राम और उनकी रंगमंच की दुनिया

जनकसिंह झाला
वे एक श्रेष्ठ नाटककार ही नहीं बल्कि अच्छे चित्रकार भी हैं। उनमें असीम उत्साह और प्रतिभा है। दिनभर बैंक के कम्प्यूटर पर बैठकर कम्पोज करने वाला यह शख्स शाम होते ही कम्पोजर से कलाकार बन जाता है। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं इंदौर के जाने-माने रंगकर्मी श्रीराम जोग की, जो पिछले 28 बर्षों से स्टेज पर अपने अभिनय के जलवे बिखेर रहे हैं। हाल ही में 'नेपथ्य नाट्य समूह' द्वारा आयोजित 'रंगपर्व' नाम के त्रिदिवसीय नाट्य समारोह में इस कलाकार को 'बाबा डिके सम्मान' से नवाजा गया है। प्रस्तुत हैं उनके साथ बातचीत के कुछ प्रमुख अंश-

* श्रीराम जोग बैंक वाले और श्रीराम जोग थिएटर वाले में क्या फर्क है?
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- कोई फर्क नहीं। जब कोई मुझसे पूछता है क्या चल रहा है? तब मैं उन्हें बताता हूँ नौकरी और नाटक दोनों चल रहा है। बैंक में दिनभर पूरी निष्ठा और लगन से काम करता हूँ जो मेरी नौकरी के प्रति वफादारी है, उसी प्रकार शाम होते ही एक कलाकार बन जाता हूँ जो मेरी नाटक के प्रति वफादारी है।

* थिएटर के प्रति रुझान कैसे आया?
- बचपन से ही लोगों की नकल करने की आदत थी। आठ साल की उम्र में पास की किराने की दुकान पर काम करने वाली एक महिला की स्कूल में नकल उतारी थी। लोगों ने बहुत तालियाँ बजाईं, मेरी प्रतिभा को सराहा गया। बस तब से नाटक खेलने की एक लत लग गई। संस्था 'नाट्‍य भारती' के जरिये मैं नए कलाकारों को भी तैयार कर रहा हूँ।

* सुना है आप नाटककार के अलावा अच्छे चित्रकार भी हैं?
- नईदुनिया समेत विभिन्न अखबारों में कई बार मेरे चित्र प्रकाशित हुए और बाद में कोलाज बनाना भी शुरू कर दिया। मुंबई की जहाँगीर आर्ट गैलरी में मेरी चित्र प्रदर्शनी भी आयोजित हुई। मेरी चित्रकारी की प्रतिभा को आगे लाने में नईदुनिया का बहुत योगदान रहा है।

* रंगमंच के लिए परिवार का सहयोग कैसा रहाँ?
- मेरी आई ने इसके लिए मेरी बहुत मदद की जो एक अच्छी गायिका भी थीं। यूँ तो मेरे पिताजी प्रत्यक्ष रूप से कभी भी मेरे किसी भी नाटक की तारीफ नहीं करते थे लेकिन जब कभी भी घर पर कोई शख्स आता था तो उन्हें मेरे द्वारा जीते हुए पदक दिखाते हुए जरूर कहते थे- 'देखो मेरे राम ने फलाँ नाटक में यह पदक जीता'।

* आज आपकी पत्नी और बेटियाँ भी इस क्षेत्र में पूरी तरह समर्पित हैं। कैसा लगता है जब पूरे परिवार को एक साथ स्टेज पर अभिनय करते हुए देखते हैं?
  द्वि-अर्थी संवाद से कोई समस्या नहीं, बस ध्यान रहे कि वह अश्लीलता के भाव से न प्रस्तुत किए गए हों। दादा कोंडके ने कई मराठी फिल्मों में दि-अर्थी संवाद बोले हैं लेकिन उस संवाद को आप अश्लील नहीं कह सकते      
- स्टेज पर मैं कभी नहीं देखता कि मेरे सामने मेरी पत्नी या बेटियाँ हैं, वहाँ पर परिवार नहीं, सिर्फ एक चरित्र होता है जो पूरी निष्ठा से अपना किरदार निभाता है। मैं खुद भी वहाँ पर श्रीराम जोग न रहकर एक पात्र बन जाता हूँ। वैसे हम सभी सहयोगी कलाकार किसी परिवार से कम नहीं हैं।

* अब तक कितने नाटकों में आप काम कर चुके हैं। उनमें से सबसे पसंदीदा रोल कौनसा है?
- करीबन 70 से 80 मराठी और हिन्दी नाटकों में काम कर चुका हूँ। मेरे लिए सभी रोल पसंदीदा थे, फिर भी 'निष्पाप' नाटक में 'चिंतामणि' नाम के एक विघ्न संतोषी व्यक्ति का किरदार और 'मुझे मौत चाहिए' में पक्षघात से पीड़ित शख्स का किरदार मेरा पसंदीदा किरदार है।

* आज थिएटर मरने के कगार पर है। उसका प्रमुख कारण?
- मराठी रंगकर्म आज भी समृद्ध है। महाराष्ट्र में कमर्शियल थिएटर के अभिनेता, निर्देशक और निर्माता को वही दर्जा और सम्मान मिलता है जो किसी फिल्म के कलाकार और निर्देशक को मिलता है। मराठी, बांग्ला और गुजराती भाषा के नाटक देखने के लिए आज भी लोगों की भीड़ लगती है। हाँ, हिन्दी नाटक देखने वाला वर्ग काफी कम है, क्योंकि टीवी सीरियल्स और धारावाहिक उन्हें मुफ्त में ही देखने को मिल जाते हैं।

* आज सिनेमाघरों में जितनी भीड़ देखने को मिलती है उतनी नाट्यगृहों में नहीं, क्यों?
- आजकल सिनेमाघरों में भी लोग कहाँ जाते हैं। जैसे ही कोई नई फिल्म आती है, उसकी सीडी या डीवीडी लेकर पूरा परिवार घर पर ही फिल्म देखने बैठ जाता है। समय और पैसे दोनों की बचत हो जाती है। फिर नाट्यगृहों का क्या कहें। फिर भी जो लोग रंगकर्म से रुचि रखते हैं वे समय और पैसे खर्च करके भी नाटक देखने जरूर जाते हैं।

* कोई ऐसा चरित्र जिसमें श्रीराम को वह करना पड़ा हो जो उन्होंने वास्तविक जीवन में कभी भी न किया हो।
- मैं कभी धूम्रपान नहीं करता, लेकिन एक बार एक नाटक में चरित्र को न्याय देने के लिए मुझे करना पड़ा था। 'निष्पाप' नाटक के लिए मुझे अपनी मूँछें भी कटवानी पड़ी थीं जिनसे मैं बहुत प्यार करता हूँ।

* आपके आदर्श?
- दिवंगत नाट्यकार बाबा डिके। आज उनके कारण ही मैं यहाँ तक पहुँच पाया हूँ।

* आजकल फिल्मों के अलावा नाटकों में भी द्वि-अर्थी संवादों का चलन बढ़ गया है। क्या उससे उसकी गरिमा प्रभावित नहीं होती?
- द्वि-अर्थी संवाद से कोई समस्या नहीं, बस ध्यान रहे कि वह अश्लीलता के भाव से न प्रस्तुत किए गए हों। दादा कोंडके ने कई मराठी फिल्मों में दि-अर्थी संवाद बोले हैं लेकिन उस संवाद को आप अश्लील नहीं कह सकते। शालीन और अश्लील संवादों के बीच में एक बारीक रेखा होती है। हर रंगकर्मी का यह कर्त्तव्य रहता है कि वह कभी भी उस रेखा को लाँघने का प्रयास न करे।

* फिलहाल भविष्य का कोई प्रोजेक्ट?
- आगामी महाराष्ट्र राज्य नाट्य स्पर्धा की तैयारियों में व्यस्त हूँ। दूसरे दो-तीन नाटकों की भी रीडिंग हो रही है।

* युवा रंगकर्मियों के लिए कोई संदेश?
- छोटी-सी सफलता से इतराएँ नहीं, अभी उन्हें बहुत आगे बढ़ना है।
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