नौवीं में पढ़ने वाली, सोलह वर्षीय आरती (परिवर्तित नाम) की मौत की खबर मैंने भी अखबार में ही पढ़ी थी। आरती ने अपने ही घर में फांसी लगा ली, उसी गुलाबी दुपट्टे से, जिसे पहली बार ओढ़ते हुए उसे अहसास हुआ था कि वो बड़ी हो रही है। उसी दुपट्टे से, जिसे दोनों कंधों पर डालकर वह धीरे से अपने उभारों को ढंकने की कोशिश कर रही थी। उसी दुपट्टे से जिसे अकेले में कांच के सामने खड़े होकर, सिर पर रखकर वह कभी दुल्हन की तरह शरमाई थी ।
आरती ने फांसी क्यों लगाई? इस प्रश्न का उत्तर भी खबर में ही था। उसकी बस्ती के हमउम्र लड़के आते-जाते उसे छेड़ते थे, फब्तियां कसते थे। उसे देख कभी सीटी बजाते थे तो कभी फिल्म देखने की मनुहार करते थे। बहुत आम है गली-मोहल्लों में इस तरह की हरकत होना। पर और लड़कियों की तरह ही आरती इसे अनदेखा नहीं कर पाई। दिल से लगा लिया उसने सीटियों, फब्तियों को।
क्या सोचती होगी वह इस अनचाहे व्यवहार के प्रति? क्या उसने कभी अपनी मां से इस बारे में कहने का साहस किया होगा? यदि किया भी होगा तो मां ने कितनी गंभीरता से सुनी होगी उसकी पीड़ा! कहीं उसे ही दो-चार खरी-खोटी तो नहीं सुननी पड़ी होगी? कितने ही प्रश्न उस आरती की भांति लटक गए, लटके ही रह गए। इनके उत्तर नहीं लिखे उसने सुसाइड नोट में।
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आरती ने निजात पा ली कई-कई बार अपमानित होने से। मुक्ति पाकर क्या सोच रही होगी वह? अब किसे छेड़ेंगे ये मनचले? हो सकता है पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर ले, फिर सब जमानत पर छूट जाएं। हमारे कानून में इन छोटे (?) अपराधों की कोई बड़ी सजा तो होती नहीं है और कानून के दांव-पेंच जानने वाले उन्हें छोटी सजा से भी बचाकर ले जाते हैं। अपराधी बाइज्जत बरी।
अगर आरती नहीं मरती तब? तब क्या वे ऐसे माहौल में अपनी पढ़ाई पूरी कर पाती? हो सकता है बस्ती की अन्य लड़कियों की तरह उसकी पढ़ाई भी छुड़ा दी जाती। उसकी पढ़ने की तमन्ना को कुचल दिया जाता। उसे किसी घर में काम पर लगा दिया जाता, फिर जहां काम पर जाती वहां का मालिक उसके साथ कोई गलत हरकत कर बैठता। शिकायत करने पर पत्नी ढाल की तरह उसे बचाने खड़ी हो जाती या फिर घर में कभी अकेली पाकर बस्ती का कोई लड़का उसके साथ जबरदस्ती करता।
तब... तब तो आरती जीते-जी मर जाती न! कलंक लग जाता उसके माथे, पर ब्याह नहीं होता उसका। माँ-बाप पर बोझ बन जाती। छोटे भाई-बहन तक हिकारत से देखते उसे। और बलात्कारी का वही होता, जो देश में रोजाना अनेकों महिलाओं के साथ बलात्कार करने वालों का होता है। शान से घूमता सरे बाजार, उधर तारीख पे तारीख का खेल चलता रहता। घर में ही उसकी जिंदगी नरक के समान हो जाती।
न मरती आरती तो शायद साल-दो साल में उसकी शादी हो जाती। ज्यादा पीने और कम कमाने वाला पति उसे पैसे लाने के लिए पीहर भेजता। न लाने पर कितनी मार खाती वह? कभी हाथ से, कभी लात से, कभी जूतों से, कभी डंडे से। उसे यह भी पता नहीं होता कि वह किन गुनाहों की सजा भुगत रही है? साल, दो साल मार खाती। हो सकता है इस बीच एक नई आरती को भी जन्म दे देती। कमजोर, मरियल नन्ही आरती। लड़की पैदा करने पर रोज बीसियों गालियां सुनती। फिर किसी दिन विरोध की कोशिश करने पर ससुराल वालों द्वारा जला दी जाती। मरते-मरते भी बयान दर्ज होते 'स्टोव्ह भभक गया था'।
अखबार में फिर खबर बन जाती। खबर पढ़कर लोगों के दिल कुछ क्षणों के लिए (या कईं के नहीं भी) संवेदना से भर उठते। क्या फर्क होता पहले या बाद में खबर बनने में? बाद में खबर बनने से अच्छा हुआ न आरती पहले ही मर गई। आरती बार-बार मरने से बच गई। रोज-रोज अधमरी होकर जीने से बच गई। घर का खाना, कपड़ा बहुतेरा खर्च भी बचा गई।
हो सकता है कई पाठक मुझसे सहमत न हों। यह मानें कि कायर थी आरती। संघर्ष नहीं कर पाई। साहस के साथ जीना ही जिंदगी है। आत्महत्या करना अपराध है। शोषण के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। मौत को गले लगाना जिंदगी का अपमान है। आदि आदि...।
तो आपके आस-पास कई आरतियां हैं, जिनका दुपट्टा फांसी का फंदा नहीं बना है। जो जख्म लगा रही हैं अपने घावों को। जो सहला रही हैं अपनी नन्ही-सी जान को। जो आरतियां जिंदगी को सीने से लगाए हैं, क्या उनकी सिसकी सुन पा रहे हैं आप?