नजरुल इस्लाम का पत्र पहली पत्नी के नाम

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बंगाल का वो बबर शेर! जिसने अपनी प्रत्येक साँस क्रांति की अगवानी के गीत गाने में खर्च कर दी और जिस क्षण निराश हुआ पागल हो गया...

6. अपर चितपुर रोड
ग्रामोफोन रिहर्सल-रूम
कलकत्ता, 1 जुलाई 1927

जानम!

नौरोज की सुहानी सुबह को तुम्हारा खत मिला। उस समय आका पर हल्के-हल्के बादल छाए हुए थे। आज से पन्द्रह वर्ष पूर्व आषाढ़ के इसी महीने का वह दिन भी ऐसा ही था। संभव है तुम्हारी स्मृति में उस दिन की बात ताजा हो।

यही मेघ-दूत विरही अबला की वाणी लेकर कालिदास के जग में रेवा नदी के किनारे-किनारे गया और फिर अपने प्रियतम के पास पहुँचा। यह चौकड़ी भरते हुए बादल भी मेरे पास दुःख के संदेश लाते हैं और यह आषाढ़ मुझको कल्पना के स्वर्ग से पृथक कर, दर्द और कसक की अथाह गहराई में फेंक देता है।

विश्वास करो, मैंने जो कुछ लिखा है उसका आधार सत्य है। यदि लोगों की सुनी-सुनाई बातों पर तुम विश्वास कर बैठीं, तो इसका अर्थ यह है कि तुमने मुझे समझने में गलती की। खुदा गवाह है कि मेरे दिल में तुम्हारे विरुद्ध न कोई अदावत है और न कोई बुरा भाव।

मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं तुम्हारे लिए कितना दुःखी हूँ और अब तो इस दुःख की आग में बिलकुल झुलसकर ही रह गया हूँ। तुम मेरे दिल को यदि यह आग न देती, तो शायद मैं आग के राग न अलाप सकता और न ही एक पूर्ण सितारा बनकर आकाश पर उग सकता। मैंने अपनी उठती जवानी में सबसे पहले तुम्हारे रूप को देखा था और उसी को मैंने अपने जीवन का प्रथम उपहार भेंट कर दिया।

तुम यह न भूलो कि मैं एक कवि हूँ। तुम्हें दुःख पहुँचाऊँ, उसमें मुझे भी एक किस्म का दुःख ही होगा।

हाँ, तुम पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि मैं ग्रामोफोन के ट्रेडमार्क कुत्ते की गुलामी करता हूँ, तब भी किसी कुत्ते को मैंने चाटा नहीं तुम लोगों का भी एक कुत्ता मुुझ पर क्रोध से गुर्राया, किन्तु मैंने शक्ति होने पर भी उस पर आक्रमण नहीं किया।

तुम तो जानती ही हो, कि नवयुवक मुझे कितना चाहते हैं? मेरे समझाने-बुझाने पर उन्होंने उसे क्षमा कर दिया अन्यथा उसका नामोनिशान तक भी न बचता। अफसोस! कि इन बातों के बावजूद तुम मुझे नहीं पहचान सकीं।

अचानक ही मुझे पंद्रह वर्ष पूर्व की एक बात स्मरण हो आई है। तुम लगातार ज्वर में पड़ी हुई थीं और मैंने बड़े चाव और मुहब्बत से तुम्हारे जलते हुए माथे पर हाथ रखा था।

तुमने अजीब निगाहों से मुझे देखा। मेरी आँखों में आँसुओं की बरखा थी, और हाथों में तुम्हारी सेवा करने की तड़प। उन बातों को याद करके ऐसा लगता है जैसे कि यह कल-परसों की ही बात हो!

खैर, छोड़ो इन बातों को। आज मैं जिन्दगी की ढलती हुई शाम में भाटे की ओर बढ़ता जा रहा हूँ और अब इस राह से तुम मुझे हटा नहीं सकती।

तुम्हारे नाम मेरा यह पहला और अंतिम खत है। तुम जहाँ भी रहो सुखी रहो, यही मेरी दुआ है तुम मुझे जितना बुरा समझती हो उतना बुरा मैं नहीं हूँ

तुम्हारा नजरुल इस्लाम

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