डेंगू : तीन लघु व्यंग्य

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डॉ. एसके त्यागी
आवारा मसीहा
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मारो...मारो...देखना, बच न पाएँ। अरे किधर गया? वो रहा! मारो, मारो, इससे पहले कि वो हमें मारे, सब मिलकर खत्म कर दो इसे ही।'

' अरे अहमकों, क्या अनर्थ कर रहे हो? लगता है डर ने तुम्हारी बुद्धि ही हर ली है। जानते नहीं डेंगू का मच्छर दिन में काटता है?'

' जानते हैं, पर तुम्हें कैसे पता कि यह रातों में घूमने वाला आवारा किस्म का एडीज मच्छर ही तो नहीं। चौतरफा चटाक...चटाक...की आवाजों के बाद सन्नाटे में लगा कि भय से उपजे सामूहिक उन्माद ने कहीं एक बेगुनाह की बलि तो नहीं ले ली है।

' डेंगू' का फैलाव
प्रजाति के सभी मच्छरों में एक विचित्र-सी लत थी। डँसने के बाद शिला पर निशान खींचकर शिकार के खून के कुछ कतरे वे बतौर ट्रॉफी अपने पास रख लेते थे। एक पिद्दी-सा मच्छर जिसका डंक अभी ठीक से निकला ही नहीं था, सबसे कहता फिरता कि वह बड़ा तीरमारखाँ है। उसकी शिला कभी की लाल रंग में नहा चुकी है...यह भी कि अब उसे एक कोरी शिला की तलाश है। अक्सर बाकी मच्छर उस पर हँसते और उसे 'डींगू' कहकर चिढ़ाते। एक रोज यह बात वहाँ से गुजरते किसी आदमी के कान में पड़ी। वह ठहरा आदमी, बित्ते भर के उस मच्छर के लिए प्रयुक्त विशेषण को जातिवाचक संज्ञा बनाकर उसे 'डेंगू' नाम से दुनिया भर में मशहूर कर दिया।

' तू ही जीता, बेटा'
ND
हमेशा की तरह उन दोनों में एक दिन फिर ठन गई। 'तबाही का कौन-सा साजो सामान नहीं है मेरे पास? मिसाइल है, रॉकेट है, परमाणु बम है। बता तेरे पास ऐसा क्या है?'

वह बोला, 'बेटा, मेरे पास मच्छर है!'

अब बेटे की बोलती बंद। सिर शर्म के मारे झुक गया। 'ना बेटा, जी छोटा नहीं करते। इन्हें पालने-पोसने का बंदोबस्त तो तू ही करता है। पनाह तो तू ही देता है। इसलिए तू ही जीता बेटा, मैं हारी।'

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