रिपोर्ट ओंकार सिंह जनौटी
भारतीय राजनीति में केजरीवाल, ओवैसी और जगनमोहन रेड्डी चमक गए। लेकिन कांग्रेस की गत नहीं बदली। गांधी परिवार का दरबार बन चुकी सबसे पुरानी पार्टी नए भारत में मजाक बनकर रह गई है।
सफल राजनीतिक पार्टियां अपने प्रतिभाशाली नेताओं को मौके देती हैं। वक्त की नजाकत भांप उन्हें आगे करती हैं। बीजेपी को ही लीजिए। अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी इसके उदाहरण हैं। राम मंदिर आंदोलन के जरिए पार्टी को उत्तर भारत में स्थापित करने वाले लालकृष्ण आडवाणी सत्ता मिलने पर भी प्रधानमंत्री नहीं बन सके। पार्टी ने आगे बढ़ने के लिए वाजपेयी पर भरोसा जताया। 2004 और उसके बाद 2 बार आडवाणी को पीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश कर बीजेपी जब चुनाव हारी तो बदलावों ने नरेंद्र मोदी का रास्ता खोल दिया।
वहीं दिल्ली में दरबारियों से घिरी कांग्रेस अपने ही मजबूत क्षेत्रीय नेताओं को निपटाने में व्यस्त रही। याद कीजिए वह दौर जब, पश्चिम बंगाल के दिग्गज कांग्रेस नेता सिद्धार्थ शंकर रे कहते रहे कि 'वह मरने से पहले पश्चिम बंगाल में वामपंथी राज को ढहते हुए देखना चाहते हैं।' ममता बनर्जी इस लड़ाई के लिए तैयार भी थीं। लेकिन ममता का कद बड़ा न हो जाए, इसीलिए दिल्ली से लगाम लगा दी गई। झल्लाहट में ममता बनर्जी ने कांग्रेस छोड़ अपनी पार्टी बनाई और आखिरकार पश्चिम बंगाल की सत्ता से वामदलों को बेदखल कर दिया।
कितने नेता खोएगी कांग्रेस
कांग्रेस को इंदिरा गांधी के दौर से ही परिवार भक्त नेता पसंद हैं। ऐसे नेता जो गांधी परिवार की हां में हां मिलाते रहे। हालांकि इंदिरा गांधी खुद भी एक बड़ी नेता थीं। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, 1971 का युद्ध और जनता के बीच जाकर राजनीतिक कौशल का इस्तेमाल उन्होंने बखूबी किया। इसके साथ ही उस वक्त कांग्रेस का व्यापक जनाधार था। सामने कोई चुनौती नहीं थी।
लेकिन पार्टी के भीतर अलग राय इंदिरा गांधी को भी पसंद नहीं थी। उन्हीं के इशारों पर राज्यों में कांग्रेस के संगठन और बड़े स्थानीय नेताओं को महत्वहीन बना दिया गया। जमीन पर संगठन के लिए मेहनत करने की जगह दिल्ली जाकर जी हुजूरी का चलन शुरू हुआ। जो लोग कांग्रेस के नए गुण नहीं सीख सके, फिर भले ही वह जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवीलाल, ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव, शरद पवार, बंसीलाल, चंद्रबाबू नायडू, जगनमोहन रेड्डी और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही क्यों न हों, उन्हें आज या कल कांग्रेस से नाता तोड़ना पड़ा।
क्या कहती है ताजा राजनीतिक तस्वीर
2017 में पंजाब और 2018 में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव जीतने वाली कांग्रेस मई 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी लुटिया डुबो बैठी। गुजरात विधानसभा के चुनावों में भी काफी बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद पार्टी को लोकसभा चुनाव में अंडा मिला। मध्यप्रदेश में उसे सिर्फ 2 सीटें मिली, राजस्थान शून्य।
पंजाब अकेला राज्य है जहां कांग्रेस ने जबरदस्त प्रदर्शन किया। पंजाब के प्रदर्शन का श्रेय कांग्रेस के सिस्टम के शायद आखिरी मजबूत क्षत्रप कैप्टन अमरिंदर सिंह को जाता है। राहुल गांधी से मतभेदों के बावजूद वह पंजाब में कांग्रेस की मजबूरी बने हुए हैं। हर बार करारी हार के बाद कांग्रेस में कोई बड़ा बदलाव नहीं होता। चुनाव नतीजे आने के बाद ऐसा लगता है जैसे राहुल गांधी छुट्टियां मनाने चले गए हों। जमीन पर पार्टी का न तो झंडा दिखता है और ना ही डंडा।
हाथ मिलाओगे तो चित हो जाओगे
2014 के बाद तो कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के लिए बोझ साबित हो रही है। अब प्रादेशिक पार्टियां भी हाथ से हाथ मिलाने पर कतरा रही हैं। बिहार को ही लीजिए, जहां कहा जा रहा है कि कांग्रेस को 70 सीटें देना, महागठबंधन की सबसे बड़ी भूल थी।
बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी नेता और गृह मंत्री अमित शाह बंगाल का भी चक्कर लगा आए। संदेश साफ था कि अब बंगाल की बारी है। वहीं बिहार की हार के बाद कांग्रेस छुट्टी पर चली गई है। केंद्र में फिलहाल बीजेपी की सरकार को घेरने वाला कोई राष्ट्रीय दल नहीं है। राज्यों में कांग्रेस नहीं बल्कि क्षेत्रीय दल बीजेपी को चुनौती देते हैं। वोटर भी मानने लगे हैं कि कांग्रेस बेदम हो चुकी है।
क्या राहुल गांधी हैं कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत?
जिस राष्ट्रीय पार्टी का सबसे अहम उम्मीदवार अपनी पारिवारिक अमेठी की सीट न बचा सके, अंदाजा लगाइए कि उसकी क्या हालत है। 2019 के चुनावों में खुद सोनिया गांधी की रायबरेली सीट मुलायम सिंह यादव के रहमों करम से बची। वहां सपा ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा।
असल में राहुल गांधी कांग्रेस की ऐसी कमजोरी बन चुके हैं, जो नरेंद्र मोदी के लिए ब्रह्मास्त्र का काम करती है। परिवार और राजनीतिक नासमझी का ठीकरा बीजेपी हमेशा राहुल के सिर फोड़ती है। हालांकि बीजेपी में खुद लाडले राजपुत्रों की एक फौज खड़ी हो गई है। लेकिन मोदी के आवरण में यह ढक जाती है।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा कई बार कह चुके हैं कि राहुल गांधी के कांग्रेस छोड़े बिना हाथ नहीं चमकेगा। लेकिन राहुल भी कभी पीछे हटते हैं और फिर बेनतीजा माहौल में आगे आ जाते हैं। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी कमजोर नेता हैं। वक्त के साथ उनमें पैनापन आया है। नोटबंदी, जीएसटी और अर्थव्यवस्था पर उनका नजरिया कई अर्थशास्त्रियों को प्रभावित करता है। लेकिन कांग्रेस जैसे जर्जर जहाज को चलाने के लिए जमीन पर संगठन, कड़ी मेहनत और राजनीतिक चतुराई की जरूरत है।
असरहीन आलोचकों पर पिल पड़ो
कांग्रेस के कुछ नेता हाल के समय में पार्टी को झकझोरने की कोशिश कर रहे हैं। कपिल सिब्बल, जयराम रमेश, शशि थरूर और मनीष तिवारी जैसे नेता अलार्म बजा रहे हैं। लेकिन परिवार के वफादार नेता ऐसी आलोचनाओं पर सोच विचार करने के बजाए इस मौके को अपनी भक्ति दर्शाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। अपना काम छोड़ वे आलोचकों पर पिल पड़ते हैं। दिक्कत आलोचना कर रहे नेताओं के साथ भी है। वे आलसी और प्रेस कॉन्फ्रेंस वाले नेता हैं। जमीन पर उतरने, संगठन के लिए पसीना बहाने और आम लोगों से जुड़ने की कला ये भूल चुके हैं।
बदलावों की पुरजोर वकालत कर रहे ये नेता भी शायद अपने नए राजनीतिक भविष्य का रास्ता तैयार कर रहे हैं। ज्योतिरादित्य ऐसा कर चुके हैं। सचिन पायलट आखिरी वक्त में चूक गए। पुराने नेता अपना रहा सहा भविष्य बचाने के लिए परेशान हैं तो युवा नेताओं को अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता हो रही है। राजनीति का मकसद और लक्ष्य सत्ता है। कांग्रेस इस समय इससे बहुत दूर लग रही है और दूर होती जा रही है।