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नजरिया: भाजपा में शामिल होने के एक साल बाद भी सिंधिया का मिशन अधूरा

वरिष्ठ पत्रकार कृष्णमोहन झा का नजरिया

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, बुधवार, 10 मार्च 2021 (08:51 IST)
एक साल पहले मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन की पटकथा लिखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में शमिल होने के आज एक साल पूरे हो रहे है। राज्य में सत्ता परिवर्तन की पटकथा आज के दिन ही एक साल पहले उस वक्त लिखी गई थी जब पूर्व केंद्रीय मंत्री और राहुल गांधी के करीबी कहे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया 10 मार्च 2020 को कांग्रेस से अपना18 साल पुराना रिश्ता तोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे। उनके इस फैसले ने मध्यप्रदेश की तत्कालीन कमलनाथ सरकार की चूलें हिल गई थीं और कमलनाथ की सत्ता से विदाई के साथ चौथी बार शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त्र हो गया था।
सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के उस अप्रत्याशित कदम से कांग्रेस पार्टी के बड़े बड़े दिग्गज स्तब्ध रह गए थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ, जो अति आत्मविश्वास का शिकार होकर भाजपा को उनकी सरकार गिराने की चुनौती देने लगे थे, को सिंधिया के इस फैसले ने‌ इस कड़वी हकीकत का अहसास करा दिया था कि अब कांग्रेस विधायक दल के सदस्यों के साथ उन्हें विपक्ष में बैठने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
 
यह भी संयोग ही था कि सिंधिया ‌ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत कांग्रेस ‌से ही की  थी और लगभग 18 वर्षों तक संगठन में महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी ‌का संपूर्ण निष्ठा के साथ निर्वहन किया। ‌उनकी विशिष्ट योग्यता का उचित मूल्यांकन करते हुए केंद्र की पूर्ववर्ती कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में भी शामिल किया था। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में उन्हें पार्टी के प्रचार अभियान की बागडोर सौंपी गई थी।
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2018 में पंद्रह वर्षों के बाद कांग्रेस को पुनः सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने में ज्योतिरादित्य सिंधिया जो महत्त्वपूर्ण योगदान किया उसने ‌उन्हें मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बना दिया था परंतु जब पार्टी हाई कमान ने कमलनाथ ‌को मुख्यमंत्री पद से नवाज दिया तब यह अनुमान लगाया जा रहा था कि कांग्रेस हाईकमान कमान उन्हें प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद की बागडोर उनके विलक्षण सांगठनिक कौशल का उपयोग प्रदेश में संगठन को मजबूत बनाने के लिए करना चाहता है परंतु तत्कालीन कमलनाथ सरकार ने उन्हें हाशिए पर डालने की सोची-समझी नीति पर चलना शुरू कर दिया। बस यही वह समय था जब राजनीतिक पंडित यह मानने लगे कि सिंधिया की यह सोची समझी उपेक्षा कांग्रेस सरकार को बहुत महंगी पड़ेगी। आज से एक साल पूर्व दस मार्च को आखिरकार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर तत्कालीन कमलनाथ सरकार के पराभव की पटकथा लिख दी।
                  
सिंधिया के उस फैसले के लिए कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने उन्हें जी भर कर कोसने में कोई कोताही नहीं बरती इन नेताओं में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी शामिल थे जिनसे सिंधिया की गहरी मित्रता सर्वविदित थी। उन्होंने सिंधिया के कांग्रेस पार्टी छोड़ने के फैसले को मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा से प्रेरित बताया था। आज जब भारतीय जनता पार्टी में ज्योतिरादित्य सिंधिया अपना एक साल पूरा कर चुके हैं तब एक बार राहुल गांधी ने अपना वही बयान पुनः दोहराया है। यह निःसंदेह आश्चर्य की बात है कि राहुल गांधी न तब यह समझ पाए और न अब समझ पा रहे हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मन में मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा संजोकर कांग्रेस पार्टी नहीं छोड़ी थी। कांग्रेस पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल होते समय ही उन्होंने यह तय कर लिया था कि राज्य में सत्ता परिवर्तन की जो पटकथा वे लिखने जा रहे हैं उसमें खुद के लिए मुख्यमंत्री पद की दावेदारी का अध्याय वे नहीं जोड़ेंगे। 
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राहुल गांधी यह कैसे भूल रहे हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो राज्य में सत्ता परिवर्तन होने पर स्वयं ही शिवराजसिंह ‌चौहान को मुख्यमंत्री पद के सर्वथा उपयुक्त बताया था। दरअसल राज्य विधानसभा के पिछले चुनावों में कांग्रेस पार्टी जब सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर बसपा और निर्दलीय विधायकों के सहयोग से सरकार बनाने में सफल हो गई तो वह खुशी से फूली नहीं समा रही थी। सत्ता से 15 सालों का निर्वासन समाप्त होने की खुशी उससे संभाले नहीं संभल रही थी परन्तु सत्ता हासिल  के लिए चुनाव प्रचार के दौरान उसने प्रदेश के मतदाताओं से जो लुभावने वादे किए थे उन वादों को पूरा करने के लिए आवश्यक इच्छा शक्ति के अभाव ने जल्दी ही तत्कालीन कमलनाथ सरकार से जनता का मोहभंग कर दिया और कुछ ही दिनों में प्रदेश की जनता इस नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश हो गई कि जिस सरकार का अधिकांश समय विधानसभा  चुनावों में किए गए वादों को पूरा करने के बजाय अपने आपसी झगड़ों को निपटाने में ही जाया हो रहा है उसकी सत्ता से जितनी जल्दी विदाई संभव हो ‌जाए उतना ही अच्छा है।
इस कड़वी हकीकत का अहसास करने से कमलनाथ तो चूक गए परंतु चुनावों में कांग्रेस की विजय सुनिश्चित करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोकप्रिय युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस स्थिति को जल्दी ही भांप लिया और उन्होंने अपने राजनीतिक नफा-नुकसान की परवाह न करते हुए तत्कालीन कमलनाथ सरकार को समय रहते सचेत भी कर दिया कि यदि विधानसभा चुनावों के दौरान जनता से किए गए ‌वादों‌ को जल्द ही पूरा नहीं किया गया तो वे सरकार पर दबाव बनाने के लिए अपने समर्थकों के साथ सड़कों पर उतरने में भी कोई संकोच नहीं करेंगे। पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अगर उस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया सिंधिया की चेतावनी को गंभीरता से लिया होता तो शायद मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन की अपरिहार्यता की स्थिति निर्मित होना नामुमकिन था परन्तु सत्ता के अहंकार में चूर कमलनाथ ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को सड़क पर उतरने की चुनौती देने का जो दुस्साहस किया वह उनके संपूर्ण राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल साबित हुआ। 
सिंधिया ने कांग्रेस ‌पार्टी को केवल अलविदा नहीं कहा बल्कि उन्होंने काफी सोच विचार कर यह फैसला किया कि वे अब उस पार्टी को मजबूत करने में अपनी पूरी ताकत लगाएंगे जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपार लोकप्रियता ने विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का गौरव प्रदान किया है इसलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया ने  अपने समर्थकों के साथ उन्होंने  भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने का फैसला कर सबको अचरज में डाल दिया। और उनके भाजपा में शामिल होते ही राज्य में सत्ता परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त हो गया। 
 
ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में शामिल हुए एक साल बीत चुका है। उस समय कांग्रेस के जिन 22 विधायकों ने उनके फैसले का समर्थन करते हुए भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी उनमें से अधिकांश समर्थक उपचुनावों में विजयी होकर दुबारा विधानसभा में पहुंच चुके हैं। भाजपा ने सिंधिया को राज्यसभा में भेजकर उनके अंदर मौजूद  राजनीतिक प्रतिभा  का जो सम्मान किया है उससे भी बड़ा सम्मान पाने के वे अधिकारी हैं। 
आश्चर्य की बात है कि जिस कांग्रेस पार्टी को इन दिनों देश के गिने चुने राज्यों में ही सत्ता पर पकड़ बनाने रखने में ‌पसीना छूट रहा है उसके पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी अभी भी ‌यह हास्यास्पद तर्क देने में संकोच नहीं कर रहे हैं कि सिंधिया कांग्रेस में बने रह कर मुख्यमंत्री बन सकते थे। दरअसल अब तक तो उन्हें इस हकीकत का अहसास हो ‌जाना चाहिए था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे प्रतिभाशाली राजनेता को खोने की कांग्रेस को बड़ी महंगी कीमत चुकानी पड़ी है।आज अगर ‌वे यह तर्क दे रहे हैं कि सिंधिया को मुख्यमंत्री बनने ‌के‌ लिए कांग्रेस में ही लौटना पड़ेगा तो यह ‌सिंधिया के लिए परोक्ष आमंत्रण जैसा ही है। 
अंत में, इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि सिंधिया भले ही अपने गुट के अधिकांश विधायकों को शिवराज सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय आवंटित करवाने में ‌सफल हो‌ गए हों परन्तु जब तक प्रधानमंत्री मोदी उन्हें अपनी सरकार में मंत्री पद से नहीं नवाजते तक उनका मिशन‌ अधूरा ही माना जाएगा।
 

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