क्या भ्रष्टाचार के बोझ से टूट रहे हैं बिहार के पुल

DW
गुरुवार, 29 दिसंबर 2022 (07:48 IST)
मनीष कुमार
बिहार में एक और नया पुल टूट गया। बिहार में पुलों का टूटना कोई नई बात नहीं, अकसर ऐसी खबरें आती हैं। कभी निर्माण के दौरान तो कभी उद्घाटन के तुरंत बाद पुल टूट जाते हैं। आखिर इन पुलों के इतनी जल्दी टूटने के पीछे क्या वजह है।
 
कुछ दिन पहले बेगूसराय जिले में गंडक नदी पर 13.5 करोड़ की लागत से बनाया गया जो पुल औपचारिक उद्घाटन से पहले ही बीच से ध्वस्त हो गया, उसकी जांच में पता चला है कि खराब निर्माण के कारण पुल अपने ही वजन का बोझ नहीं सह सका और टूट गया।  इससे पहले इसी साल अप्रैल में भागलपुर जिले में गंगा नदी पर 1711 करोड़ की लागत से बनाए जा रहे पुल का एक हिस्सा तेज आंधी में गिर गया।

इसी तरह जून में सहरसा जिले में ढलाई के एक दिन बाद ही पुल ध्वस्त हो गया। इस हादसे में तीन मजदूर घायल हो गए। अगस्त माह में कटिहार जिले में एक पुल उसी समय भरभरा कर ढह गया, जब क्रंकीट से ढलाई का काम चल रहा था। इस घटना में पांच मजदूर भी जख्मी हो गए थे। नवंबर में नालंदा जिले में एक निर्माणाधीन पुल का एक हिस्सा गिरने से एक मजदूर की मौत हो गई और कई मजदूर घायल हो गये। 
 
बिहार में क्यों टूटते हैं पुल
बार-बार पुलों का ढहना या टूटना उन्हें बनाने में इस्तेमाल होने वाले सामान और काम की गुणवत्ता को संदेह के घेरे में लाती है। केंद्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने भागलपुर में पुल का हिस्सा ढहने के बाद इसके निर्माण में घटिया सामग्री के इस्तेमाल का अंदेशा जताया था। इस संबंध में निर्माण कंपनी द्वारा दी गई दलील कि तेज हवा के कारण हादसा हुआ पर गडकरी ने आश्चर्य जताते हुए कहा था कि भला तेज हवा के कारण पुल का हिस्सा टूटने पर कैसे कोई विश्वास करेगा। अन्य कारण भी रहे होंगे, किंतु निर्माण सामग्री घटिया रही होगी, इसलिए पुल ढह गया।
 
बेगूसराय जिले में बूढ़ी गंडक नदी पर बना जो पुल टूटा है, उसका निर्माण 23 फरवरी, 2016 को शुरू किया गया था और यह 2017 में वह बनकर तैयार हो गया। हालांकि, इसके एक ओर के संपर्क पथ का काम अभी तक पूरा नहीं होने की वजह से इसका औपचारिक उद्घाटन नहीं हो सका है। इसके टूटने से करीब 40 हजार से अधिक आबादी प्रभावित हो गई है।
 
गिरने से तीन दिन पहले इसके पिलर नंबर दो तथा तीन के बीच दरार देखी गई थी। इसकी जानकारी मिलने पर जिला प्रशासन ने पुल के दोनों तरफ पक्की दीवार खड़ी करके एक चौकीदार की तैनाती कर दी थी, ताकि इससे किसी तरह की आवाजाही ना हो सके। बावजूद इसके पुल तीन दिन बाद बीच से ध्वस्त हो गया। निर्माणाधीन होने की वजह से इसके कारणों की जांच होनी ही थी, सो ग्रामीण कार्य विभाग के अभियंता प्रमुख अशोक मिश्रा के नेतृत्व में जांच टीम पहुंची। टीम ने जांच के बाद अपनी रिपोर्ट में साफ कहा है, ‘‘खराब गुणवत्ता के कारण सेल्फ लोड से पुल क्षतिग्रस्त हो गया।''
 
जाहिर है कि यह सेल्फ लोड नहीं, बल्कि ‘भ्रष्टाचार का लोड' है। इसके लिए निर्माण कंपनी मेसर्स भगवती कंस्ट्रक्शन के साथ-साथ चार कार्यपालक अभियंता, तीन सहायक अभियंता तथा तीन कनीय अभियंताओं को दोषी ठहराया गया है। इसके अलावा निर्माण कंपनी को अपने खर्च पर पुल के सुपर स्ट्रक्चर को फिर से बनाने और नदी से मलबा हटाने को कहा गया है।
 
निर्धारित अवधि भी पूरा नहीं कर पाते
ये घटनाएं तो महज बानगी भर हैं। 2020 में ऐसी ही एक घटना के बाद काफी हाय-तौबा मची थी, जब गोपालगंज जिले में गंडक नदी पर बनाया गया पुल टूट गया था। चुनावी वर्ष होने के कारण इस पर खूब राजनीति हुई थी।
 
सवाल यह है कि एक तरफ अंग्रेजों के जमाने में बनाए गए पुल आज भी खड़े हैं, वहीं अत्याधुनिक तकनीक से बनाए जा रहे ये पुल अपनी निर्धारित अवधि भी क्यों नहीं पूरा कर पाते हैं। इसका जवाब बेगूसराय में पुल टूटने की जांच करने गई कमेटी की रिपोर्ट से मिल जाता है। जिसमें साफ कहा गया कि खराब गुणवत्ता के कारण पुल अपने ही भार से टूट गया। जाहिर है, खराब डिजाइन, घटिया निर्माण सामग्री का इस्तेमाल और  दोषपूर्ण टेंडर प्रक्रिया जिसमें किसी की कोई जवाबदेही नहीं है, इसके कारण हैं। लेकिन, सबसे बड़ी वजह संगठित भ्रष्टाचार है। जिसे किसी हादसे के बाद उपरोक्त वजहों को गिना कर ढंका जाता है।
 
रिटायर्ड इंजीनियर अशोक कुमार कहते हैं, ‘‘अधिकतर मामलों में पुल टूटने का मुख्य कारण दोषपूर्ण निर्माण प्रक्रिया है। यदि पुल को अच्छे ढंग से डिजाइन किया गया है और मानक के अनुरूप उच्च क्वालिटी की सामग्रियों से बनाया गया है तो वे अपनी निर्धारित अवधि अवश्य पूरा करेंगे।''  इसके लिए ठेका देने की प्रक्रिया को चुस्त-दुरुस्त करने की जरूरत है, ताकि अच्छे ठेकेदार का चयन किया जा सके। इसके अलावा निर्माण कार्य योग्य इंजीनियरों की देखरेख में कुशल कारीगरों द्वारा किए जाएं, ताकि परियोजना की बेहतर निगरानी की जा सके। 
 
बिल भुगतान में नजराना
पुल निर्माण से जुड़े लोगों का कहना है कि निविदा (ठेका) प्राप्त करने से लेकर पूरी निर्माण प्रक्रिया में हमेशा धांधली होती है। विभागीय अफसर अपने फायदे के लिए इसे बढ़ावा देते हैं। नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर ग्रामीण कार्य विभाग के एक ठेकेदार कहते हैं, ‘‘यह सच है कि निर्माण से संबंधित किसी भी विभाग में संगठित भ्रष्टाचार है और इसे सब जानते हैं। यहां किसी के आने-जाने का कोई फर्क नहीं पड़ता है। सब कुछ सिस्टम से चलता है। बिल के भुगतान के लिए हरेक फाइल पर कितने का चढ़ावा देना होगा, यह तय है। तभी तो इंजीनियरों के घर से करोड़ों की नकदी बरामद होती है। उनके वेतन से तो यह संभव नहीं हो सकता।'' विभागीय अधिकारी चाहे वह इंजीनियर हो या दफ्तर का मुलाजिम सबको नजराना चाहिए।
 
विजिलेंस की कार्रवाई का कोई असर नहीं
निगरानी अन्वेषण ब्यूरो और दूसरी एजेंसियां अकसर कार्यपालक अभियंता, सहायक या कनीय अभियंता के ठिकानों पर छापेमारी करती हैं। पटना में भवन निर्माण विभाग में तब असिस्टेंट इंजीनियर रहे वृजा सिंह को 2017 में निगरानी अन्वेषण ब्यूरो ने एक ठेकेदार से बकाया बिल भुगतान के एवज में 25 हजार रुपये की रिश्वत लेते रंगे हाथ गिरफ्तार किया था। बीते नवंबर माह में अदालत ने वृजा सिंह को चार वर्ष की कैद की सजा सुनाई है।
 
सामाजिक कार्यकर्ता जाहिदा बताती हैं, ‘‘हाल में ही ग्रामीण कार्य विभाग के एक कार्यपालक अभियंता संजय कुमार राय के यहां जब निगरानी ब्यूरो ने छापेमारी की तब उनके ठिकानों से करोड़ों नकद बरामद किए गए। नोट गिनने की मशीन मंगानी पड़ी। ये वही पैसा है जो किसी ना किसी सरकारी निर्माण में मानक के विपरीत घटिया सामग्री का इस्तेमाल कर बचाई गई होगी और फिर उसका बंदरबांट किया होगा।''
 
वास्तव में पुल निर्माण की प्रक्रिया में भारी बदलाव करने की जरूरत है। आज हालत यह है कि बड़े ठेकेदार अपना काम छोटे ठेकेदारों को बांट देते हैं और ऐसे में काम पर नजर रख पाना मुश्किल हो जाता है। स्थानीय पत्रकार राजेश रौशन कहते हैं, ‘‘याद कीजिए, 90 के दशक में राज्य की सड़कों का क्या हाल था। जब से ठेके को लेकर पॉलिसी बदली गई, इसके मेंटेनेंस को लेकर जिम्मेदारी तय की गई, पूरा परिदृश्य बदल गया। जब तक ठेके में ठेके (पेटी कॉन्ट्रैक्ट) पर रोक नहीं लगेगी, तब तक शायद ही स्थिति में सुधार की गुंजाइश है। आखिर, हर किसी को मुनाफा कमाना है।'' 

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