फार्मा कंपनियों के शेयरों में उठाव संभव

विट्‍ठल नागर
सोमवार, 9 जुलाई 2007 (20:16 IST)
इन दिनों देश के शेयर बाजार में फार्मा कंपनियों के शेयरों में अधिक कामकाज नहीं हो रहा है और बैंकिंग, सीमेंट व धातु के शेयरों की तुलना में उनके भाव अधिक नहीं बढ़ रहे हैं।

एलआईसी व कुछ धनी वर्ग ही कुछ दवा कंपनियों के शेयरों में दिलचस्पी ले रहे हैं। भय है कि दवा कंपनियों का निर्यात अधिक है एवं डॉलर के विरुद्ध रुपया मजबूत होने से उनका मुनाफा प्रभावित हो सकता है, किंतु जब रुपया कुछ कमजोर बनेगा तो दवा के शेयरों की माँग बढ़ सकती है एवं उनके भाव अधिक बेहतर बन सकते हैं।

भारत की दवा कंपनियाँ जिस तेजी से अमेरिका व योरप के बाजारों में अपने ध्वज लहरा रही हैं, उससे विकसित देशों की सरकारों व उनकी कंपनियों को वैसी ही कँपकँपी आ रही है जैसी कि भारतीय आईटी व बीपीओ कंपनियों के कामकाज से पैदा हुई थी किंतु अंततः उन्हें भारतीयों के प्रवेश हेतु अपने दरवाजे खोल देने पड़े थे। अब वे भारतीय दवा कंपनियों के विरुद्ध अपने हथियार तान रहे हैं। भारतीय कंपनियाँ भी जवाब में पैंतरेबाजी के सहारे उन देशों में आगे बढ़ रही हैं।

वैश्विक फार्मा कंपनियों की जान इसलिए भी साँसत में आ रही है कि भारतीय कंपनियाँ विदेशी फार्मा कंपनियों का तेजी से अधिग्रहण करके दवाओं का पोर्टफोलियो बढ़ा रही हैं एवं अपने विक्रय व मुनाफे में वृद्धि ला रही हैं।

अमेरिका व योरप के देशों में खाद्य पदार्थों व दवाओं के विक्रय पर सख्त नियम-कानून लागू हैं एवं नियमों को लागू करने वाली संस्थाएँ विदेशी दवाओं के प्रति बहुत ही सख्त रवैया अपनाती हैं। किंतु भारतीय कंपनियाँ इन संस्थाओं के नियम-कायदों का अनुसरण करके वैश्विक कंपनियों द्वारा पैदा की गई प्रतिस्पर्धा का सरलता से सामना कर रही हैं।

देश की दस शीर्षस्थ दवा कंपनियों ने वर्ष 2006-07 की चौथी तिमाही में वर्ष 2005-06 की इसी अवधि की तुलना में अपने निवल लाभ में दुगुनी से अधिक वृद्धि की है।

भारतीय दवा कंपनियाँ अब अधिक लाभकारी क्षेत्र बायोटेक व न्यूट्रास्युटीकल्स जैसे क्षेत्र में अनुसंधान व विकास के सहारे अपने विक्रय में वृद्धि लाने का प्रयास कर रही हैं, क्योंकि इसमें जहाँ मूल्यवृद्धि का लाभ अधिक है वहीं प्रतिस्पर्धा भी कुछ कम है। रेनबेक्सी, डॉ. रेड्डीज लेब्स व ग्लेनमार्क इसी क्षेत्र में अधिक काम कर रहे हैं।

दक्षिण भारत की कुछ छोटी कंपनियों ने इस क्षेत्र में जोरदार काम किया है। भारतीय कंपनियों पर दबाव बनाने के लिए वैश्विक कंपनियाँ जहाँ मुकदमेबाजी का सहारा ले रही हैं, वहीं अपनी दवाओं के भाव भी घटा रही हैं किंतु भारतीय कंपनियों ने इसमें सक्षमता हासिल करने के लिए कमर कस ली है।

निकोलस पीरामल, दिसमैन, झेड्स हेल्थ केयर जैसी कई कंपनियों ने विदेशी प्रतिस्पर्धा में भाग लेने के बजाए वैश्विक कंपनियों के लिए अनुसंधान, विकास करने व उनकी दवाओं की मार्केटिंग का कामकाज हाथ में लेने के अनुबंध किए हैं।

अर्थात वे वैश्विक कंपनियों के लिए दवा बनाने व उन्हें बेचने का काम ठेके पर करती हैं। ऐसा करके भी वैश्विक कंपनियाँ दवाओं की निर्माण लागत बहुत अधिक नहीं घटा पाई हैं, किंतु ठेके पर काम करने वाली भारतीय कंपनियों की लाभप्रदता बढ़ रही है।

भारतीय फार्मा उद्योग गुणवत्तापूर्ण श्रमशक्ति एवं दवा निर्माण के आधुनिकतम उपकरणों व सुविधाओं से सज्जित है। प्रौद्योगिकी से संबंधित चुनौतियों का सामना करने में उसकी क्षमता व योग्यता विश्व स्तरीय है। इतने पर भी केमिकल्स व केमिस्टों से संबंधित लागत खर्च वैश्विक लागत का मात्र 20 प्रतिशत है। इसी वजह से भारतीय कंपनियाँ विदेशों में सफल हो रही हैं।

इससे बड़ी बात यह है कि भारतीय दवा कंपनियों ने अपने संयंत्रों की डिजाइन, उत्पादन प्रक्रिया व पेकिंग आदि अमेरिका की नियामक संस्था यूएसडीएफ के अनुकूल बना लिया है। इस वजह से सख्त से सख्त नियामक व्यवस्था वाले देश दवाएँ बेचने कोई रोड़ा नहीं अटका सकते एवं वैश्विक कंपनियाँ अपने लिए अनुसंधान व विकास के साथ दवा निर्माण व उनकी दवाओं के विक्रय का कामकाज का ठेका भारतीय छोटी व मध्यम कंपनियों को सरलता से दे देती हैं।

यह सही है कि अमेरिका में अपनी दवाओं के लिए भारतीय कंपनियों को यूएसडीएफ की मंजूरी लेना जरूरी होता है। कई बार यह मंजूरी 30 सप्ताह की होती है किंतु उस अवधि में भी भारतीय कंपनियाँ काफी कमा लेती हैं, क्योंकि उनकी दवा अमेरिकी कंपनियों की वैसी ही दवा की तुलना में काफी सस्ती होती हैं, इसलिए खूब बिकती हैं।

हालाँकि अमेरिका में दवाओं की माँग में जितनी वृद्धि होनी थी उतनी हो गई। पूर्वी व पश्चिमी योरप, पश्चिमी व दक्षिण-पूर्वी एशिया, दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका के बाजार भारतीय कंपनियों के लिए उपलब्ध हैं।

भारत में दवाओं का बाजार अभी 34 हजार करोड़ रुपए का है। भारतीय कंपनियों का निर्यात कामकाज 246000 करोड़ रुपए का है, जो वर्ष 2012 में 1122000 करोड़ रुपए का होने का अनुमान है। 2012 में घरेलू बाजार 586000 करोड़ रुपए का होगा। अर्थात्‌ घरेलू बाजार की तुलना में निर्यात बाजार अधिक तेजी से बढ़ेगा।

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