आप आए तो खयाले दिले नाशाद आया

राष्ट्रपति के इंदौर आगमन पर....

Webdunia
आदित्य

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आप आए, अच्छा लगा। देश का प्रथम नागरिक आए तो अच्छा लगना ही चाहिए। फिर आप बच्चों को उपाधि देने आए तो इससे भी खुशी ही हुई। लेकिन कई कारण हैं, जो सोचने पर मजबूर करते हैं कि आप नहीं आते तो ज्यादा अच्‍छा होता। मैं तो आपके सामने पूरी तस्वीर रख देता हूं ता‍कि अगली बार आने या न आने का फैसला करने में आपके सामने सारे फैक्टर मौजूद रहें।

आपको पता भी नहीं चला कि आपके आने से यूनिवर्सिटी में पिछले तीन महीनों से कोई दूसरा काम नहीं हो सका है। कैंपस की हरियाली खत्म करना हो या मरम्मत वगैरह सभी आपके नाम पर ही हुए।

लेकिन किसी स्टूडेंट से पूछ लीजिए कि क्या यूनिवर्सिटी में उसका काम हो सका, तो जवाब 'ना' में ही मिलेगा। जिला प्रशासन और निगम ही नहीं, पुलिस और यातायात संभालने वाला अमला भी इसी कवायद में रहा ‍कि आपका दौरा निपटे और अपना रोजमर्रा का काम करें।

आपका दौरा कलेक्टर, आयुक्त, महापौर और इनके तमाम अमले के लिए इतना जिम्मेदारी वाला काम था कि इन्हें सपने भी आपके आने और वापस जाने के ही आ रहे थे। यूनिवर्सिटी में चल रही कवायदें तो फोटो सहित छपती ही रहीं कि जब तक आप नहीं आए तो डमी महामहिम के साथ कितने स्तरों पर रिहर्सल की गई।

जबसे आपका आना तय हुआ, तब से कितना और किस स्तर का खर्च हुआ, इसका हिसाब लगाने में भी एक साल का समय लग जाएगा। और यदि यह हिसाब लगाया जाने लगे कि कितना काम पर खर्च हुआ और कितना जेबों में पहुंच गया तो हिसाब में तीन साल भी लग सकते हैं।

यह उस इंदौर की कहानी है, जहां चेंबर का ढक्कन लगाने या रोड पर पैबंद लगाने तक में बजट की कमी की दुहाई दी जाती है। आप जिन राहों से गुजरे, वहां पर हटाने के बावजूद कुछ गुमटियां जमी हुई नजर आई होंगी। ये उन नेताओं के गुर्गों की हैं जिनके सामने आपका आना भी बौना मामला है। आपके आने पर खर्च लाखों में नहीं, करोड़ों में पहुंचा है और यदि आप नहीं आते तो गलती से यह पैसा सही जगह भी लग सकता था।

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हो सकता है कि आपको भी इन सारी बातों के चलते लगे कि कोई रास्ता निकाला जाए ताकि न हरियाली की जान पर बन आए न सौ-पचास करोड़ यूं ही बह जाएं। आप आए तो इंदौरियों का घर से निकलना और सही समय सही जगह पहुंचना मुहाल हो गया, क्योंकि रिहर्सल ने सड़क कहीं जाने वाली पगडंडियां रोक रखी थीं।

आप बेशक बच्चों को उपाधि दें लेकिन क्या यह काम आपके विशालकाल सरकारी भवन में नहीं हो सकता था। बाहर के किसी गार्डन में या आपके एकाध किसी हॉल में इन बच्चों को यदि आप विशेष विमान से भी बुला लेते तो खर्च सौ गुना कम होता और आने वाली जेनरेशन को आपके राजप्रासाद देखने को मिल जाते।

माना कि राजसी सोच-विचार के बीच ऐसे तर्क बेहद गरीब सोच को उजागर करते हैं, लेकिन यकीन मानिए इंदौर गरीब ही है। हम इसे प्यार से 'मिनी मुंबई' कह लेते हैं, लेकिन आप इसे हकीकत न मान लें। बहुत अच्छा लगा कि आप आए लेकिन गुजारिश यही है कि अगली बार आप यहां से बच्चों को बुला लें ता‍कि यहां की जिंदगी आपके आने से सिमट न जाए।

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