उन दिनों राज्य परिवहन निगम मोनोपाली में चलता था, अच्छी बसें, अच्छा मुनाफा। फिर इस मोनोपाली को कतिपय सत्ताधारियों की नजर लगी। मोनो उतर गया, पाली और पाले बदल गए; निजता में बात हुई और निजी बसें सड़कों पर आ गईं। जनता को भाए, न भाए, मालिकों को भा गई; ग्रामीण रूट पर चलते-चलते सारे प्रांत और अंतरप्रांत तक छा गईं। लाल बसें पहले नीली हुईं, फिर विज्ञापनों से पटकर पीली हो गईं।
राज्य परिवहन का बिरवा सूख गया; वटवृक्ष था अब नामोनिशान भी गिद्ध नोंचने में लगे हैं। जब भी गली-मोहल्लों की देवियों के बीच देवी-चर्चा में वट-सावित्री कथा व्रत की बात सुनता हूं तो राज्य परिवहन की इति-कथा याद हो आती है। मुंह से कंडक्टर की सीटी बजने लगती है, मगर थूक आ जाने से सीटी का भी दम घुटकर रह जाता है।
लगता है, विज्ञापन ऐसे ही किसी कमाल की ओर इशारा कर रहा है। 'मीलों हम आ गए, मीलों हमें जाना है' छपा नहीं है, पर अदृश्य पंक्तियां नजर आती हैं- 'लंबा सफर तय कर, राज्य परिवहन हो जाना है। आज की पीढ़ी राज्य परिवहन के मायने सिर्फ खटारा-अटाला बसों से समझती है। उसे क्या मालूम कि उनके बाप-दादों, मम्मी-नानियों-बुआओं-चाचाओं ने राज्य परिवहन की बसों में गद्दीदार सीटों का कैसे आनंद लिया है।
नई-नकौरी रेग्जीन की सीटों को फाड़कर उसके स्पंज को निकालना और पट्टी पोंछे के काम में लेना साहबजादों का शगल था; 'मेरी पट्टी सुख-दुख' का आनंद और स्लेट-पेंसिल का इससे बेहतरीन खेल बिना मरे स्वर्गीय होने का सुख देता था। इसी आनंद ने परिवहन की स्लेट पट्टी को सुखा दिया। स्लेट पर लिखी इबारत अदृश्य है, पर स्पष्ट दिखाई देने लगी है; देश को स्लेट पट्टी बना दिया गया है। घोटालों- महाघोटालों के स्पंज से पोंछ-पोंछकर पट्टी सुखाई जा रही है- मेरी पट्टी सूख-सूख।
महंगाई से मार-मारकर अधमरी जनता को दूध-मलाई दिखाई जा रही है। पहले गैस सिलेंडर महंगा करो फिर खाते में सबसिडी दो। आधार कार्ड के अरबों के फेल खेल को प्रचारित करने के लिए खातों से जोड़कर सबसिडी का नया खेल शुरू किया गया है। पहले गलत निर्णय ले-लेकर शकर-तेल-जींसों को निर्यात करो फिर कारोबारी-राजनेता गठजोड़ खून चूस ले तब निर्यात प्रतिबंध लगाओ; घाव भी करो और फिर उस पर नमक का तेजाब लगाओ, फिर बताओ विकास और राष्ट्रीय निर्माण के वर्ष।
लाल पट्टी पर, पीले स्वर्णाक्षरों के ये विज्ञापन लोगों को लाल-पीला कर रहे हैं। लाल पट्टी या तो चूसे गए खून की गवाही देता है या इन वर्षों में बढ़ते नक्सलवाद को दर्शाता है। हर हालत में जनता के खून का प्रतिनिधित्व, ऊपर से सर्वोच्च माता एवं राष्ट्र प्रधान का खिलखिलाता चेहरा लगता है प्रजातंत्र की मजबूरियों पर अट्टहास है। प्रतिपक्ष के पूरी उम्र जी लिए, अड़ वाले नेता अभी भी प्रधानमंत्री छाप सूरमा आंखों में आंज रहे हैं, उगते सूरज के खिलाफ लांठी भांज रहे हैं। जनता निर्मोही ममता को कब तक देखे, जया की कब तक जय-जयकार करे, सत्ता कब तक माया की मोहिनी में बंधी रहे, करुणा का क्रंदन सुना करे, मुलायमगिरी' से देश नहीं चला करते, इस देश को लाल झंडे नहीं, केसरिया का अहिंसक बाना चाहिए। अब तो प्रजातंत्र को, जनता को, हक है एक नया सूर्य धरा पर आना चाहिए।
सत्ता यह समझती है कि निरीह जनता अंधी है और राष्ट्र धृतराष्ट्रों के नाम है। मगर वह यह भूल जाती है कि जनता अंधी नहीं, आंधी है। वह वास्तव में गांधी है, जो देखती नहीं, बोलती नहीं, सुनती नहीं, पर जब करती है, तो अच्छी-अच्छी सरकारों की ऐसी की तैसी कर देती है।
सत्ताधारी धृतराष्ट्र धराशायी हो जाते हैं और स्वार्थी सारथी संजय की अर्थी निकल जाती है। भारत में महाभारत होगा, इंतजार कीजिए... तब तक नाश से सवा सत्यानाश होने का मजा लीजिए।
मीलों हम आ गए मीलों हमें जाना है, तू तो चलाचल वोटर ना पता है ना ठिकाना है. सत्ता उत्तर की ऊंची दक्षिण हमको जाना है; घोटालों के सपने सच हुए, कुछ आगे करके दिखाना है। उपलब्धि है महंगाई की सिलेंडर सबसिडी पाना है; चीनी कम या अंकल सॅम पाक से रिश्ते निभाना है। राम-राम भजते रहें रावण-लंका कहां जल जाना है; जन-शिव हलाहल हाथों में अमृत समझ पी जाना है। मानो तुम या ना मानो फरमान यही मनवाना है; सत्ता द्रौपदी किसे सौंपेंगे धृतराष्ट्र को आदर्श सभी ने माना है।