नौ अगस्त को कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के सेमिनार हॉल में एक ट्रेनी डॉक्टर की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। ऐसे में सवाल उठता है कि महिला कर्मचारी कार्यस्थल पर कितनी सुरक्षित हैं?
"मेरी ज्यादातर नाइट ड्यूटी होती है। एक रात जब मैंने गार्ड से पूछा कि फीमेल डॉक्टरों का वॉशरूम कहां है तो उसने आश्चर्य जताते हुए कहा कि क्या महिला डॉक्टरों के लिए अलग वॉशरूम होता है। नाइट ड्यूटी के दौरान हम झपकी तक लेने से बचते हैं। एक तो अस्पताल के अंदर हमारे आराम के लिए कोई तय जगह नहीं है। दूसरा, हमेशा एक डर रहता है कि पता नहीं कौन कब आपके बगल में आकर लेट जाए। यह अस्पताल मेरे काम की जगह है। इस घटना से पहले कभी अस्पताल के अंदर अपनी सुरक्षा का ख्याल नहीं आया। हमें इस माहौल में काम करने की आदत है। लेकिन अब डर लगने लगा है क्योंकि यह घटना मेरे वर्कप्लेस पर हुई है।” नाम ना छापने की शर्त पर आरजी कर मेडिकल कॉलेज की एक इंटर्न ने डीडब्ल्यू हिन्दी से बातचीत में यह बताया।
नौ अगस्त को कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में एक पीजी ट्रेनी महिला डॉक्टर की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। यह घटना अस्पताल परिसर के सेमिनार हॉल में हुई थी। घटना के बाद पूरे देश में अलग अलग जगहों पर डॉक्टरों ने प्रदर्शन किए। कोलकाता और नई दिल्ली में महिलाओं ने इस घटना के खिलाफ आधी रात को 'रिक्लेम द नाइट' की तर्ज पर जुलूस भी निकाला। कोलकाता में महिलाओं के इस प्रदर्शन के बीच आरजी कर अस्पताल परिसर में बाहरी लोगों की भीड़ भी घुस आई। भीड़ का इस तरह प्रदर्शन के बीच आना, एक बार फिर सुरक्षा पर अहम सवाल उठाता है।
अब तक इस मामले में क्या हुआ
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मृतका डॉक्टर की उस दिन 36 घंटे की ड्यूटी थी। सेमिनार हॉल में वह बस थोड़ी देर के लिए सुस्ताने गई थीं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पहले इस घटना को प्रशासन ने आत्महत्या के रूप में देखा। हालांकि, ऑटोप्सी में बलात्कार के बाद हत्या की पुष्टि हुई। अब मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गई है।
जिस जगह यह घटना हुई वह सिर्फ अस्पताल नहीं बल्कि उनका कार्यस्थल भी था। उनके साथ अपराध तब हुआ जब वह अस्पताल को अपनी सेवाएं दे रही थीं। इस केस में इन दो बिंदुओं को रेखांकित किया जाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यहां सबसे बड़ी जवाबदेही अस्पताल प्रशासन की बनती है जो अपने कर्मचारियों को सुरक्षा देने में असफल रहा। जिस मेडिकल इंटर्न से डीडब्ल्यू ने बात की उन्होंने भी इस बात पर कई बार जोर डाला कि नाइट ड्यूटी के दौरान उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती एक सुरक्षित कोना ढूंढना है, खासकर ड्यूटी पर तैनात महिलाओं के लिए।
यह अपराध कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा से कैसे संबंधित है
आरजी कर मेडिकल कॉलेज की घटना कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा से कैसे संबंधित है इसे समझने के लिए 1992 में भंवरी देवी के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की घटना का जिक्र जरूरी है। तब वह राजस्थान के सरकारी योजना के तहत बाल विवाह और स्वच्छता के मुद्दों पर गांवों में जागरूकता फैलाने का काम किया करती थीं। उनका बलात्कार तब हुआ जब उन्होंने बाल विवाह की एक घटना का विरोध किया।
मामला कोर्ट गया लेकिन राजस्थान हाई कोर्ट के फैसले से नाखुश महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की। 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के बाद कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े दिशा निर्देश जारी किए। जिन्हें विशाखा गाइडलाइंस के तौर पर जाना गया। 2013 में इन गाइडलाइंस को कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम की शक्ल दी गई।
पेशे से वकील और रिसर्चर आदित्य कृष्णा ने डीडब्ल्यू को बताया, "कोलकाता की घटना पूरी तरह कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ा है। इसे हम सिर्फ एक महिला डॉक्टर के साथ हुए अपराध तक सीमित नहीं कर सकते। हर कार्यस्थल की तरह यहां भी यह अधिनियम लागू होता है। लेकिन चूंकि यह मामला आपराधिक है और बेहद गंभीर तो इसका ट्रीटमेंट भी अलग तरीके से होना चाहिए।"
नेशनल मेडिकल कमीशन ने बीते साल उसके तहत आने वाले सभी मेडिकल संस्थानों और कॉलेजों को इस अधिनियम को लागू करने का निर्देश भी जारी किया था। यह कदम सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद लिया गया था जिसमें कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों से सभी मंत्रालयों, सरकारी विभागों, संस्थानों आदि में इस अधिनियम के तहत आंतरिक समितियां गठन हो यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया।
जहां डॉक्टर ही सुरक्षित नहीं वहां मरीज कितने सुरक्षित होंगे
दिल्ली के आरएमएल अस्पताल के न्यूरोलॉजी विभाग में सीनियर रेसिडेंट डॉ। कुमारी अर्चना का कहना है, "अस्पताल सिर्फ कार्यस्थल नहीं बल्कि हम जैसे रेसिडेंट डॉक्टरों के लिए दूसरा घर हो जाता है।" डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "कोलकाता में जो हुआ क्या वह सिर्फ डॉक्टरों की सुरक्षा का मसला है। क्या कोई मरीज ऐसे अस्पताल में आना चाहेगा जहां एक डॉक्टर ही सुरक्षित ना हो। यह अपराध सिर्फ एक डॉक्टर के साथ नहीं हुआ है बल्कि वह एक महिला भी थी।”
इस घटना के बाद रेसिडेंट डॉक्टरों के काम के लंबे घंटे और भारत में महिला सुरक्षा के मुद्दे एक बार फिर चर्चा में हैं। अर्चना कहती हैं कि हमारे अस्पतालों में सुरक्षा उतनी पुख्ता नहीं होती। यह बड़े शहरों का हाल है। सोचिए उन प्राथमिक सुरक्षा केंद्रों के बारे में जो दूर दराज के गावों में होते हैं। वहां काम करने वाली महिला डॉक्टरों, नर्सों, आशा कार्यकर्ताओं और आने वाले मरीजों के बारे में शायद हम सोचते भी नहीं हैं। महिला डॉक्टरों ने यह सवाल भी उठाया है कि क्या काम के दौरान सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उनकी ही है।
असम के सिलचर मेडिकल कॉलेज ने इस घटना के बाद जो निर्देश जारी किए हैं, वे इसी ओर इशारा करते हैं। अस्पताल के निर्देश में लिखा गया था कि महिला स्वास्थ्यकर्मी सुनसान और ऐसी जगहों पर जाने से बचें जहां रोशनी ना हो। हालांकि, सोशल मीडिया पर हुए विरोध के बाद इसे वापस ले लिया गया।
लैंगिक अपराधों के मामले में यह सोच हमेशा देखने को मिलती है जहां सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उन पर ही थोप दी जाती है जो इन अपराधों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। आदित्य कहते हैं कि अगर एक कार्यस्थल पर सुरक्षा सुनिश्चचित करने की जिम्मेदारी नियोक्ता की होती है। अस्पताल काम करने की जगह है और वहां काम कर रहे लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी वहां के प्रशासन की है।
अस्पताल सिर्फ अस्पताल नहीं बल्कि कार्यस्थल हैं
अस्पताल को कार्यस्थल के नजरिये से देखना और वहां महिला कर्मचारियों की सुरक्षा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत में इस क्षेत्र में केयरगिवर के रूप में सबसे अधिक महिलाएं ही काम करती हैं। गैरसरकारी संगठन दसरा की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 29 फीसदी डॉक्टर महिलाएं हैं। वहीं, नर्सिंग, मिडवाइफ जैसे पेशों में 80 फीसदी महिलाएं हैं। आशा कर्मचारियों में तो 100 फीसदी महिलाएं ही शामिल हैं। इन सभी कर्मचारियों की संख्या देखते हुए अस्पताल परिसरों में बतौर महिला कर्मचारी इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी एक महत्वपूर्ण पहलू है।
नाम ना छापने की शर्त पर आरजी कर मेडिकल कॉलेज के एक रेजिडेंट डॉक्टर ने भी डीडब्ल्यू से कहा, "हमारे अस्पताल में सुरक्षा की बेहद कमी है। हमने इस मुद्दे को तब तक गंभीरता से नहीं लिया जब तक एक महिला डॉक्टर की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। बिना सुरक्षा इंतजामों के डॉक्टर 36 घंटों तक काम करते हैं। हमसे उम्मीद की जाती है कि हम ऐसी स्थिति में अपना काम करते रहे।”
"तीस सालों बाद लगता है आज भी हम वहीं हैं”
1973 में मुंबई के किंग एडवर्ड्स मेमोरियल अस्पताल में नर्स अरूणा शानबाग का उसकी अस्पताल के एक वॉर्ड बॉय ने बलात्कार किया था। यह घटना भी अस्पताल के अंदर हुई थी। 42 साल तक कोमा में रहने के बाद अरूणा की मौत हो गई।
इस घटना को याद करते हुए मुंबई में पिछले तीस सालों से काम कर रही डॉ. सुचित्रा दलवी ने डीडब्ल्यू को बताया, "30 सालों में क्या बदला। मैंने नर्स अरूणा का केस भी देखा और अब कोलकाता। हम कोलकाता की उस डॉक्टर को सिर्फ एक डॉक्टर की तरह देख रहे हैं। जबकि वह युवा महिला उस वक्त अस्पताल में एक केयर गिवर की भूमिका में थी। वह काम कर रही थी ताकि कोई और बेहतर हो सके। बतौर रेसिडेंट डॉक्टर मैंने भी बेहद कम सुविधाओं और सुरक्षा के बिना 36 घंटों तक काम किया है। आज इतने सालों बाद भी वही हाल है। अरुणा को इतने सालों तक जिंदा रखा गया वह एक सामूहिक दुख के प्रतीक जैसा था। आज इस घटना के बाद लगता है कि हम वापस वहीं आ गए हैं।"
डॉक्टरों के प्रदर्शन के बाद आरजी कर मेडिकल कॉलेज के प्रिसिंपल संदीप घोष को इस्तीफा देना पड़ा। डॉ। दलवी का मानना है कि सिर्फ एक केस में कार्रवाई होने से यह व्यवस्था नहीं बदलेगी। सिर्फ इस्तीफा देकर निकल जाना तो एक बेहद कायराना हरकत है।
उन्होंने कहा कि जवाबदेही तय करनी जरूरी है। क्या अस्पतालों में ऐसी नीतियां हैं महिला कर्मचारियों की सुरक्षा पर तुरंत कार्रवाई करें। क्या अस्पताल इस बात का ध्यान रखते हैं कि वहां अंधेरे कमरे ना हों, पर्याप्त संख्या में गार्ड मौजूद हों, बुनियादी ढांचा मजबूत हो, महिलाओं की शिकायतों को गंभीरता से लिया जाए। बिना इन छोटी छोटी बातों का ध्यान रखे, अस्पताल महिलाओं के लिए एक सुरक्षित कार्यस्थल नहीं न सकते।