ईश्वर बड़ा विलक्षण है

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- भारतेंदु हरिश्चंद् र

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भला यह संसार बनाने का क्या काम थ ा? व्यर्थ इतने उल्लू एक संग पिंजड़े में बन्द कर दिए। किसी को दुःखी बनाया किसी को सुख ी, किसी को राजा बनाया किसी को फकीर। इसी से मैं कहता हूँ कि ईश्वर बड़ा विलक्षण है ।

सब उसमें लय रहता ह ै, किसी के कुछ दुःख-सुख का अनुभव नहीं होता ह ै, वह केवल परम आनंदमय अपने में रहता ह ै, इसी से....

कोई इसको हाँ कहता है कोई नही ं, कोई मिला कोई अल ग, कोई एक कोई अनेक तो उसको अपने माहात्म्य की दुर्दशा क्यों करानी थ ी, इसी से...

उसको सर्व सामर्थ्यवान सुनकर भी लोग सर्वदा उसको नहीं मानते। पर हा ँ, जब कुछ दुःख पड़ता है, तब स्मरण करते हैं। जब लोगों का कुछ बनता है तो धन्यवाद तो थोड़े लोग देते हैं। पर जो कुछ काम बिगड़ता है तो गाली सभी देते हैं। पानी न बरसे त ो, घर का कोई मर जाए त ो, रोग फैले त ो, हार जाएँ तो सब प्रकार से यह गाली सुनता ह ै, इसी से....
  भला यह संसार बनाने का क्या काम था? व्यर्थ इतने उल्लू एक संग पिंजड़े में बन्द कर दिए। किसी को दुःखी बनाया किसी को सुखी, किसी को राजा बनाया किसी को फकीर। इसी से मैं कहता हूँ कि ईश्वर बड़ा विलक्षण है।      


अनेक प्रकार के जी व, विचित्र स्वभा व, अलग अलग धर्म और रूच ि, विचित्र रंग काम-क्रोध-म द, ईर्ष्य ा, अभिमा न, दम् भ, पैशुन् य, आमृत्य इत्यादि अनेक प्रकार के स्वभाव बनाकर लम्बा-चौड़ा गोरखधंधों का जाल फैलाकर इस घनचक्कर में सब को घुमा दिया ह ै, इसी से...

एक बिचारा सुख से अपना काल क्षेप करता है कुछ उसके काम में विध्न डालकर व्यर्थ बिना बात बैठे-बिठाए उसको रुला दिया। कोई दुःख में है उसको एक संग सुख दे दिय ा, इसी से...

एक को घटाया एक को बढ़ाय ा, एक को बनाया एक को बिगाड़ ा, राई को पर्वत किय ा, पर्वत को रा ई, राजा को रंक किया रंक को राज ा, भरी ढलकाया खाली भर ा, इसी से....

उदार और पंडि त, दरिद् र, मूर् ख, धनवा न, और सुंदर रसिक को कुरूप ा, कूढ़ स्त्र ी, कुरसिक को सुंदर वा रसिक स्त्र ी, सुस्वामी को कुसेव क, सुसेवक को कुस्वामी इत्यादि संसार में कई बातें बेजोड़ है ं, इसी से....

प्रत्यक्ष लोग देखते हैं कि हमारे बाप दादा इत्यादि मर गए और नित्य लोग मरते जाते हैं तब भी लोग जीते हैं। सोचते हैं कि संसार का पट्टा मैंने लिखवा लिया है। पहिले तो में मरूंगा ही नही ं, और मरा भी तो सब मेरे साथ जाएग ा, इसी से...

सच है मनुष्य यह कैसे सोचे यह हम बैठे है ं, खाते-पीते है ं, चैन करते हैं कभी सोचते नहीं कि हमारी दशांतर भी होगी । हम कैसे मरेंगे कदापि नहीं आता। इसी से....

मजा ह ै, तमाशा ह ै, खेल ह ै, धूम ह ै, दिल्लगी ह ै, मसखरापन ह ै, लुच्चापन ह ै, हँसी ह ै, मूर्खता ह ै, खिलौने है ं, बालक है ं, पट्ठे है ं, नासमझ है ं, जड़ है ं, जीव हैं... मोहित है ं, उल्लू के पट्ठे है ं, सब हैं परंतु उसके समझ में और उसके लोगों की समझ में भेद हैं। इसी से....

उसके नाते परस्पर सब केवल सगे भाई बहन हैं। पर लोग जाति-कुजाति-वर्ण-आश्र म, नीच-ऊं च, राजा-प्रज ा, स्त्री-पुत्र इत्यादि अनेक भेद समझते हैं। इसी से....

यह उसी का विलक्षणपन है कि हिंदुओं को सब के पहिले उसने लक्ष्मी और सरस्वती दी और चिरकाल तक उनको इस देश में स्थित किया। परंतु अब वह हिंदू दासधर्म शिक्षित हो रहे हैं। इसी से...

यह उसी का विलक्षणपन है कि जिस भूमि में उदय न, शूद्र क, विक्र म, भोज ऐसे राजा कालिदा स, वाण से पंडित दि ए, उसी भूमि में हमारे-तुम्हारे से लोग हैं। यह उसी का विलक्षणपन है कि मुसलमानों ने हिंदुस्तान को बहुत दिन तक भोगा अब अँग्रेज भोगते है ं, मुसलमानों को अपनों का पक्षपात ह ै, अँग्रेजों को अपने क ा, हिन्दू दोनों की समझ में मूर्ख हैं। इसी से....

यह उसी का विलक्षणपन है कि हिंदू निर्लज्ज हो गए हैं। ऐसे समय में जब कि आगे बढ़ा चाहते हैं वे चूकते हैं और पीछे ही रहे जाते हैं। विशेष सब संसार का आलस्य पश्चिमोत्तर देशवासियों में घुसा है और अपने को भूल रहे है ं, क्षुद्र पना नहीं छूटत ा, इसी से...

यह उसी का विलक्षणपन् है कि हम लोग समाचार पत्र लिखते हैं और यह अभिमान करते हैं कि हमारे इन लेखों से हमारे भाइयों का कुछ उपकार होगा। भल ा, नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुनता ह ै, सब अपने रंग में उसकी माया से मस्त हैं। उनको क्यों नहीं छोड़ते है ं, क्यों नहीं विराग करत े, संसार मिटे हमको क्या! हम कौन जो कहे ं, पर यह नहीं समझत े, हम अपने ही अभियान में चूर हैं यह भी सब उसी की माया है। इसी से हम कहते हैं कि ईश्वर बड़ा विलक्षण है।

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