भारत में बहुलतावादी लोकतंत्र की व्यापकता के मुताबिक वयैक्तिक कानून यानी "'पर्सनल लॉ'' लागू तो है लेकिन समय के साथ सामाजिक बदलाव की मांग को ये कानून पूरा नहीं कर पा रहे हैं। पारिवारिक मामलों, खासकर शादी और तलाक से जुड़े मामलों में अदालतों के नित नए फैसले इस समस्या को उजागर कर रहे हैं।
शादी और तलाक के अजब गजब आधारों की फेहरस्ति लंबी करते ये अदालती फैसले आए दिन मीडिया की सुर्खियां बनकर लोगों के दिल दिमाग में महज भ्रम पैदा कर पा रहे हैं। पिछले एक हफ्ते में देश की अलग अलग अदालतों ने वैध शादी के जो आधार पेश किये हैं, वे प्रतीकवादी भारतीय समाज के लिए चुनौती बन रहे हैं।
इसमें शादी के पारंपरिक संस्कारों को ही हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत शादी की मूल शर्त मानना, सिंदूर और मंगलसूत्र को महज प्रतीक मानते हुए संस्कार के दायरे से बाहर मानने जैसे फैसले शामिल हैं। और तो और हनीमून पर मलेशिया में पत्नी की मॉल के सामने फोटो खिंचाने की जिद भारत लौटने पर अदालत में तलाक का आधार बन जाने के फैसले ने इस बहस को पुरजोर गर्म कर दिया है। देखना यह है कि क्या इस बहस की गर्मी संसद की दहलीज तक पहुंच कर कानून में स्पष्टता और व्यापकता लाने की मांग को पूरा कर पाएगी।
इस मौजूं सवाल के बीच इन मामलों की संक्षिप्त पड़ताल तस्वीर को कुछ साफ करेगी। पहले मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने विधि विधान पूरा किए बिना एकसाथ रह रहे युगल को हिंदू विवाह के तहत दंपति मानने से इंकार कर दिया। अदालत ने कहा कि महज एक शपथपत्र की शर्तें हिंदू शादी के संस्कार होने की मूल शर्त को पूरा नहीं करतीं क्योंकि हिंदू लॉ में शादी एक संस्कार है, मुस्लिम लॉ की तरह करार नहीं।
दूसरे मामले में बंबई हाईकोर्ट ने कहा कि मंगलसूत्र पहनना, सिंदूर लगाना और शारीरिक संबंध कायम होना वैध हिंदू विवाह का आधार नहीं है। यहां भी अदालत ने शादी के पारंपरिक संस्कारों का विधि विधान से पूरा करने को शादी की अनिवार्य शर्त करार दिया।
तीसरा मामला दो कदम और आगे जाकर तलाक का रोचक आधार पेश करता है। हनीमून पर मलेशिया गए पति के लिए एक मॉल के सामने फोटोग्राफी निषिद्ध क्षेत्र में फोटो खिंचाने की पत्नी की जिद तलाक का वैध आधार बन गई। हनीमून से लौट कर पत्नी ने पति को फोटो खिंचाने की जिद पूरी न करने के लिए इतना परेशान कर डाला कि खुदकुशी के प्रयास में उसने हाथों की नस काट ली। हैरान परेशान पति को अदालत की शरण लेनी पड़ी। दिल्ली हाईकोर्ट ने पत्नी के इस रवैये को शोषण मानते हुए पति को तलाक की अर्जी का आधार करार दिया।
ये मामले समाज में आ रहे बदलाव की महज एक बानगी हैं। इससे इतर न्यायिक फैसलों की कानूनी मान्यता के कारण इनका असर अन्य पारिवारिक अदालतों में लंबित लाखों मुकदमों पर तो पड़ता ही है, साथ ही समाज में विमर्श के स्तर पर भी ये फैसले व्यापक असर डालते हैं।
गौरतलब है कि इन फैसलों की वैधानिकता बेशक असंदिग्ध है लेकिन इनके सकारात्मक और नकारात्मक असर की हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता है। खासकर मीडिया को ऐसे फैसलों को रोचक और सनसनीखेज बनाने के बजाए इनके कानूनी पहलुओं और सामाजिक प्रभावों पर केन्द्रित करना लाजिमी है जिससे कानून को स्पष्ट करने की जिम्मेदारी का संसद को अहसास करा पाने में ये मीडिया रिपोर्टें अक्षम साबित न हों।
खासकर तब जबकि "लिव इन रिलेशनशिप" के बढ़ते चलन के बीच अदालतें "बिन फेरे हम तेरे" कल्चर को विशेष विवाह अधिनियम के तहत मान्यता दे रही हैं, जिससे महिलाओं के वैवाहिक अधिकारों को सुनश्चित किया जा सके। वहीं दूसरी तरफ पर्सनल लॉ के तहत शादी करने वालों को कठोर शर्तों का पालन करने की कानूनी बाध्यता न्यायिक असंतुलन पैदा करने का खतरा उत्पन्न करती है। ऐसे में संसद को इस असंतुलन से बचाने के लिए कानून को समय की बदलती मांग के अनुरूप स्पष्ट बनाने की अपनी जिम्मेदारी को राजनीतिक नफा नुकसान के चश्मे से नहीं देखना चाहिए।
सदियों पुराने कानून को समय के माकूल बनाने का जो काम संसद को करना चाहिए वह अदालती फैसलों के मार्फत मुकदमा दर मुकदमा हो रहा है। वोटबैंक की सियासत में मशगूल सियासतदानों के कारण संसद मौन है और दुनिया की गति से कदमताल करने को आतुर लोगों के कुनबे वयैक्तिक कानूनों की भूलभुलैया में टूटने बिखरने को मजबूर हैं।