कोयला क्यों है मुश्किलों की खान

कोयले ने औद्योगीकरण और जलवायु चुनौतियों को लगातार बढ़ाया है। इसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप इसका उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन यह सोच क्यों सही नहीं?

DW
बुधवार, 16 अप्रैल 2025 (07:55 IST)
टिम शाउएनबेर्ग
जनवरी में पद संभालने के बाद से ही डोनाल्ड ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन पर अपना नजरिया साफ जाहिर किया है। उन्होंने ना सिर्फ पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट से अमेरिका की दूरी बनाई है। बल्कि अमेरिका में कोयले के उत्पादन को बढ़ाने के लिए भी निर्देश जारी किये हैं। 
 
इस हफ्ते पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा कि "अमेरिका बेहतरीन है, साफ कोयला उद्योग” को और पाबंदियों में रखना ठीक नहीं। इसके साथ ही संघीय अधिकारियों को कोयले के खनन और निर्यात पर ‘जो बाइडन' के लगाए प्रतिबंधों को जल्द हटाने के आदेश जारी किए। इसके अलावा, कोयले से चलने वाले पुराने पावर प्लांट्स भी ग्रिड से जुड़े रखे जाएंगे ताकि अर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के लिए पर्याप्त बिजली मुहैया कराई जा सके। हालांकि, इस बीच दुनिया के दूसरे देश तेजी से नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ रहे हैं।
 
कोयले की शुरुआत
करोड़ों साल पहले जंगलों में उगने वाले पौधे, समय के साथ, दबाव और गर्मी के कारण ठोस कोयले में बदल गए। कोयले में इन पौधों की ऊर्जा कैद होती है। कोयले के दो मुख्य प्रकार होते हैं, सख्त काला कोयला और एक नरम भूरा कोयला, जिसे लिग्नाइट कहा जाता है। इनमें से कोई भी नवीकरणीय ऊर्जा का स्रोत नहीं हैं।
 
कोयला जलाने पर बहुत अधिक ऊर्जा मिलती है। जिस कारण 19वीं सदी के मध्य से कोयला, औद्योगीकरण का मुख्य ईंधन बन गया। कोयले की खदानों से इसकी खुदाई कर, इससे बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां चलाई गई। जिससे तेजी से विकास के रास्ते खुले।
 
ब्रिटेन से लेकर मध्य यूरोप और फिर अमेरिका तक, कोयला, जिसे कभी "काला सोना" भी कहा जाता था। उसने तकनीकी तरक्की की नई संभावनाओं को जन्म दिया। यह स्टीम इंजन के लिए सबसे अहम ईंधन का स्रोत बना, इसने खदानों से पानी निकालने में मदद की, कपड़े की फैक्ट्रियां शुरू की और रेलगाड़ियां चलाई गई।
 
हालांकि कोयले से चलने वाली चीजों ने लोगों और प्रकृति को काफी नुकसान पहुंचाया जैसे कि वायु प्रदूषण और धरती के तापमान पर भी असर पड़ा, जो कि अब तक बरकरार है।
 
जलवायु विनाशक
कोयला जलाने पर दूसरे जीवाश्म ईंधनों से कहीं अधिक कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है। इसी वजह से कोयले को जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण माना जाता है। जो आज और भविष्य के लिए दुनियाभर में करोड़ों लोगों की आजीविका के लिए खतरा बन रहा है।
 
इसी वजह से कई देशों ने कई साल पहले ही कोयले का इस्तेमाल धीरे-धीरे बंद करने का निर्णय लिया था और आज भी कई देश इसी रास्ते पर चल रहे हैं,खासकर यूरोप के देश।
 
इसके बावजूद आज दुनिया में पहले से कहीं अधिक कोयला जलाया जा रहा है। खासकर चीन, भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों में जहां बढ़ती आबादी और अर्थव्यवस्था को ऊर्जा की अधिक जरूरत है।
 
यूरोप में कोयले का इस्तेमाल घटाने की कोशिश
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने दावा किया है कि वह जर्मनी से प्रोत्साहित होकर कोयले और जीवाश्म ईंधनों की वापसी करा रहे हैं। जबकि सच इसके बिलकुल उलट है।
 
यदि रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान उत्पन्न ऊर्जा संकट को छोड़ दिया जाए, जिसमें कुछ समय के लिए आपातकालीन रूप से कोयले से चलने वाले पावर प्लांट्स को सक्रिय किया गया था। तो जर्मनी में कोयले का इस्तेमाल कई वर्षों से लगातार घटाया जा रहा है। 2038 तक कोयले के इस्तेमाल को पूरी तरह से बंद करने की योजना है।
 
साल 2000 के बाद से जर्मनी में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और बायोगैस जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में लगातार वृद्धि हुई है और आज के समय में यह जर्मनी की आधे से ज्यादा बिजली की जरूरत पूरी कर रहे हैं।
 
पूरे यूरोपीय संघ में भी कोयले से बिजली उत्पादन लगातार कम किया जा रहा है। अलग-अलग देशों के अलग-अलग लक्ष्य है, लेकिन पूरे संघ का 2050 तक शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने का उद्देश्य  है।
 
हालांकि, अमेरिका में भी कोयले का इस्तेमाल पिछले कई वर्षों से घट रहा था। 2005 की तुलना में आज अमेरिका में कोयले से एक-तिहाई से भी कम बिजली पैदा की जाती है। हालांकि ट्रंप की नई घोषणा लगातार हो रही इस गिरावट को रोक सकती है।
 
इसके साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति पवन और सौर ऊर्जा के विस्तार को भी रोक रहे हैं। उनके नए शुल्क के कारण नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं का निर्माण महंगा हो सकता है।
 
यह अभी साफ नहीं है कि ट्रंप की नीतियों से अमेरिका में फिर से प्रदूषण बढ़ेगा या नहीं, लेकिन इतना तय है कि ऊर्जा बदलाव के लिए सालों से चल रही कोशिशों पर असर जरूर पड़ेगा।
 
कोयले से बिजली उत्पादन को बंद करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इलेक्ट्रिक वाहन और हीट पंप जैसी नई तकनीकों के लिए साफ ऊर्जा की आवश्यकता है। यदि बिजली कोयले से बनेगी, तो प्रदूषण को काम करने वाली यह नई तकनीकें भी प्रदूषण फैलाएंगी।
 
जानलेवा प्रदूषण और स्वास्थ्य की मुश्किलें
कोयला ना केवल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि यह जानलेवा भी है। 2021 में कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों की रिसर्च के अनुसार, हर साल लगभग 80 लाख लोगों की मौत कोयला, तेल और गैस जलने से पैदा होने वाले सूक्ष्म कणों के कारण होती हैं। इनमें 60 फीसदी से ज्यादा मौतें भारत और चीन में होती हैं। इसकी वजह यह है कि इन देशों के बिजली घरों में सबसे ज्यादा कोयला जलता है। इसके साथ ही गाड़ियों में जलने वाला डीजल भी इसकी एक वजह है।
 
भारत और चीन में से किसी ने भी अभी तक कोयले को पूरी तरह बंद करने के लिए कोई लक्ष्य तय नहीं किया है। चीन ने तो हाल के वर्षों में कोयले से चलने वाले कई नए बिजलीघर बनाए हैं। दोनों देश यह तर्क देते हैं कि उनकी अर्थव्यवस्था और ऊर्जा सुरक्षा के लिए कोयले का इस्तेमाल जरूरी है।
 
हालांकि, इसके साथ यह देश नवीकरणीय ऊर्जा के विस्तार को भी बढ़ावा दे रहे हैं। चीन आज दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में लगभग दोगुने पवन और सौर ऊर्जा संयंत्र बना रहा है और सबसे अधिक निवेश करने वाला देश बन चुका है।
 
स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर कोयले का असर?
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और कई वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर दुनिया स्वच्छ ऊर्जा की ओर तेजी से बढ़ेगा, तो इसका सीधा लाभ मानव स्वास्थ्य को होगा यानी बीमारियों पर होने वाला खर्च कम हो सकेगा।
 
आज के समय में दुनिया के कई हिस्सों में कोयले से बनी बिजली की कीमत नवीकरणीय ऊर्जा (सौर, पवन आदि) से कहीं ज्यादा हो गई है।
 
फिर भी, उदाहरण के तौर पर भारत जैसे देश अभी भी मुख्य रूप से कोयले पर निर्भर है, क्योंकि सौर और पवन ऊर्जा के ढांचे को तैयार करने में शुरुआती लागत बहुत अधिक होती है। यदि उन्हें आसानी से वित्तीय सहयोग मिले, तो वहां कोयले से छुटकारा पाने की प्रक्रिया को तेज कर सकते हैं।
 
धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म होने से रोकने के लिए सभी विकसित देशों को 2030 तक और सभी विकासशील देशों को  2040 तक कोयले के इस्तेमाल को पूरी तरह बंद कर जरूरी होगा।

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