कभी पश्चिम बंगाल में अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहा चाय उद्योग अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। राज्य के उत्तरी हिस्से में स्थित 14 चाय बागान लंबे अरसे से बंद पड़े हैं।
इलाके के बंद चाय बागानों में रहने वाले मजदूरों का हालत बेहद खराब है। भुखमरी और पेट की बीमारियों की चुपेट में आकर वे धीरे-धीरे मौत के मुँह में समा रहे हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, अब तक बंद बागानों में कम से कम छह सौ मजदूर विभिन्न बीमारियों की चपेट में आ कर मारे जा चुके हैं।
जलपाईगुड़ी जिले के रामझोड़ा, सिंगियाझोड़ा और रायपुर जैसे बंद बागानों में राशन तो दूर, पानी का साफ पानी तक नहीं मिलता। नतीजतन ज्यादातर मजदूर पेट की बामिरयों से जूझ रहे हैं। वीरपाड़ा स्टेट जनरल अस्पताल में बागानों से आने वाले ऐसे मरीजों की भरमार है। अस्पताल के अधीक्षक डॉ. प्रवीर दास कहते हैं कि डायरिया के ज्यादातर मरीज चाय बागान इलाकों से आए हैं। बागानों में पीने का साफ पानी और शौचालय जैसी मौलिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
इलाके में जो बागान खुले हैं उनमें से भी ज्यादातर की हालत ठीक नहीं है। चाय की हरी पत्तियों से चाय बनाने वाली इन मशीनों के शोर में मजदूरों का दुख-दर्द भी दब गया है। टाटा समूह के एक बागान में बीते 20 साल से काम करने वाले बलराम लोहार कहते हैं कि हालत बेहद खराब है। हमें जो मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रहा है।
DW
चाय की पत्तियों के साथ सूखती जिंदगी : गीत और संगीत इन बागानों में काम करने वाले आदिवासी मजदूरों के जीवन का हिस्सा था। लेकिन अब इनके गीतों के बोल मुरझाने लगे हैं। जब दो जून की रोटी के लाले पड़े हों और पीने का पानी और चिकित्सा जैसी मौलिक सुविधाएँ भी हासिल नहीं हों, तो गीत-संगीत भला किसे सूझेगा। इन बागानों की सूखती पत्तियों के साथ चाय बागान मजदूरों के जीवन में रचा-बसा संगीत का यह रस भी सूखने लगा है।
एक राजनीतिक मुद्दा : जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता अनुराधा तलवार इलाके में बंद बागानों को दोबारा खुलवाने की मुहिम चला रही हैं। वे कहती हैं कि हमारी पहल के बाद राज्यपाल और दूसरे राजनीतिक नेताओं ने बंद बागानों का दौरा किया है। तलवार कहती हैं कि बंद बागानों का मुद्दा राजनीतिक है।
लेकिन आखिर सरकार और कुछ गैर-सरकारी संगठनों की कोशिशों के बावजूद अब तक लंबे अरसे से बंद पड़े बागानों को खोलने में कामयाबी क्यों नहीं मिल सकी है? केंद्रीय वाणिज्य राज्य मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि बंद बागानों में मजदूरों की बकाया रकम, बैंकों का कर्ज, पेंशन व प्राविडेंट फंड जैसे मुद्दों पर फैसला होना है। इनके सुलझने के बाद ही उन बागानों को दोबारा खोला जा सकता है। यानी फिलहाल चाय की सूखती पत्तियों की तरह इन बागान मजदूरों के जीवन में भी हरियाली लौटने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती।