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नरेंद्र मोदी बने जर्मन मीडिया की भड़ास का निशाना

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राम यादव

जर्मनी में सात दशक पूर्व फ़ासिस्ट हिटलरशाही के अंत के बाद से जर्मन मीडिया को हर समय दुनिया में कहीं न कहीं फ़ासिज़्म देखने और लोकतंत्र का उपदेश देने की लत लग गई है। भारत में इस बार के लोकसभा चुनाव शुरू होते ही जर्मन मीडिया, प्रधानमंत्री मोदी और भारत की निंदा-आलोचना भरे अपने परम ज्ञानी उपदेश देने के लिए अधीर होने लगा।

4 जून के चुनाव परिणाम आते ही यह अधीरता भड़ास बन कर किसी ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ी। जर्मन मीडिया को लगा कि 'हिंदू राष्ट्रवाद' और 'मोदी के फ़ासीवाद (फ़ासिज़्म)' को जी भरकर कोसना-धिक्कारना उसका परम कर्तव्य है और इस कर्त्तव्य-पालन का यही सबसे सुनहरा मौक़ा है।

मोदी और उनके समर्थकों को खरी-खोटी सुनाने वाले कई जर्मन समचारपत्रों और ऑनलाइन मीडिया-पोर्टलों ने अपने स्वयं के किसी स्रोत के बदले जर्मनी की डीपीए, ब्रिटेन की ऱॉयटर्स या अमेरिका की एपी जैसी समाचार एजेंसियों की रिपोर्टों या समीक्षाओं का सहारा लिया। जर्मनी के सार्वजनिक रेडियो-टीवी नेटवर्क ARD के अलावा शायद ही किसी दूसरे जर्मन मीडिया का भारत में उसकी तरफ से भेजा गया व लंबे समय तक वहां रहा कोई संवाददाता है। भारत में जिन विदेशी मीडिया के कार्यालय हैं भी, उनके बॉस अपने मनभावन ऐसे सस्ते भारतीय संवाददाताओं या कर्मचारियों से काम करवाते हैं, जो वही लिखते- बताते हैं, जिसे उनके विदेशी बॉस सुनना-जानना चाहते हैं।

जर्मनों के भारतीय जयचंदः उदाहरण के लिए जर्मन टेलीकॉम के वेब पोर्टल 'टी-ऑनलाइन' ने जर्मन समाचार एजेंसी 'डीपीए' के भारतीय संवाददाता राजेश कुमार की एक लंबी रिपोर्ट प्रकाशित की। शीर्षक थाः 'मोदी ने पूर्ण बहुमत खोया– जर्मनी के लिए भी एक चेतावनी।'  चुनाव परिणाम को अनपेक्षित और आश्चर्यजनक बताते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 'भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक बहुत अच्छा समाचार है, पर जर्मन राजनीति के लिए एक चेतावनी है।' जर्मन राजनीति को इसमें भला क्या चेतावनी देखनी चाहिए, इसे बताने के बदले लेखक का कहना है कि मोदी ने जो वोट खोए हैं, वह तो उनके 'पेट पर करारी लात मारने के समान है, पर वह भारतीय लोकतंत्र के लिए किसी उत्सव से कम नहीं है। चुनाव ने दिखा दिया कि भारत के प्रधानमंत्री को उस घृणा की रसीद मिल गई, जिसे उन्होंने ख़ुद ही बोया था। पश्चिमी देशों को चाहिए कि वे भी इस परिणाम को गंभीरता से लें।'

'इस परिणाम को गंभीरता से लेने' का यही अभिप्राय हो सकता है कि पश्चिमी देशों को चाहिए कि वे मोदी और उनकी सरकार पर कभी भरोसा न करें; दोनों को हमेशा आड़े हाथों लिया करें। यह अपील, राहुल गांधी की पिछले वर्ष ब्रिटेन में की गई उस अपील की याद दिलाती है, जिसमें भारत में लोकतंत्र की कथित रक्षा के नाम पर पश्चिमी देशों से हस्तक्षेप करने का आग्रह किया गया था। अमेरिका और उसके साथी पश्चिमी देश अन्य देशों में हमेशा अपनी टांग अड़ाने की ताक में रहते ही हैं। उन्होंने जब कभी– बुलाए या बिन बुलाए– जहां कहीं हस्तक्षेप किया है, वहां केवल अपने स्वार्थ को देखा है। मोदी को कोई चाहे जितना बुरा-भला कहे, तथ्य यही है कि पिछले 10 वर्षों में भारत के आकस्मिक उत्थान से पूरा पश्चिमी जगत चौंक गया है, जलने लगा है और भारत की बढ़ती हुई साख को अपने लिए एक चुनौती मानता है। कोई पश्चिमी देश नहीं चाहता कि चीन के बाद अब भारत भी एक ऐसी बड़ी शक्ति बन जाए, जो एक दिन उन्हें टक्कर देने लगे। पश्चिमी देशों में रहने वाले प्रबुद्ध भारतीय इसे भलीभांति जानते हैं।

जर्मन शब्दावलीः जर्मन समाचार एजेंसी 'डीपीए' के लिए लिखी इस रिपोर्ट में राजेश कुमार ने शब्दशः जर्मन शब्दावली अपनाते हुए लिखा है, 'मोदी अपने आप को एक ऐसे शासक के तौर पर मंचित (पेश) करते हैं, जो पूरी दृढ़ता के साथ हिंदू (अंध) राष्ट्रवादी एजेंडा चला रहा है। वे और उनकी पार्टी के लोग भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखते हैं, जो 80 प्रतिशत बहुमत वाले केवल हिंदुओं के लिए बना है। आज, देश के अल्पसंख्यकों के साथ जो दुर्व्यवहार हो रहा है, उससे सिर चकरा जाता है।'

उल्लेखनीय है कि अतीत में जर्मनी के हिटलर और इटली के मुसोलिनी की घोर राष्ट्रवादी हिंसक विचारधारा और उनके   कलुषित कारनामों के कारण 'राष्ट्रवाद' शब्द पश्चिमी देशों में बहुत बदनाम है, फ़ासिज़्म का पर्यायवाची बन गया है, जबकि भारत में हम उसे 'देशभक्ति' का पर्यायवाची मानते हैं। पश्चिमी देशों के लोग यह नहीं जानते, 'राष्ट्रवाद' शब्द देखते-सुनते ही हिटलर की नृशंसता याद करते हैं और भड़क जाते हैं। यह नहीं सोचते कि उनके राजनेता भी देश के भले के लिए जो कुछ कहते हैं, वह भी राष्ट्रवाद ही है, न कि राष्ट्रद्रोह। राष्ट्रद्रोह की बात देश का कोई दुश्मन ही करेगा

घिसे-पिटे आरोपः जर्मन समाचार एजेंसी 'डीपीए' की रिपोर्ट के लेखक भारतीय पत्रकार राजेश कुमार ने लगभग वही घिसे-पिटे आरोप दुहराए हैं, जो भारत को नीचा दिखाने पर गर्व करने वाले पश्चिमी मीडिया ने स्थापित कर रखे हैं। यानी, 'भारतीय प्रधानमंत्री ने अपना चुनाव अभियान उग्रवादी हिंदुओं द्वारा अयोध्या में तोड़ डाली गई, सदियों से रही, एक मस्जिद के खंडहरों पर से शुरू किया (मस्जिद के नीचे राम मंदिर होने का कोई ज़िक्र नहीं!)। 1992 में वहां हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच हुए खूनी टकरावों में दो हज़ार से अधिक लोग मरे थे। भारत के इतिहास के इस कलंक पर मोदी अकारण ही उत्सव नहीं मनातेः उनकी पार्टी बीजेपी उस हिंदुत्व-आन्दोलन की राजनीतिक बांह है,  जो कि हिंदू इश्वरीय राज्य के लिए काम करता है।' मानो हिंदू होना सबसे अक्षम्य अपराध है!

'प्रधानमंत्री का एजेंडा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपनों से बिल्कुल उल्टा है।... मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार होता है। मोदी, मुसलमानों को घुसपैठिया बताते हैं... भारतीय न्याय प्रणाली ने कथित भ्रष्टाचार के आरोपों के बहाने से विपक्षियों को चुनाव लड़ने ही नहीं दिया, इसलिए कई निर्वाचन क्षेत्रों में केवल बीजेपी के प्रत्याशी ही बचे रहे...मोदी अपने आप को ईश्वर द्वारा प्रेषित मानते हैं... इत्यादि।'

मोदी का राष्ट्रवाद सबसे असह्य पीड़ाः दक्षिणी जर्मनी में म्युनिख से प्रकाशित होने वाले दैनिक 'मेर्कुअर' की भी सबसे असह्य पीड़ा यही है कि 'राष्ट्रवादी मोदी के राज में (बेचारे) मुसलमानों के साथ अपूर्व भेदभाव हो रहा है, जबकि उनकी (मोदी की) अपनी सत्ता और अधिक बढ़ती जाएगी।' 'मेर्कुअर'  का कहना है कि '22 साल पहले मोदी एक ऐसे अवांछित व्यक्ति थे, जिनके विरुद्ध अमेरिका और ब्रिटेन ने अपने यहां आने पर रोक लगा रखी थी। उस समय हिंदू उग्रवादियों ने हज़ारों मुसलमानों को मार डाला था। आज मोदी अपने तीसरे कार्यकाल की ड्योढ़ी पर खड़े हैं और पश्चिमी देश उनकी आवभगत करते हैं।' दूसरे शब्दों में, 'मेर्कुअर' चाहता है कि पश्चिमी देश मोदी का बहिष्कार करें।

मोदी की आवभगत का कारण 'मेर्कुअर' के अनुसार, यह नहीं है कि 'मोदी नरम पड़ गए हैं या पश्चिमी देशों की सोच बदल गई है। नहीं। इस हिंदू राष्ट्रवादी के राज में तो अब भी 20 करोड़ मुसमानों के साथ ऐसा दुराचार हो रहा है, जो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। पश्चिम तब भी भारत की बड़ाई कर रहा है, क्योंकि उसे चीन को बराबरी का टक्कर देने वाला कोई देश चाहिए। भारत की अर्थव्यस्था कुलांचे भर रही है। जर्मनी और अमेरिका को अपने निर्यातों के लिए दुनिया की यह सबसे तेज़ी से बढ़ रही यह अर्थव्यस्था ही चाहिए, क्योंकि चीन के साथ उनका बढ़ता हुआ झगड़ा उनके व्यापार-धंधे को चौपट कर सकता है।' 'मेर्कुअर' के अनुसार, 'इससे भी बड़ी बात यह है कि भारत को अब रूस और चीन की बराबरी कर सकने वाले संतुलनकारी रणनीतिक मोहरे के तौर पर देखा जा रहा है। चुनाव परिणाम से इस सोच को भले ही हल्का-सा झटका लगा है, पर बढ़ते हुए वैश्विक संकटों के परिप्रेक्ष्य में मोदी का अंतरराष्ट्रीय महत्व और अधिक बढ़ेगा।'

चुनावी चपत के बाद सरकार गठनः जर्मनी के चौथे सबसे बड़े शहर कोलोन से प्रकाशित होने वाला दैनिक 'क्यौल्नर श्टाड्ट-अनत्साइगर' अब तक भारत की जानबूझ कर अनदेखी किया करता था। जनसंख्या की दृष्टि से जर्मनी के सबसे बड़े राज्य NRW के इस प्रमुख अख़बार ने अपने आकलन को शीर्षक दिया, 'चुनावी चपत के बाद मोदी द्वारा सरकार गठन का प्रयास।' इस अख़बार का कहना है कि 'ध्रुवीकरण करने और बढ़ती हुई स्वेच्छाचारिता का परिचय देने वाले मोदी, जवाहरलाल नेहरू की तरह यथाशीघ्र तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने में जुट गए हैं। जनता ने लेकिन इस बार अपने वोट द्वारा नई दिल्ली को साफ़ संदेश दिया है कि वह मार्ग-सुधार चाहती है।' इसकी पुष्टि के लिए 'क्यौल्नर श्टाड्ट-अनत्साइगर' ने राजनीतिज्ञ और कॉलम-लेखक सुधीरेंद्र कुलकर्णी के एक लेख का उद्धरण दिया है, जिसमें वे कहते हैं कि 'भारत का लोकतंत्र अब राहत की सांस ले सकता है। संविधान के वे आधारभूत मूल्य, जो पिछले दस वर्षों में दबाव में आ गए थे, अब फिर से सुरक्षित हो गए हैं।'

'क्यौल्नर श्टाड्ट-अनत्साइगर' ने भी उन्हीं सुपरिचित आरोपों और आलोचनाओं को दोहराया है, जिनके अनुसार मोदी का चुनाव अभियान किसी ईश्वर-पूजा की तरह 'मोदी की व्यक्ति-पूजा' बन गया। एक ऐसे 'हिंदू राष्ट्रवाद का ढिंढोरा' पीटा जाने लगा था, जो 80 प्रतिशत हिंदुओं के बहुमत वाला देश होना चाहिए। ऐसा होने पर 20 करोड़ मुस्लिम और अन्य मज़हबी अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक बन जाते। यही नहीं, इस जर्मन अख़बार के अनुसार, 'मोदी ने सारी सत्ता अपने हाथों में समेट ली थी। सरकारी संस्थानों का उपयोग विपक्षियों का मुंह बंद करने के लिए होने लगा था। भ्रष्टाचार के आरोप लगा कर अनेक विपक्षी नेताओं को चुनाव प्रचार के समय में जेलों में बंद कर दिया गया।' गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले यही पश्चिमी मीडिया अन्यथा भारत में अंतहीन भ्रष्टाचार का रोना रोया करते हैं।

मोदी को बधाइयां मिल रही हैं : व्यापक बिक्री के साथ-साथ अपने वेब पोर्टल वाला 'क्यौल्नर श्टाड्ट-अनत्साइगर' मानता है कि मोदी के शासनकाल में 'भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अवश्य बन गया, पर इसका लाभ केवल एक अल्पमत को ही मिला।' इस अख़बार के लिए सबसे आश्चर्य की बात यह है कि स्वदेश में तो मोदी की निंदा-आलोचना हो रही है, पर 'मोदी को दुनिया के हर कोने से बधाइयां मिल रही हैं; उस चीन से भी, जिसके साथ सीमा-विवाद के कारण पहले से ही भारी तनातनी है।' चीन ने अपने बधाई संदेश में कहा है कि 'दोनों देशों के बीच अच्छे संबंध क्षेत्रीय शांति और विकास के हित में हैं।' इटली की प्रधानमंत्री जिओर्जिया मेलोनी ने अपने बधाई संदेश में कहा है कि वे मोदी के साथ सहयोग बढ़ाना चाहती हैं।

'बिजनेस इनसाइडर जर्मनी' ने 5 जून के अपने आकलन को शीर्षक दिया– 'भारत नया चीन बनना चाहता हैः मोदी का चुनाव परिणाम इस योजना में अड़चन बन सकता है।' अपने ऑनलाइन पोर्टल पर उसका कहना है, 'पिछले वित्त वर्ष में सकल घेरलू उत्पाद (GDP) में 8.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी और भारी विदेशी निवेश दिखाने वाली भातीय अर्थव्यवस्था लंबी पेंगें लगा रही है। इस बढ़ोतरी का एक कारण आपूर्ति कड़ियों (सप्लाई चेन) और निवेश धाराओं (इनवेस्टमेंट फ्लो) का जुड़ाव है, क्योंकि व्यावसायिक कंपनियां केवल चीन पर निर्भर नहीं रहना चाहतीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आकर्षण शक्ति, चुनावों के बाद उनके ऐतिहासिक तीसरे कार्यकाल में इन कंपनियों को भारत की तरफ और अधिक खींच सकती है।'

अगला चीन बनने का सपनाः 'बिजनेस इनसाइडर जर्मनी' को लेकिन यह खेद भी है कि संसद में बीजेपी का अपना संख्याबल घट जाने से भारत को कई नुकसान हो सकते हैं। बेरोज़गारों का अनुपात मार्च में 7.4 प्रतिशत से बढ़ कर अप्रैल में 8.1 प्रतिशत हो जाने जैसे आंकड़े और कुशल कर्मियों के विदेशों में पलायन से सरकार का सिरदर्द बढ़ेगा। संसद में बीजेपी का अपना संख्याबल घट जाने से अगला चीन बनने का सपना, हो सकता है कि सरकार का ही नहीं, भारत की उस जनता का भी निरा सपना ही रह जाए, जिसने मोदी की पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं दिया।

अंततः जनता ही घाटे में रहेगी। 'बिजनेस इनसाइडर जर्मनी' के अनुसार इसलिए, कि कई पार्टियों के बीच गठबंधन की सरकार होने पर हर पार्टी को संतुष्ट करने के लिए कुछ लेनदेन करनी पड़ती है। अतः एक दिन देखने में आ सकता है कि भूमि, श्रम बाज़ार और अन्य बाज़ारों के ढांचों मे सुधार करने और उन्हें खोलने में होने वाली अड़चनों से भारत अपना आकर्षण खो बैठा है। इससे इन्डोनेशिया और वियतनाम जैसे वे अन्य निकटवर्ती प्रतिस्पर्धी देश लाभान्वित होंगे, जहां गठबंधन सरकारों का झमेला नहीं है। एक और चुनौती हैः आज भारत की 65 प्रतिशत जनता भले ही 35 वर्ष औसत आयु वाली युवा है, पर 2050 तक हर पांचवां भारतवासी औसतन 60 वर्ष का होगा। इससे भी अधिक आयु वाले वृद्धजनों की पेंशनें और देखभाल तब तक एक बहुत बड़ी समस्या बन गई हो सकती है।

मोदी की अपराजेयता मिथक बनीः जर्मनी की सबसे दीर्घायु प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिकाओं में से एक का नाम 'स्टेर्न' (सितारा) है। उसने अपने आकलन में प्रधानमंत्री मोदी पर ऐसा चौतरफ़ा कुत्सित प्रहार किया है, मानो मोदी से उसकी निजी दुश्मनी है। उसने लिखा, 'भारत के 64 करोड़ 20 लाख लोगों ने अपने वोट से नरेंद्र मोदी के अपराजेय होने वाले मिथक की धज्जियां उड़ा दीं। ईश्वरीय आशीर्वाद वाले प्रधानमंत्री का पूर्ण बहुमत छीन लिया।' इस वाक्य के नीचे 'स्टेर्न' ने देवनागरी लिपी में हिंदी में केवल 'आश्चर्य' शब्द लिखा। उसके नीचे वाली पंक्ति में आश्चर्य का जर्मन भाषा में अर्थ 'अ्युबाराशुंग' बताते हुए लिखा कि आश्चर्य एक हिंदी शब्द है, और यही शब्द इसलिए उचित भी है, क्योंकि मानव इतिहास के सबसे बड़े चुनाव का यही परिणाम है। भारत में हुए इस चुनाव में नरेंद्र मोदी और उनकी बीजेपी को यही 'ज़ोरदार थप्पड़ लगा है।'

'स्टेर्न' की दृष्टि से, 'मोदी अपनी हार को जिस तरह जीत का रंग दे रहे हैं, वह उनके लिए कोई नई बात नहीं है। इसीलिए उन्होंने तुरंत वक्तव्य दे दिया कि भारतीयों ने, तीसरी बार सरकार बन रहे उनके गठबंधन के प्रति अपना विश्वास व्यक्त किया है। लेकिन, इस बार एक महाबहुमत के साथ संविधान बदलने के लिए लालायित हिंदू राष्ट्रवादी, अपने ही अब तक के शासन के कारण यह अवसर खो बैठे। किसी उल्लेख के योग्य एकमात्र विपक्षी पार्टी, राहुल गांधी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, बीजेपी-भक्त मीडिया के बावजूद, अपना संख्याबल बढ़ाने में सफल रही। कई दर्जन क्षेत्रीय पार्टियां भी कांग्रेस के साथ हैं।'  'स्टेर्न' का इशारा 'कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा' वाले लंबे-चौड़े अंग्रेज़ी शब्दों से बने तथाकथित 'इंडिया' गठबंधन की तरफ है।

अपनी भड़ास के समर्थन में 'स्टेर्न' ने बरखा दत्त जैसे मोदी के जाने-माने भारतीय वामपंथी कटु आलोचकों और भारत को हमेशा कोसने-धिक्कारने वाले अमेरिका के वॉशिंगटन पोस्ट और न्यूय़ॉर्क टाइम्स जैसे अख़बारों का साक्ष्य दिया है। इसी से पता चल जाना चाहिए कि उसकी टीका-टिप्पणियां कितनी वस्तुपरक हो सकती हैं।

विशाल देश की विशाल समस्याएं : काफ़ी कुछ संयत और संतुलित समीक्षा फ्रैंकफर्ट से प्रकाशित होने वाले 'फ्रांकफुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग' की रही। उसके समीक्षक का कहना है कि 2014 वाले मोदी भारत में आर्थिक प्रगति और राजनीतिक स्थिरता लाना चाहते थे। ऐसा हुआ भी। लेकिन अब जो निराशा पसरने लगी है, वह समझने लायक भी और नहीं भी, क्योंकि भारत जैसे एक विशाल देश की समस्याएं भी उतनी ही विशाल हैं। कोई चमत्कार ही एक ही दशक में उन्हें हल कर सकता था। मोदी की ग़लती यही है कि वे ही यह चमत्कार कर दिखाना चाहते थे। उनकी अविवादास्पद सफलताओं में तब भी इस बात को तो गिनाया जा ही सकता है कि भारत को उन्होंने विश्व पटल पर एक महत्वपूर्ण तथ्य बना दिया है। उनकी हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति एक ऐसे भारत पर लक्षित रही है, जिसे 1947 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता मिली थी। लेकिन उनके 9 वर्षों के शासनकाल में मुस्लिमों एवं अन्य अल्पसंख्यकों को लगने लगा कि वे इस भारत में स्वीकार्य नहीं हैं। चुनाव में इसी का प्रतिफल मिला है।

'फ्रांकफुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग' के समीक्षक का कहना है कि मोदी तब भी सरकार-प्रमुख शायद बने रह सकते हैं। उन्हें उनकी सही ऊंचाई दिखा दी गई है। यदि वे इस संदेश को समझ गए हैं, तो तीसरे कार्यकाल के ऐतिहासिक महत्व के लिए भी अपने आप को सुयोज्ञ साबित कर दिखाएंगे। इससे दुनिया में भारत की वह महत्ता संभवतः और अधिक बढ़ेगी, जिस पर मोदी बल दिया करते हैं।

दक्षिण अफ्रीकी संसदीय चुनावों से तुलनाः बर्लिन से प्रकाशित होने वाला 'बेर्लीनर त्साइटुंग' संभवतः ऐसा एकमात्र जर्मन दैनिक है, जिसने लगभग एक ही समय हुए भारतीय और दक्षिण अफ्रीकी संसदीय चुनावों और उनके परिणामों की तुलना की है। उसने यूरोप से बाहर इन दोनों देशों को सबसे बड़े लोकतंत्र माना है। दोनों पर लंबे समय तक विदेशियों ने शासन किया है। दोनों के स्वतंत्रता संग्रामों में भी काफी समानता रही है। सबसे बड़ा अंतर यही है कि भारत में लगभग एक अरब लोगों को मतदान करना था और दक्षिण अफ्रीका में केवल 6 करोड़ लोग रहते हैं। भारत में 6 सप्ताहों तक मतदान चला और दक्षिण अफ्रीका में केवल एक दिन। दोनों देश ब्रिक्स संगठन के भी सदस्य हैं।

'बेर्लीनर त्साइटुंग' के लिए सबसे दिलचस्प बात यह रही कि दोनों देशों में अब तक सत्तारूढ़ रही पार्टी को मतदाताओं ने झटका दिया है। भारत में तो बीजेपी के नेतृत्व में पुनः सरकार बनेगी, पर दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकन नैश्नल कांग्रेस की नैया डांवांडोल है। उसे केवल 40 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन मिला है। 22 प्रतिशत के साथ डेमोक्रैटिक अलायंस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी। 14.8 प्रतिशत मतों के साथ MK तीसरी बड़ी पार्टी है। देखना है कि वहां कब और किसके बीच तालमेल से नई सरकार बन पाती है। दक्षिण अफ्रीका में भी कई कबीले और नस्लें हैं और उनकी अलग-अलग भाषाएं हैं।

पश्चिमी मीडिया भारत के प्रति हमेशा आक्रामक रहाः जहां तक भारत का प्रश्न है, पश्चिमी जगत और उसका मीडिया उसके प्रति हमेशा दुर्भावनापूर्ण और आक्रामक रहा है, सरकार चाहे जिस पार्टी या प्रधानमंत्री की रही हो। हिंदू बहुसंख्यक भारत को हमेशा नीचा दिखाने और 'भूख से मर जाएंगे, पर गाय नहीं खायेंगे' कहने वाले हिंदुओं का मज़ाक उड़ाने से पश्चिम के सर्वभक्षियों को हमेशा परम सुख मिलता रहा है। उनकी और उनके मीडिया की असह्य व्यथा यह है कि उनके अंग्रेज़ भाइयों की दासता से मुक्त होने के सात दशकों के भीतर ही, भारत उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से देने की स्थिति में आ गया है। भारत अब उनसे किसी विकास सहायता के लिए गिड़गिड़ाने के बदले उन्हें आंख दिखाता है। बराबरी का दावा ठोंकता है।

पश्चिम वालों को जब कोई अकाट्य तर्क नहीं मिलता, तो वे भारत में दलितों, अल्पसंख्यकों और सेक्यूलरिज़्म जैसे उन विषयों के पैरोकार बन जाते हैं, जिनसे उन्हें वास्तव में कुछ भी लेना-देना नहीं है। वे कभी नहीं कहेंगे कि उनके अपने देशों में भी कई प्रकार के भेदभाव हैं, ग़रीबी, बेरोज़गारी और बेघरबारी है। भीख मांगने वाले और सड़कों पर सोने वाले हैं। मज़हबी अल्पसंख्कों और सदियों पूर्व भारत से आए रोमा-सिंती बंजारों के साथ नस्लवादी भेदभाव आम बातें हैं। दंगे, मार-काट, बलात्कार और हत्याएं होती रहती हैं। उनके देश भी न तो कोई स्वर्ग हैं और न कोई ऐसा आदर्श कि सारी दुनिया उनका अनुसरण करे।

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