने के बदले धरती पर से ही वहां धूल का गुबार देख कर तृप्त हो जाने को तैयार थे।
जोश में खो बैठे थे होश : चंद्रमा पर परमाणु बम प्रहार जितना दुर्भाग्यपूर्ण रहा होता, उतना ही सौभाग्यपूर्ण यह तथ्य भी है कि ऐसा नहीं हुआ। 1958 के दौरान ही अमेरिका और सोवियत संघ दोनो ने, एक-दूसरे की जानकारी के बिना, अपनी गुप्त योजनाएं त्याग दीं। कारण बेहद साधारण-सा था। दोनों अपने जोश में होश खो बैठे थे। भूल गए थे कि चंद्रमा पर तो हवा है ही नहीं।
बिना वायुमंडल और बिना हवा के विस्फोट इतना क्षणिक होता और धूल इतनी कम उड़ती कि न तो वह पृथ्वी पर से दिखाई पड़ती और न कोई फिल्म ही उस की प्रभावोत्पादक छाप छोड़ पाती। केवल एक मामूली सी क्षणिक कौंध के लिए भारी जोर लगा कर अपार जोखिम उठाने का कोई तुक नहीं था।
सबसे बड़ा जोखिम यह था कि अंतरिक्ष अनुसंधान के उस शैशव काल में रॉकेट तकनीक भी अपने शैशव में ही थी। वह इतनी विकसित नहीं हो पाई थी कि पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता कि बम को ले जाने वाला रॉकेट, उसे चंद्रमा की दिशा में इस तरह प्रक्षेपित कर पाएगा कि वह पृथ्वी की परिक्रमा कक्षा से बाहर निकल कर चंद्रमा तक पहुंचेगा ही, न कि किसी बूमरैंग की तरह लौट कर पृथ्वी पर ही आ गिरेगा। यदि वह पृथ्वी पर ही गिरता, तो जहां भी गिरता, वहां एक नया हिरोशिमा तो बनता ही, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच खुले परमाणु युद्ध की भी नौबत आ सकती थी।