मिश्राजी साहित्य के प्रधान सेवक हैं। साहित्य सेवा का यह बीड़ा उन्होंने 55 किलोग्राम श्रेणी में ही उठा लिया था, जब वे युवावस्था की दहलीज पर एक पैर पर खड़े थे। मिश्राजी ने यह जिम्मेदारी साहित्य के बिना कहे ही अपने कंधों और शरीर के हर अंग पर ले रखी है। साहित्यिक चौकीदारी का यह पद मिश्राजी बिना किसी पारिश्रमिक के श्रमिक की तरह कब्जाए हुए हैं।
साहित्य के इतिहासकार, साहित्यिक चौकीदारी की सूनी मांग और सूनी गोद भरने का श्रेय मिश्राजी को ही देते हैं। मिश्राजी बचपन से ही सफल और धनी साहित्यकार बनना चाहते थे लेकिन किस्मत और प्रतिभा दोनों ने साझा सरकार बनाकर मिश्राजी को धोखा दिया और मिश्राजी के साहित्यकार बनने के सपने पर केंट आरो का पानी फेर दिया। विडंबना रही कि किस्मत और प्रतिभा की यह साझा बेईमानी भी मिश्राजी को अपनी साहित्यिक डुगडुगी बजाने से नहीं रोक सकी।
शुरुआत में साहित्य बहुत ही आशाभरी निगाहों से मिश्राजी की ओर निहार रहा था लेकिन अब मिश्राजी की हेराफेरी से हारकर उसने अपनी आंखें फेर ली हैं। साहित्य और साहित्यकारों पर मिश्राजी का प्रकोप मौसमी बीमारियों की तरह बेवफा नहीं होता है बल्कि 'लवेरिया' की तरह सदाबहार होता है।
साहित्य की चौकीदारी करने के कर्म का मर्म अच्छी तरह से मिश्राजी को कंठस्थ है और वे अक्सर उसी में ध्यानस्थ रहते हैं। कविता, व्यंग्य, गीत, गजल, कहानी आदि साहित्यिक विधाओं पर मिश्राजी दयालु और निरपेक्ष भाव से अपनी वक्रदृष्टि का वज्रपात बारी-बारी से नियमित रूप से करते हैं। मिश्राजी मन में सोचते हैं कि उनकी वक्रदृष्टि, सुदर्शन चक्र बनकर खुद का समय और रचनाकारों के साहित्यिक पाप अच्छे से काट रही है।
किसी भी साहित्यिक विधा से मिश्राजी कोई इरादतन भेदभाव नहीं बरतते हैं। वे 'सबका साथ, सबका विकास' की तर्ज पर सभी रचनाओं के रचनाकारों के मुखमंडल पर साहित्य को कलंकित और दूषित करने का आरोप मलकर हल्के होते हैं। किसी भी विधा का लेखक अपने को लेखक मानने की भूल नहीं कर सकता, जब तक कि मिश्राजी उसे लेखक मानने की भूल न कर दे। 'कवि, व्यंग्यकार, कथाकार चाहे सब पर हो भारी/ है सब मिश्रा ताड़ना के अधिकारी।' साहित्य के क्षेत्र में मिश्राजी पहले अपेक्षा के शिकार हुए, फिर उपेक्षा के शिकार हुए लेकिन फिर भी मिश्राजी ने अपने शिकार करना नहीं छोड़ा।
साहित्य के क्षेत्र में नवागंतुकों की रचनाओं को मिश्राजी की विशेष कुदृष्टि का लाभ मिलता है। नवागंतुकों की रचनाओं को मिश्राजी को पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ती है। वे उन्हें सूंघकर ही रिजेक्ट कर देते हैं। किसी नए रचनाकार की रचना अगर कपितय कारणों से मिश्राजी का कोपभाजन का शिकार होने से रह जाए तो यह रचनाकार के लिए बड़ा साहित्यिक अपशगुन माना जाता है।
किसी भी साहित्यपिपासु के लिए अपनी रचनाओं पर मिश्राजी की लानत के हस्ताक्षर होना अच्छी 'साहित्यिक बोहनी' माना जाता है। अगर रचनाकार ज्यादा लक्की हो तो उन्हें बिना मांगे ही मिश्राजी की लानत हाथ लग जाती है जिसे वे जीवनभर पैरों में आने से बचाकर उसका सम्मान करते हैं। साहित्य की सीमारेखा भले ही किसी बिंदु पर जाकर समाप्त हो जाती हो लेकिन साहित्य के भीतर मिश्राजी किसी सीमा या रेखा के मोहताज नहीं हैं। सभी रचनाओं तक उनकी वैध-अवैध पहुंच है, जो कि मिश्राजी को बिना कटघरे में रखे उनके साहित्य प्रेम की गवाही देता है।
मिश्राजी कभी-कभी समय और कलम निकालकर खुद भी लिख लेते हैं। वे सतर्क लेखक हैं। लिखते वक्त ही नहीं बल्कि लिखने के बाद भी उनकी सतर्कता अपने पूरे 'तांडवात्मक शबाब' पर रहती है जिसे नियंत्रित करने के लिए कभी-कभी उनके शुभचिंतकों को आपातकालीन परिस्थितियों में भरे गले और खाली दिमाग से साहित्यिक देवी-देवताओं का आह्वान भी करना पड़ता है। लिखने के बाद मिश्राजी की एक आंख लाइक की संख्या पर तो दूसरी मोबाइल की बैटरी परसेंटेज पर रहती है। मिश्राजी स्वभाव से अच्छे बंदे हैं लेकिन साहित्यिक सतर्कता ने उनकी साहित्यिक चेतना को जबरन बंदी बना रखा है।
केवल लेखक ही नहीं, बल्कि एक पाठक के तौर पर भी मिश्राजी साहित्यिक सतर्कता को नहीं बख्शते हैं। दुर्घटनावश वे एक सतर्क और सजग पाठक भी हैं। हर स्क्रीन शॉट में बैटरी परसेंटेज भी पढ़ डालते हैं। वे अध्ययन में रुचि और धैर्य दोनों रखते हैं। अभी तक अपनी सभी महिला मित्रों के इनबॉक्स वार्तालाप के स्क्रीन शॉट्स चाव और ध्यान से पढ़ चुके हैं। वे वार्तालाप से प्रेमालाप की तरफ गमन करने में विश्वास रखते हैं ताकि साहित्यिक आवागमन में सुविधा रहे।
मिश्राजी साहित्यिक चौकीदारी को एक विशेषज्ञ कर्म और कांड मानते और मनवाते हैं इसीलिए साहित्यिक सूत्रों को पूरा भरोसा है कि मिश्राजी ने भले ही अपने जीवन में कुछ अच्छे से न लिखा हो लेकिन अपनी 'साहित्यिक चौकीदारी' की वसीयत वे जरूर अच्छे से अपनी तरह ही किसी योग्य व्यक्ति के नाम लिखेंगे।