खतरे का संकेत है केरल में बाढ़ की तबाही

Webdunia
बुधवार, 14 अगस्त 2019 (12:57 IST)
केरल में बीते साल आई भयावह बाढ़ कोई अपवाद नहीं था। यह वेस्टर्न यानी पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी तंत्र की तबाही और निकट भविष्य में गहरे संकट का संकेत था। पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी तंत्र को लगातार गंभीर नुकसान हो रहा है।
 
एक नई पुस्तक इनफ्लडएंडफ्यूरीःईकोलॉजिकलडिवास्टेशनइनवेस्टर्नघाट्स में यह दावा किया गया है। लेखक विजू बी ने अपनी इस पुस्तक में विभिन्न आंकड़ों के हवाले इस इलाके में पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भयावह तस्वीर पेश की है। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगर पश्चिमी घाट की जैव विविधता के नष्ट होने की गति पर अंकुश नहीं लगाया गया तो भारत में मानसून के इस प्रवेशद्वार में आने वाले समय में बाढ़ की विनाशलीला और भायवह होने का अंदेशा है। राज्य के पर्वतीय इलाकों में स्थित ग्रेनाइट की खदानों ने भूस्खलन की घटनाएं बढ़ा दी हैं।
 
पारिस्थितिकी तंत्र की तबाही
एक ताजा पुस्तक में दावा किया गया है कि वर्ष 2018 में राज्य में आई भयावह बाढ़ और उसकी विनाशलीला कोई अपवाद घटना नहीं थी। यह छह राज्यों केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र व गुजरात तक 16 सौ किलोमीटर में फैले इलाके के लिए एक खतरे की घंटी थी। इस इलाके का पारिस्थितिकी तंत्र हिमालय से भी पुराना है। विजू बी की लिखी और पेंग्विन की ओर से प्रकाशित इस पुस्तक में बड़े पैमाने पर होने वाली खुदाई, जंगलों की कटाई और जल संसाधनों के कुप्रबंधन की वजह से पश्चिमी घाट पर लगातार बढ़ते खतरे का जिक्र करते हुए कहा गया है कि इससे इलाके की आबादी के वजूद पर भी गहरा संकट मंडरा रहा है।
 
बीते छह दशकों के दौरान इंसानी गतिविधियों व तेजी से होने वाले शहरीकरण की वजह से पश्चिमी घाट में वन क्षेत्र तेजी से घटा है। लेखक का दावा है कि इस दौरान लगभग 35 फीसदी यानी एक तिहाई से ज्यादा जंगल घटे हैं। पुस्तक में कहा गया है कि पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील इस इलाके में तत्काल खदानों पर पाबंदी लगाना और नए निर्माण पर अंकुश लगाना जरूरी है। विजू कहते हैं, "बीते साल बाढ़ की तबाही से गरीब और धनी दोनों तबके के लोग समान रूप से प्रभावित हुए थे।”
 
पुस्तक में कहा गया है कि इलाके के पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए सदियों से वहां रहने वाले आदिवासियों की सलाह पर ध्यान देना जरूरी है। प्राकृतिक व कृत्रिम वजहों से पर्यावरण पर होने वाले असर का सबसे ज्यादा नुकसान उनको ही उठाना पड़ता है। उन लोगों को इलाके की पारिस्थितिकी की बेहतर समझ है जो सदियों से वहां रहने की वजह से विकसित हुई है। इनका जीवन-यापन पारिस्थिकी तंत्र पर ही निर्भर रहा है।
 
ताजा बाढ़
विशेषज्ञों का कहना है कि पश्चिमी घाट के पारिस्थितिकी तंत्र को होने वाले नुकसान की वजह से राज्य में बाढ़ की विनाशलीला लगातार तेज हो रही है। मिसाल के तौर पर इस महीने की आठ तारीख से अब तक राज्य में बाढ़ से मरने वालों की तादाद 80 पार हो गई है जबकि आयतन में इससे बड़े पड़ोसी राज्य कर्नाटक में मौतों की तादाद इससे आधी है। विजू बी। कहते हैं, "इलाके की जैव विविधता को नष्ट होने से नहीं रोका गया तो तस्वीर और भयावह हो सकती है।”
 
केरल के मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन ने भी इस सप्ताह माना है कि भूस्खलन की घटनाओं में होने वाली मौतों की वजह से ही मृतकों की कुल तादाद तेजी से बढ़ी है। राज्य में ऐसी 83 घटनाओं में 28 लोगों की मौत हो चुकी है।
 
केरल फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक टी.वी. संजीव की ओर से राज्य के ग्रेनाइट खदानों और उनसे होने वाले नुकसान के विस्तृत अध्ययन से पता चला है कि भूस्खलन की तमाम घटनाएं उन इलाकों में ही हुई हैं जहां आस-पास ग्रेनाइट की खदानें हैं। यह तमाम खदानें हालांकि कानूनी तौर पर काम कर रही हैं। लेकिन भूस्खलन के खतरों के बावजूद उनको खुदाई जारी रखने की अनुमति दी गई है।
 
वेस्टर्न घाट ईकोलॉजिकल एक्सपर्ट पैनल या माधव गाडगिल समिति ने वर्ष 2011 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भूस्खलन वाले 11 में से 10 इलाके, जहां 91 खदानें हैं, पारिस्थितिकी तंत्र के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। लिहाजा वहां फौरन खुदाई बंद कर देनी चाहिए। लेकिन गाडगिल समिति पर विकास-विरोधी होने का आरोप लगने के बाद सरकार ने कस्तूरीरंगन समिति का गठन किया जिसने ऐसे इलाकों की तादाद कुछ कम कर दी। लेकिन उसने भी उन 11 में से पांच इलाकों में खुदाई पूरी तरह बंद करने की सिफारिश की थी। वह सिफारिश अब तक ठंढे बस्ते में ही है।
 
केरल में कुल 5,924 ग्रेनाइट खदानें हैं जिनमें से 56 फीसदी पश्चिमी घाट के संवेदनशील इलाके में हैं। इसी वजह से वहां भूस्खलन की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं।
 
विजू बी कहते हैं, "मौजूदा नियमों के तहत खदानों को रिहायशी इलाके से महज पचास मीटर दूर रहने को कहा जाता है। भले वह इलाका समतल हो या फिर पहाड़ी।” बीते साल केरल के मल्लापुरम जिले के कवलप्पारा इलाके को भूस्खलन की वजह से बांध टूटने के कारण सबसे ज्यादा तबाही झेलनी पड़ी थी। वहां घाटी में पांच किमी के दायरे में 27 खदानें हैं।
 
इसी तरह वायनाड के मेप्पाडी पर्वतीय इलाके में स्थित एक चाय बागान की 100 एकड़ जमीन भूस्खलन की भेंट चढ़ गई थी। बाद में जांच से पता चला कि पहाड़ी के दूसरी ओर एक बड़ी खदान में काम चल रहा था। वैज्ञानिक संजीव कहते हैं, "खुदाई के दौरान होने वाले विस्फोटों से पहाड़ियों में बड़े पैमाने पर कंपन होता है। इससे इलाके के जंगल को काफी नुकसान पहुंच रहा है।”
 
लेखक विजू कहते हैं, "केरल फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के ताजा अध्ययन से पता चला है कि अकेले वायनाड में 1086 वर्गकिलोमीटर जंगल खत्म हो चुका है। यह इलाका दिल्ली के क्षेत्रफल से भी बड़ा है।” वह कहते हैं कि इलाके में बड़े पैमाने पर होने वाले निर्माण से पहाड़ियों की ढलान को नुकसान पहुंचा है और नदियों का मार्ग बदल गया है। कई जगह सहायक नदियों की जमीन पर मकान बन गए हैं। नतीजतन इलाके में औसत तापमान दो से तीन डिग्री तक बढ़ गया है। वह कहते हैं कि फसलों और उनकी खेती में अवैज्ञानिक तरीके से होने वाले बदलाव, पहाड़ियों की ढलान की कटाई, बेतहाशा निर्माण और खदानें ही भूस्खलन की घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं।
 
वैज्ञानिकों का कहना है कि बीते साल की विनाशलीला के बाद भारी बारिश और बाढ़ पर तो काफी बहस हुई। लेकिन तीसरी प्रमुख वजह यानी पश्चिमी घाट की पारिस्थितकी तंत्र को होने वाले नुकासन पर कोई चर्चा तक नहीं हुई।
 
विशेषज्ञों का कहना है कि केरल और आस-पास के इलाकों में प्रकृति की विनाशलीला को कम करने के लिए पश्चिमी घाट के पारिस्थितकी तंत्र को बचाना जरूरी है। इसके लिए तत्काल ठोस कदम उठाए जाने चाहिए।ऐसा नहीं होने की स्थिति में इलाके के साथ-साथ वहां रहने वाले इंसानों को बचाना भी असंभव हो जाएगा।
 
रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता

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