झाँझ बजती है तो बजे मँजीरे खड़कते हैं तो खड़कते रहें लोग करते रहें रामधुन पंडित करता रहे गीता पाठ मेरे सिरहाने नहीं, मैं ऐसे नहीं जाऊँगा।
आखिर तक बनाए रखूँगा भरम कि किसके नाम है वसीयत किस कोठरी में गड़ी हैं मुहरें। कसकर पकड़े रहूँगा कमर में बँधी चाबी का गुच्छा ।
बाँसों में बँधकर ऐसे ही नहीं निकल जाऊँगा कि मुँहबाए देखता रह जाए आँगन ताकती रह जाए अलगनी दरवाजा बिसूरता रह जाए। मेरी देह ने किया है अभ्यास इस घर में रहने का कैसे निकाल दूँ कदम दुनिया से बाहर ।
चाहे बंद हो जाए सिर पर टिकटिकाती घड़ी पाए हो जाएँ पेड़ मैं नहीं उतरूँगा चारपायी से। चाहे आखिरी साबित हो जाए गोधूलिवेला सूरज सागर में छिप जा ए रात चिपचिपा जाए पृथ्वी के आरपार कृमि-कीट करने लगें मेरा इंतजार धर्मराज कर दें मेरा खाता-बही बंद मैं डुलूँगा नहीं ।
खफा होते हैं तो हो जाएँ मित्र शोकाकुल परिजन ले जाएँ तो ले जाएँ मैं जलूँगा नहीं।