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कोरोना वायरस को साजिश मानने वाले भी कम नहीं

हमें फॉलो करें कोरोना वायरस को साजिश मानने वाले भी कम नहीं
, गुरुवार, 14 मई 2020 (10:21 IST)
रिपोर्ट : अलेक्जांडर गोएरलाख
 
सन्  2015 में भी साजिशों में यकीन रखने वालों को लगा था कि रिफ्यूजी जर्मनी को अपने कब्जे में ले लेंगे। आज एक बार फिर वे लोग कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के दौर में बुरी ताकतों को और शक्तिशाली होता देख रहे हैं।
 
जर्मन समाज में इस समय कई तरह की षड्यंत्र वाली कहानियां फैली हुई हैं। ऐसे लोग गिनती में कितने हैं यह तो पता नहीं, लेकिन ऐसी सोच का सबूत हाल के दिनों में देखने को खूब मिल रहा है। मेरी अपनी फेसबुक वॉल पर ऐसी टिप्पणियों की कोई कमी नहीं है, जो वायरस विशेषज्ञों, बिल गेट्स, टीकाकरण, एंजेला मर्केल और कोविड-19 को मिटाने के उनके कड़े कदमों के खिलाफ हैं।
इसके पहले 2015 में जब यूरोप में शरणार्थी संकट चरम पर था, तब भी जर्मनी में ऐसी वैकल्पिक साजिश वाली थ्योरी देने वाले बहुत से लोग थे। इसके मानने वालों ने ये दावे भी किए कि चांसलर मर्केल गुप्त रूप से देश में जर्मन लोगों की जगह मध्य-पूर्व और एशियाई लोगों को लाने की योजना बना रही थीं। शरणार्थी संकट के पीछे उन्हें बहुत बड़ी वैश्विक साजिश दिखाई दे रही थी।
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दम घोंटने वाली थ्योरियां
 
अरबपति और दानी जॉर्ज सोरोस का नाम ऐसी साजिश वाली कई थ्योरी के साथ जोड़ा जाता रहा है। उनके नाम का इस्तेमाल कर लोग ऐसी तमाम साजिशों को एक तथाकथित वैश्विक यहूदी षड्यंत्र के साथ जोड़ने लगते हैं। जर्मन समाज में कुछ ऐसे लोग भी रहते हैं, जो जर्मनी के राइषबुर्गर आंदोलन को मानते हैं, जर्मन सरकार की वैधता को नकारते हैं और अपने खुद के पहचान पत्र जारी करते हैं। ऐसी कुछ थ्योरी तो इतनी कमजोर होती हैं कि एक सीमा के बाद वे हास्यास्पद लगने लगती हैं। लेकिन उस काल में इन सारी थ्योरी के कारण मेरा दम घुटता महसूस नहीं होता था।
 
लेकिन इस बार इतना अलग क्या है? शायद यह कि कोविड-19 महामारी के असर से शायद ही कोई बच पाया हो। बच्चे डे-केयर या स्कूल नहीं जा पाते और माता-पिता घर में रहकर नौकरी करने, बिजनेस चलाने और बच्चों की देखभाल करने को मजबूर हैं। रेस्तरां से लेकर हेयर सैलून तक हफ्तों बंद रहे, अनगिनत लोगों की जीविका पर असर पड़ा। बुजुर्ग लोग अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से नहीं मिल पाए। कोविड-19 के अलावा दूसरी बीमारियों से ग्रस्त लोगों को अपने इलाज और सर्जरी के लिए इंतजार करना पड़ा। जो कोरोना वायरस की चपेट में आ गए, उन्होंने बेहद दर्दनाक अनुभव किए हैं।
 
क्या यह वाकई सच हो सकता है? क्या एक वायरस हमारे समाज के साथ ऐसा कर सकता है? लंबी सांस भरकर या फिर शायद आंखों में आंसू भरकर ज्यादातर लोग हां ही कहेंगे। लेकिन अपनी अलग मान्यता रखने वाली वह भीड़, जो सार्वजनिक जगहों पर इकट्ठा होकर शोर मचा रही है और लॉकडाउन को हटाने की मांग कर रही है, उनका मानना है कि 'जिनके हाथों में ताकत है' वे बुरी ताकतों से मिलीभगत कर रहे हैं।
 
बुनियादी बातों पर सवाल
 
इसके पहले 2015 में आप्रवासन का विरोध करने वाले तमाम लोग उन तथ्यों पर सवाल नहीं उठा रहे थे बल्कि इस आलोचना में लगे थे कि देश में पहुंचे 10 लाख शरणार्थियों से देश के राजनेता कैसे निपट रहे थे। इन दिनों तो लोग वायरस के फैलने से जुड़े वैज्ञानिक सबूतों तक पर भरोसा नहीं कर रहे हैं और इस पर भी लोग एकमत नहीं है।
 
कुछ लोगों का मानना है कि कोविड-19 किसी सीजनल फ्लू से ज्यादा बुरा नहीं है तो वहीं कुछ हर्ड (सामूहिक) इम्युनिटी वाली थ्योरी मानते हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भी इसके कुछ मानने वाले हैं। वहीं किसी भी तरह के टीके का विरोध करने वाले लोगों का एक बड़ा धड़ा है, जो लंबे समय से चल रहे एक आंदोलन से उपजे हैं। अभी तो कोविड-19 के लिए कोई टीका बना भी नहीं है लेकिन इनका मानना है कि टीके बेकार होते हैं।
 
जब किसी समाज में लोग ऐसी बेसिक जानकारी पर भी विश्वास नहीं करते तो किसी बात पर खुली बहस करने और उसके सभी पहलुओं पर चर्चा करने की जगह ही नहीं बचेगी। जर्मनी में समाज के हर तबके में ऐसी सोच फैल चुकी है। हाल ही में कुछ कैथोलिक बिशपों ने मिलकर एक खुली चिट्ठी जारी की जिससे एक 'विश्व प्रशासन' के बारे में हल्ला मच गया।
दुनियाभर के वे अनियंत्रित शासक, जो हाल के सालों में लगातार विशेषज्ञों को बदनाम और संभ्रांत लोगों का अनादर करते आए हैं, उन्हें यह अफरा-तफरी खूब भा रही है। उन्हें यह देखकर अच्छा लग रहा है कि वे लोगों को अपने हिसाब से ढालने में सफल हुए हैं। ये ऐसे लोग हैं जिनकी नजर में शिक्षा और ज्ञान की कोई कद्र नहीं है बल्कि वे निराधार अफवाहों का महिमामंडन करने और ताकतवर लोगों की प्रशंसा करने में यकीन करते हैं।
 
अंत में बात यही आ जाती है कि बेवकूफी और अंधविश्वास लोकतंत्र के ताबूत में कील ठोंकने का काम करेंगे। समाज में इस ढलान का कोरोना वायरस से कोई लेना-देना नहीं है, असल में पॉपुलिस्ट धीरे-धीरे करके कई सालों से समाज में इस जहर को भर रहे थे।
 
(अलेक्जांडर गोएरलाख कारनेगी काउंसिल फॉर एथिक्स इन इंटरनेशनल अफेयर्स में सीनियर फेलो और कैब्रिज इंस्टीट्यूट ऑन रिलीजन एंड इंटरनेशनल स्टडीज में सीनियर रिसर्च एसोसिएट हैं। वह न्यूयॉर्क टाइम्स, स्विस अखबार नोए ज्यूरिषर साइटुंग और कारोबारी पत्रिका विर्टशाफ्ट्सवोखे में अतिथि स्तंभकार हैं।)

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