अब साल-दो साल में उनसे धोखा न खाएं तो हम कूटनीति-विदेश नीति की उपलब्धि क्या गिना पाएंगे? कुछ उपलब्धि पाने के लिए समस्याएं तो चाहिए ना! रोज-रोज सीमा की या सीमापार की खबरें न हों तो मीडिया क्या छापेगा? सीमा पर झड़पें न हों तो सैन्य-दस्तों और युद्ध के साजो-सामान को जंग लग जाएगी। जंग न लगे इसीलिए जंग लड़ना जरूरी है।
जंग न लड़ना हो तो जंग का अभ्यास शांतिकाल में भी करते रहना चाहिए। यह आदिकाल से चाणक्य की नीति रही है। छुट-पुट झड़पों और सीमा पर झड़पों से अभ्यास होता रहता है। अभ्यास से हमारी शिथिलता का ह्रास और समझ-बूझ का विकास होता रहता है।
तब भी हमारा समझ-बूझ से रिश्ता कम है। गरीब देश है। बादाम खाने-खर्चे का बोझ सहन नहीं कर सकते। जो पैसा देश का है वह नित्य प्रति के घोटालों में खर्च हो जाता है। नेताओं की फौज और उसके मेवों की मौज का मर्ज हमारे देश पर कर्ज बढ़ाता है, तो हमारा फर्ज बनता है कि हम बादाम खाकर अक्ल बढ़ाने से ज्यादा अक्ल पाने के लिए धोखा खाएं।
बार-बार धोखा खाएं। अड़ोसी-पड़ोसी सबसे धोखा खाएं। चीन, पाकिस्तान ही क्यों, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल सभी से धोखे पर धोखा खाएं, आखिर अक्ल कभी तो आएगी। बुराई भी क्या है- कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। वस्तु-विनिमय का सिद्धांत यहां भी लागू होता है। इस हाथ ले- उस हाथ दे।
हम संयुक्त राष्ट्र महासभा की स्थायी समिति के सदस्य के साथ वीटो पावर देश बनना चाहते हैं। हमारे सैन्य बल सीमाओं पर मजबूती से तैनात हैं। मगर यह हमारा पड़ोसी धर्म है कि कभी एक पड़ोसी देश का सेनाध्यक्ष हमारी सीमाओं में चुपचाप चोर की तरह बेखौफ 10-20 किमी अंदर तक घूमकर चला जाता है, तो कभी दूसरा पड़ोसी 10-12 किलोमीटर अंदर आकर पिकनिक मनाने टेंट लगाकर 35-40 सिपाहियों के सैन्य बल के साथ डट जाता है।
हम अपनी ही सीमा में इस घुसपैठ को सीमा रेखा की गलतफहमी करार देते हैं। फ्लैग दिखाकर लौट आते हैं। फ्लैग मीटिंग में हमारा पड़ोसी कोई सकारात्मक पहल नहीं करता। हम बार-बार समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। हमारे विदेश मंत्री पड़ोसी देश के राष्ट्रपति को भारत यात्रा का निमंत्रण देने के बहाने बातचीत करने जा रहे हैं। समझाने या समझौता करने जा रहे हैं। तब तक 35-40 सिपाही हमारी धरती पर खाना खाकर पाखाना करते फिरेंगे, नाड़ा कसते रहेंगे। हमारे देश और संस्कृति का सूत्र वाक्य है- 'चरैवेति-चरैवेति'।
हमारी पीढ़ी इसका यही अर्थ समझती है कि 'चरते रहो, चरते रहो'। सारा देश चरागाह है। 'चरते रहो, चरते रहो'; नेताओं चरो, अभिनेताओं चरो, नायकों चरो, खलनायकों चरो। जब तुम सबके पेट भर जाएं (जो कभी नहीं भरने वाले) तो आस-पड़ोस को निमंत्रित करो- चरने के लिए, हाथ जोड़कर पलक पावड़े बिछाते रहो, आमंत्रण दो 'पधारो म्हारे देश रे'। 'अतिथि देवो भव:' की हमारी उदात्त परंपरा है।
इनकी अर्थव्यवस्था को टेका लगाना पड़ जाए तो हम अपनी अनर्थव्यवस्था को इन्हें सौंपकर और अनर्थ करवा लेंगे। जब यूरोपीय देशों से ठगाकर भी हम मुस्कुराते रहते हैं तो पड़ोसी के धोखा देने से हमारी चार इंची मुस्कान कहां तीन इंची रह जाने वाली है?
हम नतमस्तक हैं, हमारे कर्णधारों के प्रति नतमस्तक हैं। खतरा आसन्न है, स्पष्ट दस्तक है, पर हम नतमस्तक हैं। हमारी शांतिप्रियता की इससे बढ़कर मिसाल क्या हो सकती है। आप हमें लूटकर ले जाइए, हमारे पास तब भी 'क्षमा' की शक्ति है। 'क्षमा वीरस्य भूषणम्'। हम वीर हैं, हमारे पास क्षमा का आभूषण है।
हम दयालु हैं, राष्ट्रपिता के आदर्श हमारे पास हैं। कोई एक तमाचा मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो। यही हमारी नीति है, कूटनीति है; उम्मीद है, कभी चल जाए और हमारे पड़ोसी धोखा देने से बाज आएं। बहरहाल, हम बौनों के आगे और बौने हो गए हैं, साष्टांग दंडवत् हैं। यही हमारी रीति-नीति है, सफल हो गए तो विशेष विदेश-नीति कम कूटनीति है।
अनीति से नीति भली कूटनीति से कटवाओ नीति रीति-नीति देश में चले नहीं बन जाए विदेश नीति। समाप्त