मिजोरम में बीजेपी की सरकार बनेगी या फिर कांग्रेस की? यह छोटा सा राज्य देश की राजनीति के लिए कितनी अहम है। आइए जानें।
पूर्वोत्तर के छोटे-से पर्वतीय राज्य मिजोरम की मुख्यधारा की राजनीति में कोई खास अहमियत नहीं है। यहां विधानसभा की महज 40 सीटें हैं। लेकिन बावजूद इसके अगले महीने पांच राज्यों के लिए होने वाले विधानसभा चुनावों में अगर बीजेपी और कांग्रेस के लिए यह राज्य साख का सवाल बन गया है तो इसकी ठोस वजह है। इसी वजह से दस साल से यहां सत्ता में रही कांग्रेस और अबकी उसे बेदखल कर सत्ता में आने का सपना देखने वाली बीजेपी ने इस राज्य में भी पूरी ताकत लगा दी है। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने बुधवार से राज्य में पार्टी के चुनाव अभियान की शुरुआत की।
राजनीतिक समीकरण
पूर्वोत्तर के छह राज्यों में बीजेपी की सरकार है। अब अगर वह मिजोरम में अपनी सहयोगी मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) के साथ सत्ता में आ जाती है तो इलाके के सभी सातों राज्यों में उसकी सरकार बन जाएगी। इसके साथ ही कांग्रेसमुक्त पूर्वोत्तर का पार्टी का वादा हकीकत में बदल सकता है। दूसरी ओर, दो साल पहले तक त्रिपुरा को छोड़ कर पूर्वोत्तर के बाकी छह राज्यों में राज करने वाली कांग्रेस के पास अब बस यही राज्य बचा है। अगर यहां भी वह हार गई तो आजादी के बाद पहली बार ऐसा होगा जब इलाके के किसी राज्य में कांग्रेस की सरकार नहीं होगी।
यही वजह है कि मिजोरम के विधानसभा चुनाव सत्तारुढ़ कांग्रेस के लिए अग्निपरीक्षा बन गए हैं। बीते 10 साल से यहां राज कर रही इस पार्टी की साख और वजूद अब दांव पर है। हाल में पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने विपक्षी मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) का दामन थाम लिया है। लेकिन बावजूद इसके कांग्रेस नेता राज्य में जीत की हैट्रिक लगाने का दावा कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ललथनहौला कहते हैं, "एकाद नेताओं के इधर-उधर जाने से पार्टी की जीत की संभावनाओं पर कोई असर नहीं पड़ेगा। जाने वालों के मुकाबले दूसरे दलों से कांग्रेस में आने वालों की तादाद अधिक है।" उनका दावा है कि अपने कामकाज के बीते कांग्रेस लगातार तीसरी बार राज्य में सरकार का गठन करेगी।
राज्य की 40 विधानसभा सीटों के लिए 28 नवंबर को मतदान होना है। लगातार दस साल से सत्ता में रहने की वजह से कांग्रेस को अबकी प्रतिष्ठान-विरोधी लहर के अलावा भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के आरोपों से भी जूझना पड़ रहा है। इन समस्याओं की काट के लिए ही पार्टी ने उम्मीदवारों की सूची से कई निवर्तमान विधायकों का पत्ता साफ करते हुए एक दर्जन से ज्यादा नए चेहरों को जगह दी है।
2008 के विधानसभा चुनावों में जोरमथांगा की अगुवाई वाली एमएनएफ सरकार को हटा कर कांग्रेस सत्ता पर काबिज हुई थी। उस साल उसे 40 में से 32 सीटें मिली थीं जबकि एमएनएफ को महज तीन सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। पांच साल बाद 2013 के चुनावों में कांग्रेस को 34 सीटें मिलीं, तो एमएनएफ को पांच।
बीजेपी अकेले मैदान में
पांच बार चुनाव लड़ने के बावजूद इस ईसाई-बहुल राज्य में अब तक बीजेपी का खाता नहीं खुल सका है। इस बार भी बीजेपी अपने बूते यहां कुछ खास करने की स्थिति में नहीं है। लेकिन दो-एक सीटें जीतने के बावजूद वह अपनी सहयोगी एमएनएफ का हाथ थाम कर पिछले दरवाजे से सरकार में शामिल हो सकती है। नागालैंड और मेघालय में भी उसने यही किया था।
फिलहाल एमएनएफ और बीजेपी अकेले ही मैदान में हैं। चुनावी नतीजों के बाद दोनों के बीच तालमेल हो सकता है। बीजेपी ने यहां अकेले ही चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है। बीते सप्ताह राज्य के दौरे पर आए पार्टी महासचिव राम माधव ने कहा था कि चुनावी नतीजों के बाद बीजेपी समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के साथ तालमेल की संभावना पर विचार कर सकती है।
राज्य में अब मुख्य मुकाबला कांग्रेस और विपक्षी एमएनएफ के बीच है। 1987 में मिजोरम को अलग राज्य का दर्जा मिलने के बाद से यहां होने वाले छह विधानसभा चुनावों में कांग्रेस व एमएनएफ के बीच सत्ता बदलती रही है। 1987 में पहला चुनाव एमएनएफ ने जीता था। लेकिन उसके बाद 1989 और 1993 के चुनाव में कांग्रेस विजयी रही थी। एक दशक के कांग्रेसी शासन के बाद प्रतिष्ठानविरोधी लहर पर सवार होकर एमएनएफ ने 1998 के चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था। उसके बाद वह दस साल तक सत्ता में रही थी। अब कांग्रेस ने भी सत्ता में 10 साल पूरे कर लिए हैं।
बीजेपी की ओर से पूर्वोत्तर के क्षेत्रीय दलों को लेकर गठित नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) में शामिल होने के बावजूद एमएनएफ ने अकेले मैदान में उतरने का फैसला किया है। एमएनएफ अध्यक्ष जोरमथांगा कहते हैं, "हमारी पार्टी पर बीजेपी की बी टीम होने का आरोप बेबुनियाद है। हम पहले भी अपने बूते जीत चुके हैं और इस बार भी लोग कांग्रेस की भ्रष्ट सरकार को सबक सिखाएंगे।"
चुनावी मुद्दे
राज्य में अब तक तमाम चुनावों में स्थानीय मुद्दे ही हावी रहे हैं। इस बार भी अपवाद नहीं है। इन चुनावों में सरकार की नई जमीन उपयोग नीति, शरणार्थी, जातीय अल्पसंख्यकों के लिए कोटा, शराब नीति और असम के साथ सीमा विवाद ही प्रमुख मुद्दे होंगे। सरकार की नई जमीन नीति पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं।
इसी तरह राज्य के लोग चाहते हैं कि त्रिपुरा के शरणार्थी शिविरों में रहने वाले ब्रू तबके के लोगों को वोट देने का अधिकार नहीं दिया जाए। स्थानीय लोग ब्रू व चकमा को बाहरी मानते हैं। उन दोनों को छोड़ कर दूसरी अल्पसंख्यक जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों में कोटा तय करने की मांग भी उठ रही है। तीन साल पहले तक मिजोरम में शराबबंदी लागू थी। लेकिन कांग्रेस सरकार ने कानून में संशोधन कर उसे खत्म कर दिया था। अब क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता में आने की स्थिति में दोबारा शराबाबंदी लागू करने के वादे कर रही हैं।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से न सही, इलाके में कांग्रेस के भविष्य के लिहाज से मिजोरम विधानसभा चुनाव अब काफी अहम हो गए हैं।