आती थीं ऐसी चिट्ठियाँ जिनमें बाद समाचार होते थे सुखद अपनी कुशलता की कामना करते हुए होती थीं हमारी कुशलता की कामनाएँ।
गाँव-घर, टोला-पड़ोसी सब चले आते थे बतियाते चिट्ठियों में आटा गूँथती पड़ोसिनों के साथ आती थी माँ बहन की छाया मेरी मेज़ पर बैठ जाती थी निःशब्द ।
कलश धरे माथ ट्रैक्टर की पूजा करती आती थीं किसानिनें हल और बैलों के टूटते रिश्ते चले आते थे ।
चिट्ठियाँ बताती थीं कि कैसे किराने की दुकान में घुस आया है मुंबई नशे के लिए अब कहीं नहीं जाना पड़ता अलबत्ता अस्पताल इतनी दूर जैसे दिल्ली-कलकत्ता ।
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मुफ़्त मोतियाबिन्द शिविर नहीं पहुँच पाई बूढ़ी काकी यही कोफ़्त है, वरना लिखने में क्या धरा है बाकी।
पता चल जाता था कि किसके खलिहान में आग लगा दी किसने किसने किसका घर बना दिया खंडहर किसकी बहन निकल गई किसके साथ अबकी किसकी बेटी के पीले हुए हाथ।
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किसने बेच दिया पुरखों का खेत जुए के चक्कर में कौन फौज़ से 3 माह की छुट्टी ले बैठा है घर में
चिट्ठियाँ पोल खोल देती थीं सरपंची के चुनाव की फर्जी डॉक्टर की दवा से मरी विधवा ठकुराइन की बरसों से अधूरी पड़ी सड़क परियोजना की बहू को जला मारने की पारिवारिक योजना की।
लेकिन कुछ चिट्ठियाँ आती थीं हाथोंहाथ लाती थीं गाँव से उखड़े पाँव उनमें थोड़ा लिखा समझना होता था बहुत।
इधर एक अरसे से नहीं आई कोई चिट्ठी मेरे पते पर मेरे नाम क्या पता लोग लिखते हों और फाड़ देते हों क्योंकि मैं आज तक किसी को नहीं दिलवा पाया एक वाचमैन तक का काम।