अर्थव्यवस्था आईसीयू में है। खजाना खाली होने वाला है। पाकिस्तान की नई सरकार को एक बार फिर आईएमएफ से कर्ज लेने की जरूरत होगी। लेकिन अमेरिका नहीं चाहता कि पाकिस्तान को कर्ज मिले।
पाकिस्तान की नई सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी है। देश की अर्थव्यवस्था बदहाल है। बीते कई बरसों से इकोनॉमी का बुरा हाल है। 2018 की पहली छमाही में करंट अकाउंट डेफिसिट 43 फीसदी बढ़कर 18 अरब डॉलर हो गया। करंट अकाउंट डेफिसिट का मतलब है कि देश से कितनी विदेशी मुद्रा बाहर जा रही है।
पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार खाली होता जा रहा है। मई 2017 में विदेशी मुद्रा भंडार में 16.4 अरब डॉलर थे, अब 9 अरब से थोड़ा ज्यादा डॉलर ही बचे हैं। दिसंबर 2017 से अब तक पाकिस्तान का केंद्रीय बैंक तीन बार पाकिस्तानी रुपये का अवमूल्यन कर चुका है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में महंगा हो रहा कच्चा तेल भी समस्या बना हुआ है। पाकिस्तान अपनी जरूरतों का 80 फीसदी ईंधन आयात करता है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से आस
पाकिस्तान की नई सरकार को 20 करोड़ से ज्यादा देशवासियों के लिए रोजगार के नए मौके भी पैदा करने होंगे। विशेषज्ञ कहते हैं कि पाकिस्तान को हर साल 20 से 30 लाख नई नौकरियां पैदा करनी होंगी। लेकिन ऐसा तभी हो सकेगा जब सुरक्षा व्यवस्था चुस्त होगी। लालफीताशाही में कटौती होगी। साथ ही कारोबार के लिए अच्छा माहौल भी बनाना होगा। इमरान खान खुद जीत के बाद कह चुके हैं कि, "पाकिस्तान अपने इतिहास की सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती का सामना कर रहा है।"
पिछले 30 साल की आर्थिक समस्याओं ने कई बार इस्लामाबाद को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का दरवाजा खटखटाने को मजबूर किया है। आईएमएफ के डाटा के मुताबिक 1980 से अब तक पाकिस्तान 14 बार कर्ज ले चुका है। आखिरी बार 6.7 अरब डॉलर का कर्ज 2013 में एक त्रिवर्षीय प्रोग्राम के तहत लिया गया था।
पाकिस्तान के भीतर और बाहर रहने वाले कई विशेषज्ञों को लगता है कि इस्लामाबाद को एक बार फिर आईएमएफ का सहारा लेना पड़ेगा। इसी कर्ज के जरिए पाकिस्तान तात्कालिक रूप से बच सकता है। वित्त विशेषज्ञ मुज्जमिल असलम कहते हैं, "पाकिस्तान को तुरंत 10-15 अरब डॉलर की जरूरत है। आईएमएफ से कर्ज लेने के अलावा हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है।"
अमेरिका का विरोध
लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पेओ हाल ही में कह चुके हैं कि पाकिस्तान को आईएमएफ से लोन मिलना मुश्किल हो सकता है। सीएनबीसी के साथ बात करते हुए पोम्पेओ ने कहा कि अमेरिका पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार के साथ काम करने का इच्छुक है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आईएमएफ से कर्ज मिल जाएगा।
अमेरिकी विदेश मंत्री ने कहा, "कोई गलती न करें- हम इस पर नजर रखेंगे कि आईएमएफ क्या करता है। यह तार्किक नहीं है कि आईएमएफ डॉलर दे, अमेरिकी डॉलर भी आईएमएफ की फंडिंग का हिस्सा हैं- और ये (डॉलर) चीनी बॉन्डधारकों या चीन के पास पहुंचेंगे।"
पाकिस्तान चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड (बीआरआई) प्रोजेक्ट में शामिल है। 1,000 अरब डॉलर के निवेश के जरिए चीन एशिया, अफ्रीका और यूरोप में आधारभूत ढांचा खड़ा करना चाहता है। इससे चीन के कारोबार को बहुत ज्यादा फायदा होगा।
माना जा रहा है कि इस वित्तीय वर्ष में ही पाकिस्तान को अब तक चीन से 5 अरब डॉलर से ज्यादा का द्विपक्षीय और कमर्शियल कर्ज मिल चुका है। चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपैक) में भी बीजिंग खूब पैसा झोंक रहा है। इसके तहत पाकिस्तान के हाईवे, पोर्ट, रेलवे नेटवर्क और पावर प्लांट्स का आधुनिकीकरण किया जा रहा है। सीपैक से 60 अरब डॉलर का फायदा होने का दावा किया जा रहा है। समर्थक कहते हैं कि इससे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। वहीं आलोचक कहते हैं कि पाकिस्तान चीन का "आर्थिक उपनिवेश" बनने जा रहा है।
अमेरिका और चीन के बीच फंसा पाकिस्तान
अमेरिकी विदेश मंत्री के बयान के बाद चीन पाकिस्तान के समर्थन में आया है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने कहा कि चीन को उम्मीद है कि देशों को फंड देने के मामले में आईएमएफ अपने नियमों और मानकों का पालन करेगा, "मुझे उम्मीद है कि इसे सही तरीके से हैंडल किया जाएगा।"
चीन की सरकार बार बार बीआरआई स्कीम के तहत विकासशील देशों को कमरतोड़ कर्ज के नीचे दबाने के आरोपों का खंडन करती रहती है। बीजिंग में रेनमिन यूनिवर्सिटी ऑफ चाइना के अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर शी यिनहोंग भी अमेरिकी बयान को आलोचना भरे नजरिए से देखते हैं। डीडब्ल्यू से बात करते हुए शी ने कहा कि पेम्पेओ का बयान दिखाता है कि विकास के लिए चीन से पैसा लेने वाले देशों पर अमेरिका किस तरह दबाव बनाता है।
अमेरिका जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ मिलकर बीजिंग के आर्थिक दबदबे को भी चुनौती देने की तैयारी कर रहा है। प्रोफेसर शी कहते हैं, "इंडो-पैसिफिक अलायंस में ये देश शामिल हैं, अब तक यह रणनैतिक लगता है लेकिन अब वे आर्थिक आयाम भी विकसित करना चाह रहे हैं।"
रक्षा और सुरक्षा समीक्षक इकराम सहगल के मुताबिक ट्रंप प्रशासन चीन को नुकसान पहुंचाने की कोशिशों में पाकिस्तान पर भी कड़ी शर्तें लाद रहा है, "अमेरिका आम तौर पर विकासशील देशों की राजनीति और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने की कोशिश करता रहता है।" सहगल के मुताबिक आने वाले दिनों में पाकिस्तान पर इस बात का दबाव और बढ़ेगा कि वह चीन से दूरी बनाए और अमेरिका के पाले में खड़ा हो।
पाकिस्तान की नई सरकार को इस दोधारी तलवार पर चलना होगा। आधारभूत ढांचे के विकास के साथ साथ देश को कारोबार से जुड़े कानूनों में सुधार भी करने होंगे। साथ ही पश्चिमी निवेश की भी जरूरत पड़ेगी। अभी यह किसी को नहीं पता कि नई सरकार इस कड़े इम्तिहान से कैसे निपटेगी।