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#MeToo तो ठीक है लेकिन तब क्यों नहीं बोलीं?

हमें फॉलो करें #MeToo तो ठीक है लेकिन तब क्यों नहीं बोलीं?
, शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018 (11:26 IST)
आखिरकार #MeToo भारत पहुंच ही गया। सोशल मीडिया पर बहुत से लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि दस-बीस-तीस साल बाद महिलाओं को अपने साथ हुई घटनाएं क्यों याद आने लगी हैं। सवाल वाजिब है, इसलिए जवाब देना जरूरी है।
 
 
ये सवाल दरअसल लोगों को उन लड़कियों से नहीं, बल्कि अपने आप से करना चाहिए। जब कोई लड़की अपने साथ हुई किसी हरकत पर शोर मचाती है, तब आप क्या करते हैं? कितनी बार आप उसका साथ देते हैं? और कितनी बार आप नसीहतें दे देते हैं कि तुम ये ना करती, तो वैसा नहीं होता।
 
 
चलिए, ज्यादा दूर नहीं जाते, हाल ही की एक घटना पर नजर डालते हैं। बिहार में कुछ स्कूली छात्राओं ने जब लड़कों की छेड़छाड़ के खिलाफ आवाज उठाई, तो लड़कों ने अपने परिवार और गांव वालों के साथ मिल कर उनकी ऐसी पिटाई की कि अस्पताल में भरती कराने की नौबत आ गई। इन लड़कियों ने तो फौरन ही आवाज उठाई थी। इनके साथ क्या हुआ? क्या लोगों ने इनका साथ दिया? इसलिए अगर आप साथ दे नहीं सकते, तो सवाल करने का भी आपका कोई हक नहीं बनता।
 
 
वजह आप हैं!
लड़कियां चुप क्यों रहती हैं? इसकी वजह आप हैं। आप - जिससे मिल कर हमारा समाज बनता है। क्योंकि आपने हमें डर कर जीना सिखाया है। आपने अपने फायदे के लिए हमें बताया है कि जो भी हो, बस चुप रहो, नहीं तो उसका नतीजा भुगतना पड़ सकता है।
 
 
बचपन में स्कूल के रास्ते में जब लड़के मेरे और मेरी सहेलियों की छाती पर हाथ मार जाते थे, तब हम में से कोई भी इस बारे में घर पर कुछ नहीं कहता था। डर होता था कि कहीं स्कूल ना छूट जाए। बड़े हो कर जब कॉलेज के रास्ते पर बसों में आदमी हमारी जांघों पर खुद को दबाते थे, तब भी हम घर वालों को नहीं बताते थे, इस डर से कि कहीं कॉलेज ना छूट जाए।
 
 
इसी डर को साथ ले कर लड़कियां अपना करियर भी बनाती हैं। उन तमाम पत्रकारों ने, जिन्होंने आज एमजे अकबर और सुहेल सेठ जैसों के नाम लिए हैं, उन्हें यही तो डर था कि कहीं नौकरी ना छूट जाए। और इस सब के साथ साथ एक डर आपने हम में और डाला है - बदनामी का डर। आपके यानी समाज के सामने बदनामी का डर। आज लड़कियां उस डर से बाहर निकल रही हैं। आज, हम आपकी नहीं, अपनी परवाह कर रही हैं।
 
 
जिसकी लाठी उसकी भैंस
दुर्भाग्यवश हमारे समाज का नियम कुछ ऐसा है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। यानी आवाज भी तब ही सुनी जाती है, जब लाठी हाथ में हो, नहीं तो दबा दी जाती है। विनता नंदा हों या सांध्या मृदुल, ये वो महिलाएं हैं, जो आज सफल हैं। आज जब ये कुछ कहती हैं, तो लोग उसे सुनते हैं। दस-पंद्रह साल पहले, जब सांध्या मृदुल ने इंडस्ट्री में अपनी जगह नहीं बनाई थी, तब क्या उनकी आवाज का आप पर कोई असर होता?
 
 
आज शर्म और डर का चोला उतार कर ये महिलाएं सोशल मीडिया पर आवाज उठा रही हैं। और ये सिर्फ "बलात्कार" या "छेड़छाड़" जैसे शब्दों तक रुक नहीं रही हैं, बल्कि विस्तार से अपनी आपबीती सुना रही हैं ताकि गुनहगारों को शर्मिंदा कर सकें और आपको ये अहसास दिला सकें कि जिसे पढ़ने में आपके रोंगटे खड़े हो रहे हैं, वो अनुभव कितना भयानक रहा होगा।

 
देवी नहीं, मूरत चाहिए
आप औरत को देवी के रूप में पूजते हैं। हर वक्त ना सही, कम से कम साल में दो बार नौ-नौ दिन के लिए तो ऐसा कर ही लेते हैं। नवरात्रि के अंत में लड़कियों को बिठा कर खाना खिलाते हैं, उनके चरण धोते हैं, उनमें देवी को खोजते हैं। वो देवी, जो सिर्फ एक मूरत है। आप जब लड़कियों को पूजते हैं, तब आप उनसे देवी जैसा नहीं, देवी की मूरत जैसा बनने की उम्मीद करते हैं। लेकिन शहरी लड़कियां अब आपकी इस उम्मीद को तोड़ रही हैं। वो आपको बता रही हैं कि उनके पास आवाज है, वो अब मूरत बन कर नहीं जिएंगी, बल्कि जरूरत पड़ने पर कभी दुर्गा का, तो कभी काली का रूप ले लेंगी।
 
 
हो सकता है कि ये रूप लेने में कभी दस कभी बीस तो कभी तीस साल लग जाएं लेकिन कभी ना कभी तो वो आपके सिखाए गए डर से बाहर निकलेंगी और तब आपको अपनी सोच बदलने की जरूरत पड़ेगी।
 
 
रिपोर्ट ईशा भाटिया सानन
 

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