आयोजकों ने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की कि अभियान में भाग लेने वालों को मंगल ग्रह की यात्रा से जुड़ी सभी संभावित परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना करना पड़े। इस समय पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन ISS के अंतरिक्ष यात्रियों की ही तरह 'मार्स 500' के हर प्रतिभागी के सोने-जागने और काम करने का एक दैनिक कार्यक्रम तय कर दिया गया था। पूरी कठोरता से उसका पालन करना पड़ता था। डॉक्टर और मनोविशेषज्ञ विडियो कैमरों व अन्य तरीकों से बराबर उन पर नज़र रखते थे।
स्वादिष्ट चीज़ें पहले ख़त्मः उनके खाद्यपदार्थों की मात्रा हालांकि पहले से तय थी, पर अपनी पसंद की चीज़ खाने की छूट होने के कारण स्वादिष्ट चीज़ें पहले ही खत्म हो गयीं। बाद में उन्हें मन मार कर महीनों वे चीज़ें खानी पड़ीं, जो उन्हें पसंद नहीं थीं। पृथ्वी से मंगल ग्रह तक की दूरी के कारण रेडियो संकेतों को लगने वाले समय के अनुपात में उड़न नियंत्रण केंद्र के साथ बातचीत में 12 मिनट तक की देर और 351 कथित 'तकनीकी गड़बड़ियाँ' भी उन्हें तंग करने की साजिश नहीं, उनके धैर्य और विवेक की परीक्षा का सुनियोजित कार्यक्रम था।
दो मुख्य आपत्तियाँ : तब भी, आलोचकों का कहना है कि चार देशों के छह सहभागियों की एक टीम ने 'मार्स 500' के बंद मॉड्यूलों में, दुनिया से अलग-थलग, 520 दिन सफलतापूर्वक बिता ज़रूर लिये, पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि मंगल ग्रह तक की सच्ची यात्रा भी इसी तरह सफल रहेगी। उनकी दो मुख्य आपत्तियाँ हैं, जो सचमुच निर्णायक महत्व रखती हैं।
एक तो यह, कि सभी सहभागी जानते थे कि वे मंगल ग्रह पर नहीं, पृथ्वी पर ही हैं। किसी भी समय इस प्रयोग को छोड़ कर बाहर निकल सकते हैं। कोई सच्चा संकट होने पर उन्हें तुरंत बचा लिया जायेगा। दूसरी आपत्ति यह है कि सारा समय पृथ्वी पर ही रहने के कारण न तो उन्हें भारहीनता का सामना करना पड़ा और न ब्रह्मांडीय किरणों वाले उस ख़तरनाक विकिरण का, जिसकी मंगल ग्रह पर सतत बौछार होती रहती है।
यह सही है कि 'मार्स 500' के छह सहभागियों द्वारा दुनिया से अलग-थलग 520 दिन बिताने और सौ से अधिक प्रयोग आदि करने भर से मंगल ग्रह की डेढ़ साल लंबी किसी सच्ची यात्रा से जुड़े सारे प्रश्नों के उत्तर नही मिल सकते। पर यह भी सही है कि जिन प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं, मंगल ग्रह की भावी यात्रा को संभव बनाने के लिए उन्हें भी कभी न कभी तो ढूढना ही पड़ता।
इतनी ललक क्यों? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि नितांत निर्जीव और प्राणघातक परिस्थितियों वाले चंद्रमा या मंगल पर जाने और वहाँ बस्तियाँ बसाने के लिए हम इतने लालायित क्यों है? ब्रह्मांड के बारे में अब तक की जानकारियों के अनुसार, स्वर्ग-समान इस पृथ्वी पर-- जहाँ सारे प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के बावजूद पूरे सौरमंडल ही नहीं, दूर-दूर तक के अंतरिक्ष की सर्वोत्तम जीवन-परिस्थितियाँ मौजूद है-- क्या हमारे लिए अब और कुछ करने को नहीं रहा? क्या वैश्विक तापमानवृद्धि पर सबसे पहले विजय पाना, चंद्रमा या मंगल ग्रह पर विजय पाने की अपेक्षा, हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं होनी चाहिये?