साल 2025 का आधा वक्त ही गुजरा है, लेकिन इंसान उससे पहले ही अर्थ ओवरशूट डे तक पहुंच चुका है। मतलब, इंसानों ने महज छह महीने के अंदर उतने प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल कर लिया, जितना पृथ्वी पर एक साल में पैदा हो सकता है।
24 जुलाई ही वह दिन है जब मानव जाति ने इस पूरे साल के लिए प्रकृति की ओर से उपलब्ध कराए गए सभी पर्यावरणके संसाधनों का उपभोग कर लिया। यह जानकारी इंटरनेशनल सस्टेनेबिलिटी ऑर्गेनाइजेशन ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क' और कनाडा के टोरंटो स्थित यॉर्क यूनिवर्सिटी ने दी है।
हर साल ओवरशूट डे की घोषणा की जाती है। इस साल यह तारीख पिछले साल की तारीख से ठीक एक हफ्ते पहले आयी है। इसकी मुख्य वजह यह है कि महासागर पहले जितना कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित नहीं कर पा रहे हैं।
हम इंसान प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इतनी तेजी से कर रहे हैं कि वे दोबारा बन ही नहीं पा रहे। इसका असर हमें जंगलों के कटने, जीव-जंतुओं की कमी और हवा में कार्बन की मात्रा बढ़ने के तौर पर दिख रहा है। यह समस्या 1970 के दशक से ही शुरू हो गई थी और तब से लगातार बढ़ रही है।
ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क के सह-संस्थापक माथियस वैकेरनैगेल ने डीडब्ल्यू को बताया कि संसाधनों का अत्यधिक दोहन कई पर्यावरणीय समस्याओं' को जन्म दे रहा है। हम धरती पर मौजूद संसाधनों का जितना तेजी से इस्तेमाल कर रहे हैं वे उतनी तेजी से नहीं बन पा रहे हैं। समय के साथ यह नुकसान बढ़ता जाता है और इसके गंभीर परिणाम सामने आते हैं। यह स्थिति पर्यावरण संतुलन के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है।
उन्होंने कहा, "भले ही हम अपने संसाधनों के उपभोग को वर्तमान स्तर पर बनाए रखें, तब भी हम धरती पर पर्यावरण का कर्ज बढ़ाते जाएंगे।” उन्होंने यह भी कहा कि इस कर्ज को मापा जा सकता है।
पूरी दुनिया में हो रहा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन
कतर, लक्जमबर्ग और सिंगापुर ऐसे पहले देश हैं जिन्होंने फरवरी में ही अपने हिस्से के प्राकृतिक संसाधन इस्तेमाल कर लिए थे यानी अपने देश के ओवरशूट डे को पार कर लिया था। अमेरिका भी जल्दी ही इस सूची में शामिल हो गया।
अगर हम सब अमेरिका के लोगों की तरह संसाधनों का इस्तेमाल करते, तो 13 मार्च तक ही दुनिया के सारे संसाधन खत्म हो जाते। जर्मनी और पोलैंड के लिए यह तारीख 3 मई है, चीन और स्पेन के लिए 23 मई, तो वहीं दक्षिण अफ्रीका के लिए 2 जुलाई है।
वैकेरनैगेल ने कहा कि ज्यादा आय आम तौर पर संसाधनों की अधिक खपत की ओर ले जाती है।' हालांकि, इसके अलावा और भी कई वजहें हैं। कतर में गर्मी और उमस बहुत होती है और बारिश भी कम होती है। इसलिए, वहां एयर कंडीशनिंग का बहुत इस्तेमाल होता है और ज्यादातर ये एसी जीवाश्म ईंधन से चलाए जाते हैं।
उन्होंने कहा, "उनके पास पर्याप्त मात्रा में जीवाश्म ईंधन हैं। इसलिए, इसे इस्तेमाल करना सस्ता पड़ता है, लेकिन इसका व्यापक असर होता है। यह देश खारे पानी को मीठा बनाने में भी बहुत संसाधन इस्तेमाल करता है। इस प्रक्रिया में भी बहुत ज्यादा ऊर्जा की खपत होती है।
दूसरी ओर, उरुग्वे 17 दिसंबर तक अपने हिस्से के प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करता रहेगा। उसने बिजली की जरूरतों के लिए अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल करना सीख लिया है, जिसमें ज्यादातर पानी से बनी बिजली, हवा से बनी बिजली और बायोमास का इस्तेमाल होता है।
धरती जितना पैदा कर सकती है उतना ही इस्तेमाल करना
कुछ देश, जैसे कि भारत, केन्या और नाइजीरिया, पृथ्वी के संसाधनों को उसकी क्षमता के भीतर ही इस्तेमाल करते हैं। मतलब, धरती जितना पैदा कर सकती है उतना ही इस्तेमाल करते हैं। अगर हम सभी दुनिया में उपलब्ध संसाधनों का सही तरीके से इस्तेमाल करें, तो हर व्यक्ति को पर्यावरणीय संसाधनों (इकोलॉजिकल फुटप्रिंट) का इस्तेमाल उतना ही करना चाहिए जितना धरती की प्रति व्यक्ति जैव क्षमता या बायोकैपेसिटी है। यह इस समय लगभग 1.5 ग्लोबल हेक्टेयर है।
बायोकैपेसिटी का मतलब है धरती और समुद्र के वे क्षेत्र जो हमें भोजन, लकड़ी जैसे संसाधन देते हैं, शहरों के बुनियादी ढांचे को संभाल सकते हैं और अतिरिक्त सीओ2 को भी सोख सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति या देश इससे ज्यादा संसाधनों का इस्तेमाल करता है जितना प्रति व्यक्ति धरती उपलब्ध करा सकती है, तो इसका मतलब है कि वह धरती के संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर रहा है।
वैकेरनैगेल ने कहा कि जर्मनी की प्रति व्यक्ति जैव क्षमता वैश्विक औसत के बराबर है, लेकिन वह लगभग तीन गुना ज्यादा इस्तेमाल करता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो जर्मनी अपने हिस्से से तीन गुना ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों की खपत कर रहा है।
उन्होंने कहा कि दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला देश भारत एक साल में जितना प्राकृतिक संसाधन फिर से पैदा कर सकता है उससे ज्यादा इस्तेमाल कर रहा है। हालांकि, वैश्विक स्तर पर देखा जाए, तो अभी उपभोग का स्तर एक ग्रह से भी कम है।'
उन्होंने आगे कहा कि हमारा लक्ष्य एक ग्रह के संसाधनों के इस्तेमाल का नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस धरती पर सिर्फ इंसान नहीं रहते, बल्कि और भी जीव-जंतु हैं। उनके लिए भी संसाधन बचाने जरूरी हैं। इसलिए सही मायने में हमें एक ग्रह से भी कम संसाधनों का उपयोग करना चाहिए, ताकि पर्यावरण सुरक्षित और संतुलित बना रहे।
दशकों से जारी दोहन से हो रहा भारी नुकसान
वैकेरनैगेल ने कहा कि हम धरती पर मौजूद जितने संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं वह उसकी प्राकृतिक क्षमता से ज्यादा है, यानी हम धरती को फिर से संसाधनों को जमा करने का वक्त ही नहीं दे रहे हैं। इसके बावजूद हमें लगता है कि सब कुछ ठीक है, सब सामान्य है, लेकिन सच यह है कि हम खुद को ही धोखा दे रहे हैं।
थिंक टैंक क्लब ऑफ रोम' के सह-अध्यक्ष पॉल श्रीवास्तव ने कहा कि अब वक्त आ गया है कि हम अर्थव्यवस्था को समझने का अपना नजरिया बदलें। उन्होंने आगे कहा, "हमें दोहन करने वाली सोच' से निकलकर फिर से निर्माण करने वाली सोच' की ओर बढ़ना होगा। एक ऐसी व्यवस्था जो सिर्फ संसाधनों की खपत ना करे, बल्कि प्रकृति को फिर से संवारने और संतुलन बनाए रखने में मदद करे।”
वह कहते हैं, "खनन भी एक तरह का दोहन है। तेल निकालना भी दोहन है। एक बार जब हम इसे धरती से निकाल लेते हैं, तो बदले में कुछ देते नहीं हैं।”
वैकेरनैगेल ने बताया कि हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि क्या छोड़ना है, बल्कि यह सोचना चाहिए कि हम भविष्य के लिए कैसे तैयार हों और तब कौन सी चीजें काम की होंगी। अपनी अर्थव्यवस्थाओं को ऐसा बनाने के बजाय कि वे ज्यादा संसाधन इस्तेमाल ना करें, लोग बस टूथपेस्ट ट्यूब से आखिरी बूंद निचोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
उन्होंने कहा, "मैं अमेरिका में रहता हूं। मैंने यहां देखा कि पिछले साल के चुनावों में कई बातें संसाधनों के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से जुड़ी थीं। जैसे, लोगों को यह डर था कि बिजली या ऊर्जा की कमी हो जाएगी।” हालांकि, सरकार ने संसाधनों के ज्यादा इस्तेमाल की समस्या पर ध्यान नहीं दिया। बल्कि, उसने ज्यादा तेल-गैस निकालने के लिए जमीन में और छेद करने' पर जोर दिया है।
ओवरशूट डे को आगे कैसे बढ़ाया जाए?
ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क ने अर्थ ओवरशूट डे की तारीख को आगे बढ़ाने के लिए पांच प्रमुख क्षेत्रों में कई समाधानों की रूपरेखा तैयार की है।
ऊर्जा क्षेत्र अब तक का सबसे बड़ा कारक है। अगर कार्बन उत्सर्जन पर ऐसा टैक्स लगाया जाए जो पर्यावरण पर उसके असली नुकसान को दिखाए, तो हम अर्थ ओवरशूट डे की तारीख को करीब 63 दिन आगे बढ़ा सकते हैं।
अगर हमारे शहर स्मार्ट बन जाएं, जहां अच्छी परिवहन व्यवस्था हो, ऊर्जा का बेहतर प्रबंधन हो और घरों में सेंसर से बिजली कंट्रोल हो, तो इससे हम ओवरशूट डे को 29 दिन और आगे बढ़ा सकते हैं।
कोयले और गैस से चलने वाले बिजली संयंत्रों की जगह सौर और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल करने और कम कार्बन वाले स्रोतों से 75 फीसदी बिजली का उत्पादन करने पर ओवरशूट की तारीख को और 26 दिन आगे बढ़ाया जा सकता है।
भोजन की बर्बादी को आधा करने से ओवरशूट डे और 13 दिन आगे बढ़ सकता है। साथ ही, वैश्विक स्तर पर मांस की खपत को 50 फीसदी तक पौधों पर आधारित विकल्पों से बदल दिया जाए, तो कार्बन उत्सर्जन में कमी और भूमि के इस्तेमाल में बदलाव के कारण ही ओवरशूट डे सात दिन और आगे बढ़ सकता है। हफ्ते में सिर्फ एक दिन मांस नहीं खाने से यह तारीख लगभग दो दिन और आगे बढ़ जाएगी।
मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखने के पीछे का स्वार्थ
श्रीवास्तव ने कहा, "कई लोग चाहते हैं कि मौजूदा व्यवस्था बनी रहे। अभी सब कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे, खास तौर पर वे लोग जो जीवाश्म ईंधन के कारोबार से जुड़े हैं।”
व्यक्तिगत स्तर पर किए जाने वाले छोटे बदलावों का उतना असर नहीं दिखता है। जैसे, कम मांस खाना, कार के बजाय साइकिल चलाना या घर के पास ही छुट्टियां मनाना। हालांकि, मतदाता चाहें, तो व्यवस्थागत बदलाव के लिए दबाव डाल सकते हैं। वे बड़े-बड़े बदलाव करा सकते हैं।
श्रीवास्तव ने कहा, "हम अकेले सब कुछ नहीं बदल सकते, पर हम इस बारे में अपनी राय दे सकते हैं और उन लोगों से बात कर सकते हैं जो फैसले लेते हैं। हम शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर सकते हैं और ऐसे नेताओं का साथ दे सकते हैं जो पर्यावरण का ध्यान रखते हों। ऐसे बदलाव आम लोगों की ताकत से ही आएंगे।”
इस पूरे मामले पर वैकेरनैगेल ने कहा, "इस सदी में इंसानों के लिए संसाधनों का बहुत ज्यादा इस्तेमाल यानी ओवरशूट दूसरा सबसे बड़ा खतरा है। इससे भी सबसे बड़ा खतरा, इस समस्या से निपटने के लिए कोई कदम ना उठाना है। अगर हम चुप बैठे रहे, तो हमें और भी ज्यादा गंभीर नुकसान झेलने होंगे।”
edited by : Nrapendra Gupta