खोज या आविष्कार

जीवन के रंगमंच से

शैफाली शर्मा
ND
मन भटकता है किसी की तलाश में, कुछ मुलाकातें होती हैं, कुछ पसंद उत्पन्न होती हैं, फिर अपेक्षाएँ, कुछ सीमाएँ, कुछ असीमित इच्छाएँ, छोटी-छोटी बातों पर बहस, बिना किसी बात पर मौन, दूरियाँ नापती हुई शिकायतें, लौट आने की जद्दोजहद, फिर मन की भटकन और सुकून की तलाश........

मैंने युवाओं को अकसर इसी परिपाटी पर घूमते हुए देखा है। हिन्दी फिल्मों की तरह एक जैसी कहानियाँ और एक जैसे रिश्तों में कुछ ‘यूनि क ’ ढूँढ़ने की चाहत।

हम क्यों किसी को तलाशते रहते हैं, क्यों करते हैं रिश्तों की खोज। जैसे रिश्तों के मापदण्ड तय करके किसी ने उसे निश्चित स्वरूप में ढाल दिया हो और समय की परतों में कहीं वो दब गए हों। हम कुरेदते हैं अहसासों की जमीन को, खोदते हैं इच्छाओं के गड्ढे कि कहीं कोई सुराग मिल जाए, जो साबित कर दे कि हाँ इस तरह के रिश्ते भी हुआ करते थे, और मुझे ऐसे ही एक रिश्ते की खोज थी।
  मन भटकता है किसी की तलाश में, कुछ मुलाकातें होती हैं, कुछ पसंद उत्पन्न होती हैं, फिर अपेक्षाएँ, कुछ सीमाएँ, कुछ असीमित इच्छाएँ, छोटी-छोटी बातों पर बहस, बिना किसी बात पर मौन, दूरियाँ नापती हुई शिकायतें, लौट आने की जद्दोजहद, फिर मन की भटकन और सुकून।      
फिर प्राप्त रिश्तों के अवशेषों से अतीत की मिट्टी हटाकर उसे जीवन के अजायबघर में सजा देते हैं। देखो इस रिश्ते की खोज मैंने की है। हजारों साल पहले हमारे पूर्वजों के बीच भी ऐसे ही रिश्ते हुआ करते थे।

अरे, अब तो फिल्मों की कहानियों में भी प्रयोग होने लगे हैं। कोई पुरानी फिल्मों की कहानी पर नई फिल्में बना रहा है, तो कोई दस कहानियों को एक साथ एक ही फिल्म में प्रस्तुत कर रहा है, कभी कोई लीक से हटकर, कभी आम जीवन पर। हमारी फिल्म इंडस्ट्री हर तरह के आविष्कार कर रही है, सिर्फ एक फॉर्मूले की तलाश में, जिससे फिल्म हिट हो जाए।

हम क्यों नहीं रिश्तों की खोज करने के बजाय आविष्कार करते? एक ऐसा आविष्कार, जो सारे रिश्तों पर फिट बैठे और सारे रिश्ते हिट हो जाएँ। हम दोस्त बनाते हैं, प्यार करते हैं, शादी करते हैं, और इन सब प्रक्रियाओं में हमारा उद्देश्य केवल एक ही होता है- एक ऐसे रिश्ते की खोज जो हर रिश्ते की पूर्ति करे। इस खोज के बजाय क्यों न हम आविष्कार करें, एक ऐसा आविष्कार जो आज तक न हुआ हो, जिसका फॉर्मूला किसी ने नहीं बनाया हो। अपने-अपने जीवन में जितने भी रिश्ते हैं, उन रिश्तों को छोड़कर नया रिश्ता खोजने के बजाय, उन्हीं रिश्तों पर प्रेम का नया फॉर्मूला ईजाद करें।

मैंने अकसर लोगों को रिश्तों में उलझते हुए, अपेक्षाओं के कटघरे में खड़े होकर सहानुभूति का केस लड़ते हुए देखा है। केस जीत गए तो खुश, न जीत सके तो अपने आसपास एक सहानुभूति का घेरा बनाकर घूमने लगते हैं, इसे ‘सिम्पथी ज़ो न ’ कहना ज्यादा अच्छा रहेगा। इसमें दया का प्रतिशत थोड़ा कम होता है, क्योंकि हम सहानुभूति तो चाहते हैं, दया नहीं।

मैंने लोगों को अकसर यह कहते सुना है- ‘मेरे पास प्रेम नहीं, दोस्त नहीं, कोई ऐसा रिश्ता नहीं जो मेरी भटकन खत्म कर सके...’ फिर ‘सिम्पथी ज़ो न ’ का आखिरी हथियार- ‘मुझे तलाश है एक ऐसे रिश्ते की जो मेरी भटकन को अंजाम द े ’।

हम क्यों नहीं कहते मैं आविष्कार करना चाहता हूँ, एक ऐसे फॉर्मूले का, जिससे मेरे जीवन में जितने रिश्ते हैं, वो हिट हो जाएँ।

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