बहुत दिनों से देवता हैं तैंतीस करोड़ उनके हिस्से का खाना-पीना नहीं घटता वे नहीं उलझते किसी अक्षांश-देशांतर में वे बुद्घि के ढेर इंद्रियाँ झकाझक उनकी सर्दी-खाँसी से परे ट्रेन से कटकर नहीं मरते रहते हैं पत्थर में बनकर प्राण कभी नहीं उठती उनके पेट में मरोड़ देवता हैं तैंतीस करोड़
हम ढूँढते हैं उन्हें सूर्य के घोड़ों में गंधाते दुःखों में क्रोध में शोक में जीवन में मृत्यु में मक्खी में खटमल में देश में प्रदेश में धरती में आकाश में मंदिर में मस्जिद में दंगे में फसाद में शुरू में बाद में घास में काई में ब्राह्मण में नाई में बहेलिए के जाल में पुजारी की खाल में वे छिप जाते हैं सल्फास की गोली में
देवता कंधे पर बैठकर चलते हैं साथ परछाई में रहते हैं पैवस्त सोते हैं खुले में धूप में बारिश में गाँजे की चिलम में छिप जाते हैं हर वक्त
नारियल हैं वे चंदन हैं अक्षत हैं धूप-गुग्गुल हैं देवता कुछ अंधे कुछ बहरे कुछ लूले कुछ लंगड़े कुछ ऐंचे कुछ तगड़े बड़े अजायबघर हैं युगों-युगों के ठग जन्मांतरों के निष्ठुर नहीं सुनते हाहाकार प्राणियों की करुण पुकार
हम तमाम उम्र अधीर माँगते वर गंभीर इतनी साधना इतना योग इतना त्याग इतना जप इतना तप इतना ज्ञान इतना दान जाता है निष्फल
वे छिपे रहते हैं मोतियाबिंद में फेफड़ों के कफ में मन के मैल में बालों के तेल में हमारी पीड़ाएँ नुकीले तीर छूटती रहती हैं धरती से आकाश और बच-बच निकल जाते हैं तैंतीस करोड़ देवता
हमारा घोर एकांत घनी रात भूख-प्यास घर न द्वार राह में बैठे खूँखार तड़कता है दिल-दिमाग लौटती हैं पितरों की स्मृतियाँ राह लौटती है लौटते हैं युग वह सब कुछ लौटता है जो चला गया चौरासी करोड़ योनियों का और तिलमिला उठते हैं तैंतीस करोड़ देवता।