राज कपूर ने विदेशों में कैसे बढ़ाई भारत की सॉफ्ट पावर?

DW
रविवार, 15 दिसंबर 2024 (07:50 IST)
स्वाति मिश्रा
राज कपूर के 100 साल पूरे हुए। क्यों "मेरा जूता है जापानी" की लोकप्रियता के किस्से आज भी सुने जाते हैं? क्यों उस पीढ़ी के कई रूसियों को बुढ़ापे में भी ये गीत कंठस्थ है? राज कपूर और उस दौर का सिनेमा आखिर दिखा क्या रहा था?
 
"सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी!"
जुलाई 24, 1991 को तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने जब भारत की अर्थव्यवस्था के बंद दरवाजे खोले, तो देश की नई आर्थिक तबीयत को एक चर्चित नाम मिला: उदारीकरण। बाजार और कारोबार को खोलना, इससे जुड़ी नीतियों को उदार और मुक्त बनाना देश को कारोबारी संपर्क के उस रास्ते पर ले जाता है, जहां बड़ी सी दुनिया एक इकाई 'ग्लोबलाइज्ड' बन जाती है।
 
क्यों राज का सिर्फ दिल ही हिंदुस्तानी है?
भारत में हुए आर्थिक उदारीकरण से भी कई दशक पहले एक हिन्दी गीत ने ऐसे भारतीय की कल्पना की, जो देह पर लदी चीजों से ग्लोबल था। गीतकार शैलेंद्र की लिखी "मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिश्तानी। सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी" सन् 1955 में आई फिल्म "श्री 420" के कथानक का हिस्सा है। यह शायद कैमरे की रील पर, काम की तलाश में गांव से शहर पहुंच रहे भारतीयों के संघर्ष और द्वंद्वों की शुरुआती कहानियों में है।  
 
"मेरा जूता है जापानी" की खूबसूरती इस बात में भी है कि इसे कई तरह से बूझा जा सकता है। यूं देखें तो भी गलत नहीं होगा कि राज के शरीर पर सब विदेशी है, क्योंकि वो जिस दौर का हिंदुस्तानी है वहां विपन्नता है। बहुत पुराने देश को पीढ़ियों के संघर्षों के बाद नई-नई आजादी मिली है और उसकी जेब खाली है। लोगों का पेट भरने के लिए खेतों में पर्याप्त अनाज भी नहीं उगता।
 
वो कोई और ही भारत लगता है, जो अपनी जरूरतों के लिए विदेशी मदद पर निर्भर था। उद्योग-धंधे नहीं थे, समाज और देश दोनों ही खेतिहर प्रधान थे। वो इंग्लैंड की फैक्ट्रियों में बनी पतलून पहनता था, वो भी एक बिलांग छोटी। "आत्मनिर्भर भारत" अभी नारा नहीं बना, बस आंख की कोर के एक कोने में पनपते सपने का बीज भर है आत्मनिर्भरता।
 
इस आर्थिक अभाव की दशा में हम दुनिया को क्या दे सकते थे?
क्या कुछ था, जो हम निर्यात कर सकते थे? दरअसल, इसी दौर में राज कपूर के मार्फत हमने बाहर की दुनिया को जो देना शुरू किया, उसे हमारे सबसे सफल और कारगर निर्यातों में गिना जा सकता है। "श्री 420" अकेली नहीं, लंबी सूची है। आवारा, जागते रहो, जिस देस में गंगा बहती है और राज कपूर का मैग्नम ओपस "मेरा नाम जोकर।"
 
आजादी के बाद उन शुरुआती सालों में हिन्दी सिनेमा, या कथित बॉलीवुड के फ्रेम पर हमने दुनिया को ऐसे तरीके से अपनी कहानी सुनाई, जो लाजवाब है। नया भारत क्या है, कैसे जीता है, कैसे रहता है, क्या सपने देखता है, उसकी दिक्कतें और तकलीफें क्या हैं, उसकी संस्कृति और परंपराएं क्या सिखाती हैं, ऐसे तमाम पक्ष फिल्मों का हिस्सा बने।
 
हंसाते-रुलाते, गाना सुनाते हुए, प्रेम कहानियों, टूटे दिल और हैपी एंडिंग के फॉर्मूले से बने बेशुमार उत्पादों ने हमें दुनिया में पहुंचाया। अपने देश और समाज को विदेशियों तक पहुंचाने का ये जरिया आज "सॉफ्ट पावर" कहलाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत दो बड़े विरोधाभासी दृष्टिकोणों से देखा जा रहा था।
 
असल जिंदगी में जहां देश की संभावनाओं पर संदेह थे, वहीं सिनेमा ने अपने नरम और भाव प्रवण माध्यम से देश की ऐसी तस्वीर पेश की, जो अपेक्षाकृत काफी मानवीय थी। सिनेमा के परदे पर गरीब किरदारों के भी आदर्श थे, उनकी गरीबी देखकर उनपर हंसने, देश की खिल्ली उड़ाने का नहीं, बल्कि संवेदनशीलता का भाव जगता था। 
 
अर्थ नहीं आता, लेकिन गाना याद है
ये "सॉफ्ट पावर" भूतपूर्व सोवियत संघ, और खासतौर पर रूस में कितना "स्ट्रॉन्ग" था, इसपर अनगिनत पन्ने लिखे जा चुके हैं। लोग रूसियों में "आवारा हूं" की लोकप्रियता के हैरान करने वाले किस्से सुनाते हैं। इस संदर्भ में जर्मनी में रहने वाले भारतीय 90 के दशक के पूर्वी बर्लिन के किस्से सुनाते हैं। यह हिस्सा सोवियत धड़े के भूतपूर्व पूर्वी जर्मनी में था। सोवियत संघ के कुछ मिलिट्री वाले जब भी भारतीयों से मिलते, तो नजदीकी दिखाने के लिए जरूर गुनगुना देते, "मेरा जूता है जापानी।"
 
इस गाने की याद कितनी लंबी उम्र तय कर चुकी है, इसकी एक मिसाल मिहिर पंड्या ने सुनाई। मिहिर, लेखक और शोधकर्ता हैं। साल 2015 के गोआ अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का प्रसंग है, जहां मिहिर फेस्टिवल के न्यूजपेपर को एडिट कर रहे थे। इस साल फेस्टिवल में रूस के फिल्मनिर्माता निकिता मिखालकोव को 'लाइफ टाइम अचीवमेंट' पुरस्कार मिला। मिखालकोव अपने साथ एक अनुवादक लाए थे क्योंकि वो सिर्फ रूसी भाषा जानते हैं।
 
अवॉर्ड दिए जाने के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई। सवाल-जवाब, दुभाषिये के मार्फत हो रहे थे कि तभी एक भारतीय पत्रकार ने मिखालकोव से पूछा कि क्या आपने भारत की कोई फिल्म देखी है। अनुवादक ने मिखालकोव को सवाल का तर्जुमा बताया। जवाब में दुभाषिये के माध्यम से ये कहलवाकर कि वो कुछ सुनाना चाहते हैं, निकिता ने गाना शुरू किया, "मेरा जूता है जापानी।"
 
गीत का समूचा मुखड़ा गाने के बाद उन्होंने जो कहा, उसका सार ये है कि छुटपन में उनके यहां 'श्री 420' इतनी लोकप्रिय थी कि उन्होंने इसका ये गाना याद कर लिया था। बिना मतलब जाने! बचपन का सीखा गीत 70 पार की उम्र में भी उन्हें याद रहा। मिखालकोव ने ये भी कहा कि राज कपूर रूस में इतने लोकप्रिय थे कि राष्ट्रपति चुनाव लड़ते, तो जीत जाते। उन्होंने यह बात राज कपूर के कद और उनके प्रति लोगों के प्रेम को रेखांकित करने के लिए जोड़ी थी। 
 
फिल्मों की सॉफ्ट पावर है क्या?
इन फिल्मों के जिस 'सॉफ्ट पावर' की हम बात करते हैं, वो है क्या? इसे समझने के लिए बतौर माध्यम पहले सिनेमा को खंगालना होगा। जिस तरह हर दौर के सिनेमा का अपना एक चरित्र है, वैसे ही 1950-60 के दशक का भारतीय सिनेमा, मौजूदा संदर्भ में हिन्दी सिनेमा भी अपने वक्त का उत्पाद है। ये उस नए आजाद हुए देश का माध्यम था, जो अपने नागरिकों में लोकतंत्र और नए समाज के बीज डालने की कोशिश कर रहा था। देश कैसा हो, हम कैसे हों, हम देश के लिए क्या करें जैसे कई सवालों का अभ्यास कराया जा रहा था।
 
देश की एक बड़ी आबादी साक्षर नहीं थी। राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका कैसी हो, यह संदेश उन तक पहुंचाने के सीमित साधन थे। अखबार और किताबों तक लोगों की पहुंच सीमित थी। वहीं, सिनेमा को देखने के लिए और उसकी बात समझने के लिए अक्षरज्ञान की विवशता नहीं थी।
 
ऊपर से, कहानी का माध्यम जिसमें गीत-संगीत है, मनोरंजन है, उसके किरदारों को देखते हुए लोग जुड़ाव महसूस करते हैं, उसके दुख से दुखी होते हैं और हैपी एंडिंग के बाद तृप्त होकर जाते हैं। अगर आप इन वर्षों का सिनेमा देखें, तो इस मजबूत माध्यम में गुंथे हुए सामाजिक संदेश भी स्पष्ट देख पाएंगे। उस समय के हिसाब से यह सचमुच में 'मास मीडिया' था।
 
देश आजाद होने के शुरुआती सालों में कैसी फिल्में बन रही थीं?
इसके लिए कुछ फिल्म फेयर पुरस्कारों के नाम देखिए। साल 1954 की बेस्ट फिल्म 'दो बीघा जमीन,' साल 1955 की बेस्ट फिल्म 'बूट पॉलिश।' साल 1956, बेस्ट फिल्म 'जागृति।' साल 1958, बेस्ट फिल्म 'मदर इंडिया।' साल 1960, बेस्ट फिल्म 'सुजाता।' इस दौर में फिल्मों का नायक क्या कर रहा था? वो समाज की किसी बुराई, किसी समस्या से लड़ता दिख रहा था। कहीं नायक (सुजाता) छुआछूत की बर्बर कुप्रथा तोड़ते हुए एक वंचित जाति की महिला से प्रेम कर रहा था, तो कहीं (नया दौर में) नायक गांव को साथ जोड़कर रोजगार बचाने के लिए एक नाटकीय मुकाबले में हिस्सा ले रहा था।
 
फिल्में अपने मुताबिक यह संदेश भी दे रही थीं कि देश को किस दिशा में बढ़ना चाहिए। जैसे कि 'हिमालय की गोद में' का नायक सुनील, जो मेडिकल की पढ़ाई करके प्रैक्टिस के लिए सुदूर का एक गांव चुनता है। उसके समांतर नीता का किरदार है, जो गांव में नहीं रहना चाहती, शहर में क्लिनिक खोलकर खूब पैसे कमाना चाहती है। सुनील जहां अपनी सोच के साथ नायक दिखाया गया है, वहीं नीता की सोच फिल्म में उसे स्वार्थ का रंग देती है। संदेश है कि देश के नौजवान पढ़ें, कुछ बनें और देश के जरूरतमंदों की सेवा करें।
 
राज कपूर के किरदार
समाजवाद की तरफ झुकी कहानियां, सर्वहारा वर्ग का नायक, इन पक्षों की बात करें तो राज कपूर सबसे आगे की पंक्ति में है। फिल्म-दर-फिल्म यह सोशलिस्ट रुझान नजर आता है। सन् 1951 में आई आवारा कहती है कि कोई इंसान पैदाइशी अपराधी नहीं होता, हालात तपाकर उसे झोंक देते हैं। समाज मेहनत-मजदूरी करके पेट पालने वाले, मैले-कुचैले कपड़ों में दिखने वाले को चोर-डाकू समझ बैठता है और सूट-पैंट पहनकर दूसरों की जेब काटने वाले भी शरीफ समझे जाते हैं।
 
"बूट पॉलिश" के बच्चे बेलू और भोला, हालात के मारे हैं। भीख मांगते हैं, लेकिन मेहनत से कमाने की नीयत रखते हैं। भीख मांगना नहीं चाहते, लेकिन पेट की भूख डिगा देती है। "जागते रहो" का भीरू किसान, काम की तलाश में शहर आया है। सूखे गले को तर करने एक इमारत में घुसता है और चोर समझ लिया जाता है। पूरी रात छिपते-छिपाते वो देखता है कि असल चोर-अपराधी तो वो हैं, जिन्हें शहर इज्जतदार समझता है।
 
"शारदा" में जवान शारदा क्यों अपने ही प्रेमी शेखर के पिता से ब्याह दी गई? ये उस समाज की कहानी है, जहां गरीब लड़कियां अपने पिता समान उम्र के पुरुषों से ब्याह दी जाती थीं। 'शारदा' में नैतिकता का द्वंद्व भी है। वो ऐसा कोना भी छूती है, जो उस समय के समाज के हिसाब से बहुत वर्जित विषय था। फिल्म में एक दृश्य है, जिसमें शेखर को शारदा के पांव छूने हैं। शारदा, जिससे वो प्यार करता है, आज सौतेली मां के रूप में सामने खड़ी है।
 
'श्री 420' में राज निरा राज है। बस राज। जाति प्रधान देश में उसकी जाति क्या है, नहीं मालूम। वो बस गरीब है। गांव से शहर आया जवान लड़का, बड़ा सीधा-सादा। साहित्य में खुले हाथों से गांव की जो निर्दोष तबीयत उकेरी गई है, राज में वही निर्दोषपना है।
 
वो गरीब है, तो निष्कपट है। जब अमीर हुआ, तो जुआरी "420" अपराधी हो गया। लेकिन उसके भीतर की सरलता मिटी नहीं, इसलिए अपराध की दुनिया का हिस्सेदार बनकर अंत में वो फिर भलेपन की अपनी मूल प्रवृत्ति पर लौट आया। 420 से "श्री 420" बनकर, अपने हिस्से का पश्चाताप करके वो अपनी स्वाभाविक दुनिया में लौट आया।
 
'जिस देश में गंगा बहती है' के राजू को देखिए, तो उसमें गांधीवादी विचारों का मजबूत अंश दिखता है। फिल्म की कहानी किसी समाज सुधारक की भूमिका में बढ़ती है। राजू नेक है, झूठ नहीं बोलता, इंसानी अच्छाई में यकीन करता है। वह डाकुओं के बीच रहने लगता है, उन्हें लूटपाट छोड़कर मुख्यधारा में लौटने को मनाता राजू गाता है, "सहज है सीधी राह पे चलना, देख के उलझन बच के निकलना, कोई ये चाहे माने ना माने, बहुत है मुश्किल गिर के संभलना।"
 
फिल्म की रूह कम्मो और राजू के उस संवाद में भी साफ समझ आती है, जब कम्मो कहती है, "बहादुर सिंह, बंदूक नहीं चलाओगे तो दुनिया बराबर कैसे करोगे? चोचलिस्ट (सोशलिस्ट) कैसे बनोगे?" राजू बड़े यकीन से समझाते हुए कहता है, "कम्मो जी! दंबूक से आदमी मरते हैं और जब सारे आदमी ही स्वर्गवासी हो गए तो बरोबर कौन होगा और चोचलिस्ट कौन बनेगा?" यानी, माना समाज में गैरबराबरी है। इसे दूर करना है, बराबरी लानी है, लेकिन बंदूक के बिना। 
 
सोवियत रूस में लोकप्रियता की वजह?
बहुत मुमकिन है कि राज कपूर की फिल्मों का ये सामाजिक पक्ष एक बड़ी वजह था, जिसने उन्हें सख्त पाबंदियों वाले साम्यवादी 'आयरन कर्टन' सोवियत में इतनी लोकप्रियता दिलाई। अपेक्षाकृत अभावों में जी रहे रूसियों ने अपनी जीवनशैली से मिलती-जुलती, या शायद खुद से भी अभावग्रस्त कहानियों में अपने मुताबिक संवेदना पाई हो।
 
यही समभाव या सहानुभूति उस मशहूर लोकप्रियता का बीज हो, जिसके किस्से इतने दशकों बाद भी सुनाए जाते हैं। राज कपूर उन शुरुआती सिनेमाकारों में हैं, जिनकी फिल्में देखकर पश्चिम ने भारत को समझा। द्विपक्षीय वार्ताओं और सम्मेलनों से दूर, काल्पनिक कहानियों और किरदारों के मार्फत भारत के शहरों-देहातों में रहने वालों की जिंदगी देखी।
 
इस दौर के सिनेमा की सॉफ्ट पावर पर मिहिर पंड्या कहते हैं, "भारतीय समाज में सिनेमा की पैठ और मास-मीडियम वाला चरित्र, इसकी सबसे बड़ी यूएसपी है। दिलचस्प दौर है यह। एक तरफ लोकप्रिय सिनेमा के जरिये पश्चिम इस महादेश को समझने की चाबी खोलने की कोशिश कर रहा था, तो दूसरी ओर विदेशों में जा बसे 'एनआरआई' हिंदुस्तानी इसी सिनेमा में अपमें छूटे देश का नॉस्टैल्जिया खोज रहे थे। तो हमारे उस दौर के सिनेमा में इज़हार भी है और ख्वाहिश भी है।"
 
राज कपूर की 100वीं सालगिरह मनाकर भारत सरकार उन्हें और उनकी फिल्मों को फिर से सुर्खियों में लाई है। राज कपूर ने ना केवल विदेशों में भारत की सॉफ्ट पावर बनाई, बल्कि आजादी के बाद के उन शुरुआती दशकों में अपने मुताबिक राष्ट्र निर्माण में भी भूमिका निभाई। भारत आज भी फिल्मों के माध्यम से दूसरे देशों और दूसरे समाजों में सफर कर रहा है। फिल्में आज भी भारत का सबसे सफल सांस्कृतिक निर्यात बनी हुई हैं।    

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