दफ्तर जाने के लिए

व्यंग्य

Webdunia
पूरन सरमा
दफ्तर जाने के लिए मुझे बहुत सी तैयारियाँ करनी पड़ती हैं। दफ्तर जाने का मतलब यह तो है नहीं कि साबुन से नहाओ भी मत या रोजाना शेव मत बनाओ। दफ्तर में मेरे कई साथी हैं। वे इसे वेस्टेज मानते हैं। उनका तर्क यह है कि दफ्तर कोई निजी कार्य या सगे संबंधी का काम तो है नहीं जो रोज एक रुपया का ब्लेड खराब करो, साबुन खराब करो, चेहरे को चमकाने के लिए क्रीम लगाओ, बाल काले करो अथवा मूँछों की करीने से कटाई-छँटाई करो ।

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जबकि मेरा मानना है कि दफ्तर से वेतन मिलता है, घर चलता है और वहाँ महिलाएँ काम करती हैं इसलिए थोड़ा शऊर से ही जाना चाहिए। मेरे साथी कहते हैं, 'भाई शर्मा, क्या तुम्हें कोई एक्स्ट्रा इन्क्रीमेंट मिलेगा जो इतना सज-धज कर आते हो। क्यों बेकार में धन और समय का अपव्यय करते हो।'

मैं कहता हूँ, 'यारो, क्या सीधे बिस्तर से निकल कर कुर्सी पर आ बैठते हो। कभी मिसेज मलकानी के बारे में भी सोचा है, जो आप लोगों से बात करना तो दूर, पल भर को नजर भरकर भी देखती तक नहीं। एक मैं हूँ जिससे वह घंटों हँस-हँसकर बतियाती हैं।'

' ओह तो शर्मा यह सब मिसेज मलकानी के लिए कर रहे हो। भाभी जी को पता चल गया न तो वे तुम्हारी यह सारी सजावट को तेल लेने भेज देंगी। घर में माथाफोड़ी करते हो और दफ्तर में मिसेज मलकानी को अपनी बत्तीसी दिखाते हो। हम मलेच्छों को देखो जो पाँच पैसे अपने ऊपर इस दफ्तर के लिए खर्च नहीं करते और शाम को रिश्वत के तीन सौ रुपए और मार ले जाते हैं। पैसा हो तो भैया हर समस्या का समाधान है' एक साथी बोला।

मैंने कहा, 'ईमान, धर्म और सिद्धांत भी तो जीवन में कोई मायने रखते हैं। साफ-सुथरे ढंग और सलीके से दफ्तर आना मैं गलत नहीं मानता। किसी का काम न करना और करना तो रिश्वत खाकर, यह मेरी समझ से परे है।'

दूसरा साथी बोला, 'पहले तो अपने पर जो शऊर से आने का जो इन्वेस्टमेंट कर रहे हो, उसे बंद करो ताकि हजार- दो हजार की यह बदखर्ची तो बचे। रही बात मलकानी की तो भैया उसे कैंटीन में डोसा तुम्हीं खिलाते हो, वह तो कभी पेमेंट नहीं करती। उम्रदराज हो गए, चेहरा सारी असलियत बता रहा है तो क्यों यथार्थ से कतराते हो?'

' इसका मतलब दफ्तर जाने के लिए मैं दाढ़ी से भरा चेहरा, रूखे बाल और टाटंबरी कोट पहनकर आऊँ। पाँवों में हवाई चप्पल और छकड़ा साइकिल लेकर मैं दफ्तर जाऊँ। तुम कहना क्या चाहते हो?' मैंने कहा तो वर्मा जी ने अपनी पूरी बत्तीसी निकाली और कहा, 'अच्छा भैया, पत्थर से दिल लगाया और दिल पर चोट खाई।

नहीं समझो तो मत समझो लेकिन अपना फलसफा रखो अपने पास। हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। कभी ब्याज पर रुपया उधार लेना हो तो संकोच मत करना। बता देना, हमारे पास कालाधन बहुत है। हम तो सिर्फ इतना सा समझा रहे थे कि भाई दफ्तर में तो कैसे भी यानी हमारी तरह आ जाओ। बाकी सोसाइटी में दिखाओ जो भी जलवे दिखाने हैं।'

इतना कहकर वे सब चले गए लेकिन मुझे विचार विमग्न कर गए।

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