जन-धर्म के झंडाबरदार!

- सूर्यकांत नागर

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हम समाजसेवी हैं। समाज सुधारक। सेवा हमारा धर्म है। जानते हैं मानव सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं। जहाँ धर्म का प्रश्न आता है, हमें ढहाते, जलाते तनिक संकोच नहीं होता। संकोची क्या खाक सेवा करेंगे। हमारे सामाजिक सरोकार स्पष्ट हैं। हम उनके साथ समझौता नहीं करते। सच्चा समाजसेवी समझौतावादी नहीं हो सकता। वह समाजवादी होता है।

समदृष्टिवान, कलमकार कलम का इस्तेमाल हथियार की तरह करता है, पर हमारा भरोसा छल-छद्म में नहीं है। हम हथियार का इस्तेमाल हथियार की तरह करते हैं। खुला खेल फरक्काबादी। हमारी रचनात्मकता केवल शाब्दिक नहीं होती। हम कर्म पर विश्वास करते हैं इसलिए हमारी आलोचना तीखी और एकदम ठोस होती है। पत्थर की माफिक। इसलिए पथराव से हमें गुरेज नहीं।

नक्सली हमें इसलिए पसंद हैं, क्योंकि वे लोकतांत्रिक तरीकों में भरोसा न कर त्वरित परिणामों के लिए बाहुबल का प्रयोग करते हैं। जब व्यवस्था निर्मम और कर्तव्यच्युत होगी तो आदमी इस हद तक असंवेदनशील और हृदयहीन क्यों न होगा! नक्सली हमारा गुरुभाई है। उनसे हमने कई गुर सीखे हैं। गुरु-धर्म निभाना हमारा नैतिक कर्तव्य है।

सड़क दुर्घटना होने पर हमारी संवेदना उछाल खाने लगती है। बहते खून को देख हमारा खून उबाल खाने लगता है। बीपीमापक उपकरण की रेंज के बाहर चला जाता है। एक बार तो पारा यंत्र को फोड़कर बाहर आ गया था। वह पारा भी किसी से समेटा नहीं गया। तब हम आगा-पीछा, दाएँ-बाएँ कुछ नहीं देखते। किसका दोष है, नहीं देखते। बाइक पर सवार उन युवकों का जो अंधी गति से कट मारते हुए नशे में धुत, बंद साइड से गुजर रहे थे उनका या बेचारे साइड से धीमी गति से जा रही कार का।

बस, हम तो पिल पड़ते हैं कार मालिक पर। मार-मारकर कचूमर बना देते हैं। कार को आग के हवाले कर देते हैं। हम कमजोर के पक्षधर हैं। पीड़ित-शोषित के झंडाबरदार। चक्काजाम कर देते हैं। बीमार और गर्भवती को भी रास्ता नहीं देते। हमारी संवेदना जीवित से अधिक मृत के साथ है। जीवित भी मरकर देख ले, हम उसके साथ हो लेंगे।

छात्राओं ने आत्महत्याएँ कीं तो हमने कॉलेज और यूनिवर्सिटी को उत्तरदायी ठहराया। प्राध्यापकों के विरुद्ध आपराधिक मामला दर्ज करने की माँग की। लड़कियों की ओर ध्यान देते तो यह नौबत नहीं आती। लड़की के किसी के साथ भाग जाने पर परिजनों के दुःख-दर्द में शामिल होने के लिए हम वहाँ भी पहुँच जाते हैं। ईश्वर की भाँति कण-कण में व्याप्त है।

पुलिस में अपहरण की रपट करा देते हैं। लड़की को शीघ्र ढूँढ पाने के लिए निष्क्रिय पुलिस को कोसते हैं, थाने का घेराव करते हैं। भई, हमसे जो बनता है, वह सब करते हैं। राजी-खुशी गई लड़की लुट-पिटकर बीस दिन बाद लौट आती है। तब हम उसे बलात्कार का शिकार बता बलात्कारी को पकड़ने के लिए अपना आंदोलन तेज कर देते हैं। हमारे हर काम में तेज है। इसीलिए तेजस्वी है और हमारे गुट में जो महिलाएँ हैं वे तेजस्विनी हैं। उनके तेज के सामने अच्छे-अच्छे भस्मीभूत हो जाते हैं।

हम बेचैन आत्मा हैं। अपनी बंधक आत्मा की मुक्ति के लिए छटपटाते रहते हैं। उस दिन मुग्धा महल पर मुग्ध हो गई। आग हो या दंगे उन्हें विकराल रूप लेते देर नहीं लगती। कुछ आग सेंकने वाले आग में घी डालकर उसे विकराल बना देते हैं। विकरालता में ही अग्नि का सौंदर्य सन्निहित है। चारों ओर खुदी सड़कों, जो नगरवासियों के लिए कब्रगाह बनी हुई हैं, के कारण अग्निशमन दल देर से पहुँचा तो भीड़ का हिस्सा बने हमसे बर्दाश्त नहीं हुआ। हमने अपना रोष अग्निशमन वाहन पर उतारा।

हमारे गुस्से का स्वरूप तो आप जानते हैं। एक बार भूत उतर जाए गुस्सा नहीं उतरता। कुछ ने टोका तो हमने कहा, आपको बाहर की यह आग दिख रही है, हमारे अंदर जो आग सुलग रही है, वह दिखाई नहीं देती। हम पुतले जलाने में अग्रणी हैं, चाहे होम करते हाथ जलें। जो डरा सो मरा।

हमारे दोनों हाथ में लड्डू और सिर कड़ाही में है। चित्त भी हमारी, पट भी हमारी। तकनीकी खराबी के कारण वायुयान की उड़ान में विलंब होने पर यात्रियों की परेशानी के पक्षधर बन हम आसमान सिर पर उठा लेते हैं।

इस बात की चिंता किए बगैर कि यदि ठीक से सुधारे बिना विमान उड़ गया तो यात्रियों के क्या हाल-हवाल होंगे। खुदा न खास्ता दुर्घटना हो गई तब भी अपनी पौ बारह। पटरी उखाड़ दी गई और ट्रेन पलट गई, नेता के वचन की तरह तो हम दोष असामाजिक तत्वों को न देकर रेल विभाग को देंगे। लगा देंगे आग खड़ी ट्रेन में। हम दिवंगतों की चिंता करें या राष्ट्रीय संपत्ति की? क्या ट्रेन की कीमत लोगों की जिंदगी से अधिक मूल्यवान है? निजी विवाद में कोई मारा गया तो उसके लिए मुआवजे की माँग करने वालों में हम आपको प्रथम पंक्ति में खड़े दिखेंगे और आप तो जानते हैं हम 'एंग्री यंगमैन' हैं अतः लाइन वहीं से शुरू होगी जहाँ हम खड़े हैं।

लाख टके की बात कि अन्याय, अत्याचार, पाखंड के खिलाफ हमारे मन में असंतोष बना रहता है। जानते हैं असंतोष से ही नई राह खुलती है। हाथ पर हाथ धरे बैठे रह गए तो देशवासियों को उनका वाजिब हक कैसे दिला पाएँगे? हमने कमर कस ली है। हालाँकि हमारे कुछ साथियों की कमर इतनी पतली है कि वहाँ कसने की गुंजाइश नहीं है, लेकिन जमा खातिर रखिए, पतली कमर वालों के भी हौसले बुलंद हैं। जरूरत कलेजे की है, कमर की नहीं।

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