विज्ञापनी भाभी की आस्था

अतुल केकरे

Webdunia
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परम श्रद्धेय पड़ोसी शिब्बूजी को साँवली-सलोनी बीवी ही पसंद है लेकिन पत्नी गोरी मेम बनने पर आमादा है। देश-विदेश के सारे ब्रांड की क्रीम चेहरे पर आजमा चुकी है, जिसमें सात दिन में गोरा बनाने का दावा करने वाली क्रीम भी शामिल है। भाभीजी को देखते-देखते मुझे सात साल हो गए। उनके गहरे रंग में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। उनकी विज्ञापन पर आस्था आज भी कायम है या यूँ कहें कि रंग और भरोसे में जंग अब भी जारी है। टेलीविजन विज्ञापन में कही गई हर बात उनके लिए ब्रह्मवाक्य है। विज्ञापन प्रेम देखकर मैंने उनका नाम विज्ञापनी भाभी रख दिया है।

वैसे तो हर स्त्री में जमाने के सामने सुंदर दिखने की चाहत होती है। पति की आँखों का महत्व उसी दिन खत्म हो जाता है जब वह पसंद के लिए हाँ कहने की गलती कर बैठता है। यदि गोरा रंग सुंदरता का मापदंड है तो वर्ल्ड ब्यूटी कॉंटेस्ट में अफ्रीकन सुंदरियों का भाग लेना चिंतन का विषय है। ऐसा नहीं है कि विज्ञापनी भाभी ने रंग गोरा करने के लिए सिर्फ क्रीम पर भरोसा किया है, बॉलीवुड सुंदरियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तमाम साबुनों को एक-एक करके बेदर्दी से चेहरे पर रगड़ा है।

हर दिन घटती साबुन की काया से शिब्बूजी भयभीत हो उठते हैं। कहीं ऐसा न हो बाहरी त्वचा साबुन में धुल जाए और भीतरी त्वचा का गोरा रंग सतह पर दिखाई पड़ने लगे। खुदा न खास्ता कभी विज्ञापनी भाभी के विश्वास की जीत होती है तो दुनिया से रंगभेद मिटाने के लिए नोबेल शांति पुरस्कार के असली हकदार ये साबुन, क्रीम और पावडर ही होंगे।

शिब्बूजी पत्नी के इस तरह विज्ञापन पर अंधविश्वास की मानसिकता एवं अनुवांशिकता से डरते हैं कि कहीं उनका पाँच साल का बेटा शक्तिमान की तरह पहली मंजिल की बालकनी से छलाँग न लगा दे, बिस्किट आदि खाकर किसी राह चलते पहलवान को न छेड़ दे। बिस्किट से ख्याल आया विज्ञापन में दिखाए जाने वाले बिस्किट बड़े चमत्कारी होते हैं। खाने वाले को शक्तिमान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

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प्रश्न उठता है फिर क्यों हमारे पहलवान विश्व मुकाबले से खाली हाथ लौटते हैं। जरूर बिस्किट खाना अपनी तौहीन समझते होंगे। वैसे पिछले एक-दो साल के रिकॉर्ड पर गौर करें तो इस मानसिकता के बदलाव के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। शिब्बूजी पत्नी के विज्ञापन प्रेम से बेहद परेशान हैं। व्यथित होकर एक ही बात कहते हैं, दिल करता है सारे विज्ञापनों का एक साथ नार्को टेस्ट करा दूँ।

मैं उन्हें समझाता हूँ कि ठंडे दिमाग से काम लो, भाभीजी का विज्ञापन पर भरोसा भक्त और प्रभु के मध्य आस्था के जोड़ के भाँति मजबूत है, टूटेगा नहीं। विज्ञापन में दिखाए जाने वाले साबुन, शैम्पू औषधीय गुणों से लबरेज होते हैं। इनमें प्रोटीन, विटामिन से लेकर दूध, क्रीम, बादाम इत्यादि पौष्टिक तत्व होते हैं। साबुन और शैम्पू के मिश्रण से निर्मित 'काढ़ा' कुपोषण से लड़ने में कारगर सिद्ध हो सकता है।

कुछ विज्ञापन देखकर भ्रम की स्थिति निर्मित होती है। समझ में नहीं आता काले घने बालों का राज केश तेल है या शैम्पू। दोनों ही सिर पर बाल उगाही का दावा करते हैं। खैर, खुदा का शुक्र कि बाल गिनने और सफेद बाल की संख्या बताने वाली मशीन ईजाद नहीं हुई है।

भ्रम निर्मिति की अगली पायदान पर प्रेशर कुकर और पिसे मसाले आते हैं। दोनों स्वादिष्ट बने खाने का श्रेय लेने की होड़ में लगे रहते हैं। मेरी निरीह पतियों से गुजारिश है कि बेस्वाद खाना परोसे जाने पर धर्मपत्नी से तू-तू-मैं मैं करने की बजाय इसका ठीकरा प्रेशर कुकर पर फोड़ दें। कुछ दोष पिसे मसालों पर मढ़ दें ताकि वैवाहिक जीवन में शांति बनी रहे।

विज्ञापन में कभी-कभी हैरतअंगेज कारनामे देखने को मिलते हैं। एक मोपेड पर कई लोग सवार होकर करतब करते नजर आते हैं। मेरा दावा है इतने लोग तो सवारियों को ठूँस-ठूँस कर भरने के लिए विख्यात इतिहास बन चुके इंदौर के टेम्पो में भी नहीं समा सकते। हवाई चप्पल के पैर में आते ही पहनने वाला हवा से बात करने लगता है। चहलकदमी की रफ्तार देखकर आभास होता है कि यह मानव यान से किसी ऐसे ग्रह पर उतरा है, जहाँ गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के मुकाबले काफी कम है। टूथपेस्ट एवं ब्रश के विज्ञापनों से दंत चिकित्सक बिरादरी काफी नाराज है। टूथपेस्ट एवं ब्रश की खूबियाँ गिनाने वाले डॉक्टर को वे विश्वासघाती करार देते हैं। उनका कहना है कि दाँतों से सड़न और कीटाणु दूर हों या ना हों मरीज जरूर हमसे दूर हो जाते हैं और तभी पास फटकते हैं जब उनके दाँत हिलने लगते हैं।

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी ये विज्ञापन कभी-कभी सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदर्शित करते नजर आते हैं। पान-गुटका चबाने पर गर्वभरी सुखद अनुभुति होती है मानो राजदरबारी होकर महल में पंचपकवान खा रहे हैं। कुछ विज्ञापन झटपट असरकारी श्रेणी में आते हैं। सिरदर्द की गोली हलक से नीचे उतरने के साथ सिरदर्द भी चुपचाप नीचे उतर जाता है।

बरसों से चेहरे पर कब्जा जमाए मुहाँसे पेट साफ करने की दवा की बोतल खुलते ही पसीजते नजर आते हैं। दो घूँट दवा अंदर जाते ही नौ-दो ग्यारह हो जाते है। ठंडा-ठंडा कूल-कूल कहा जाने वाला शीतल पेय शरीर को ठंडा करने के बजाय उटपटांग जोश पैदा करता है। पीने वाला बंदर की तरह उछल-कूद करने लगता है।

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डिटरजेंट घोल से निकले कपड़े इतने उजले, सफेद हो जाते हैं कि पास रखे नए-नवेले कपड़े शर्म के मारे पीले पड़ जाते हैं। शिब्बूजी कहते हैं कि विज्ञापनों को लुटरों, जेबकतरों की संज्ञा दी जानी चाहिए। ये तरह-तरह के लुभावने अंदाज से पहले हमारे दिलों को लूटते हैं, फिर हमारी जेब पर हाथ साफ करते हैं। विज्ञापन की सचाई को किसी लेब में जाँचा-परखा नहीं जाता।

इनकी प्रामाणिकता को लेकर लोग अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाते। कारण स्पष्ट है। सब जानते हैं कि ये विज्ञापन सरासर झूठे हैं, लेकिन जानकर लुटने का मजा ही कुछ और होता। उपभोक्ता की हालत आशिक की तरह होती है। वह मेहबूबा के प्यार में लुट जाने पर कहाँ किसी से शिकायत करता है।

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