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आओ इस रिश्ते को नाम दें...!

जीवन के रंगमंच से...

राजश्री कासलीवाल
ND
कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे
दो पल मिलते हैं, साथ-साथ चलते हैं
जब मोड़ आए तो बचके निकलते हैं
कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे...

ये पंक्तियाँ हमारे जीवन पर बिलकुल सटीक साबित होती हैं क्योंकि दुनिया एक रंगमंच है। और हम सब ईश्वर के हाथों रचे गए वो कलाकार हैं जिसकी जब जैसे डोर खींचना चाहो वैसे खींच लो एक कठपुतली की तरह... उन्हें नचाते रहो। जमाने की तरह-तरह की बातों में उलझाते रहो।

जिस प्रकार हम किसी थिएटर में जाकर नाटक का मंचन देखते हैं और बहुत खुश होते हैं। लेकिन उस समय यह भूल जाते हैं कि हमारा जीवन भी इस मंचन की तरह ही है। जहाँ ईश्वर हर रोज कोई न कोई नया रिश्‍ता आपकी जिंदगी में भेज देता है। और आप असमंजस में पड़ जाते हैं कि ये कौन है जिससे हम इतने घुल-मिल गए हैं। जो हमें इतना ज्यादा अपना-सा लगने लगा है, क्या ये हमारे पूर्व जन्म का कोई मिलने-जुलने वाला है। यह तय नहीं कर पाते और इसी उलझन में जीते रहते हैं।

ईश्वर द्वारा रचित इस नाटक के मंचन पर अपनी मुहर लगाते रहते हैं। लेकिन मामला तब बहुत मुश्किल हो जाता है जब आप किसी के साथ बहुत घुल-मिल जाते हैं और ऐसे रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पाते। दुनिया में ऐसे हजारों लोग हैं, जो मिलते हैं अपनों की तरह, लेकिन अगर उनसे कोई पूछता है कि आपका उनसे रिश्ता क्या है?
  हम सब ईश्वर के हाथों रचे गए वो कलाकार हैं जिसकी जब जैसे डोर खींचना चाहो वैसे खींच लो एक कठपुतली की तरह... उन्हें नचाते रहो। जमाने की तरह-तरह की बातों में उलझाते रहो। जिस प्रकार हम किसी थिएटर में जाकर नाटक का मंचन देखते हैं और बहुत खुश होते हैं।      

तो वे बता नहीं पाते, क्योंकि कुछ ही दिन पूर्व उनकी जान-पहचान हुई, एक-दूसरे का व्यवहार अच्छा लगा। एक-दूसरे के साथ जिन्दगी के कुछ पल सुकून से गुजारे और गुजरते हुए इन पलों में इतने मस्त हुए कि यह भूल गए 'अगर दुनिया वाले उनसे इस अनजान रिश्ते के बारे में पूछेंगे तो वो क्या नाम देंगे? क्या बताएँगे दुनिया को कि वो दोस्त हैं, प्रेमी-प्रेमिका हैं या फिर कुछ और ही हैं, जिसका उन्होंने अभी तक कोई नाम नहीं सोचा।'

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ऐसे में वो कभी इस रिश्ते को निर्धारित नहीं कर पाते, बस उस अनजान रिश्ते पर आगे बढ़ते चले जाते हैं। ऐसे हजारों लोग हैं इस जमाने में जो रिश्ते को नाम दिए बिना ही रिश्ता निभाते -निभाते ताउम्र गुजार देते हैं और अंत तक वो अपने रिश्ते को नाम नहीं दे पाते।

मिसाल के तौर पर जब एक ऑफिस में कार्यरत एक अनजान लड़का-लड़की मिलते हैं, उनको एक-दूसरे के बातचीत, बातचीत का ढंग बहुत अच्छा लगने लगता है। वे एक-दूसरे में इतने घुल-मिले जाते हैं कि उनमें एक अनजान-सा रिश्ता पनपने लगता है, जिसे वो कोई नाम नहीं देते, जब कोई पूछता है तो बोलते हैं, ये मेरे साथ काम करता है या फिर मैं इसे काफी समय से जानता/जानती हूँ या फिर कुछ और...

ऐसे समय में दुनिया को ये बताना कि हमारा आपस में क्या रिश्ता है बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन जब यह सवाल बार-बार उठने लगते हैं तब वे रिश्ते में बँधकर खुद की आजादी नहीं छिनने देना चाहते या फिर रिश्ते की जिम्मेदारी कहीं अपने सिर न पड़ जाए इस डर से खुद को छिपाते फिरते हैं। उससे बचने लगते हैं ताकि वे दुनिया में उठने वाले सवालों से बच सकें। ऐसे समय उस रिश्‍ते को बिना नाम ही दिए एक-दूसरे से कन्नी काटने लगते हैं। और कुछ समय पश्चात भूल जाते हैं कि वे कौन हैं?
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