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Mahabharat 11 May Episode 89-90 : जब खुला दुर्योधन और पांडवों के समक्ष कर्ण का राज

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अनिरुद्ध जोशी

, सोमवार, 11 मई 2020 (20:03 IST)
बीआर चौपड़ा की महाभारत के 11 मई 2020 के सुबह और शाम के 89 और 90वें एपिसोड में बताया जाता है कि कर्ण द्वारा युद्ध में अर्जुन को छोड़ दिए जाने के बाद दुर्योधन, कर्ण और शकुनि में बहस होती है। कर्ण कहता है कि तुमने मेरी निष्ठा कर संदेह प्रकट किया तभी तो तुम बार-बार सूर्यास्त का राग अलाप रहे हो। तब कर्ण कहता है कि मैं कल फिर युद्ध करूंगा और कल का युद्ध इतिहास सदा याद रखेगा।

बीआर चोपड़ा की महाभारत में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें... वेबदुनिया महाभारत
 
उधर, द्रौपदी से अर्जुन कहते हैं कि तुम अपने अपमान को बार-बार बीच में न लाओ द्रौपदी। यह युद्ध तुम्हारे अपमान से कहीं बड़ा है। इस रणभूमि में हम अपने पूर्वजों का लहू बहा रहे हैं। इसलिए अपने केश में लगे लहू को धो डालों। तुम्हारे स्वाभिमान से बड़ा है हस्तिनापुर। तब द्रौपदी कहती है कि अर्थात तुम कर्ण वध नहीं करोगे? तब अर्जुन कहते हैं कि ये मत समझो। 
उधर, शिविर में नींद में कर्ण कहता हैं कि मुझे बस एक दिन के लिए अपने श्राप से मुक्त कर दीजिए। तब स्वप्न में उसे परशुराम नजर आते हैं और कहते हैं कि कल ही के दिन के लिए तो मैंने तुम्हें श्राप दिया था दानवीर कर्ण कि तुम अपनी विद्या भुल जाओगे। तभी माता कुंती आकर सोये हुए कर्ण के सिर पर हाथ फेर देती है तो उसकी नींद खुल जाती है। दोनों के बीच मार्मिक संवाद होता है। दोनों की आंखों में आंसू आ जाते हैं।
 
उधर, धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि तुम इतनी देर से चुपचाप बैठे-बैठे क्या देख रहे हो संजय? तब संजय बताते हैं माता कुंती की आंखों में आंसू है और वह पांडवों के नहीं, आपके शिविर में आपके पुत्रों के लिए आंसू बहा रही है।
 
इधर, कुंती रात्रि में भीष्म पितामह से मिलने जाती हैं। दोनों के बीच अर्जुन और कर्ण के बीच युद्ध को लेकर चर्चा होती है और दोनों ही इसको लेकर दुखी होते हैं। कुंती कहती हैं कि युद्ध चाहे जिस लिए भी हो रहा हो तातश्री, किंतु इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले हमारे ही पुत्र हैं। 
उधर शिविर में अर्जुन और नकुल के बीच कर्ण को लेकर चर्चा होती है कि वह कितना शक्तिशाली है। इसलिए उसके लिए मैं सर्वोत्तम बाण चुन रहा हूं। दूसरी ओर कर्ण शिविर में सोये रहते हैं। तभी उन्हें उस ब्राह्मण का वह श्राप याद आता है जिसमें कर्ण द्वारा उसके निरीह बछड़े को मार देने के बाद ब्राह्मण श्राप देता है कि जिस तरह तुम अपने रथ पर चढ़कर एक ब्राह्मण और एक बछड़े से ऊंचे हो जाते हो, वही रथ एक दिन तुम्हें त्याग देगा। जब तुम अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध कर रहे होंगे। भय का राक्षस चारों और घुम रहा होगा। भूमि तुम्हारे रथ के पहिये को निगल जाएगी।...कर्ण चौंककर का उठ जाता है। फिर कर्ण और गांधारी संवाद होता है।
 
अगले दिन युद्ध में कृपाचार्य और धृष्टद्युम्न का युद्ध होता है तो दूसरी ओर दुर्योधन और युधिष्ठिर का। दुर्योधन युद्ध में घायल हो जाता है। उधर कर्ण नकुल और सहदेव को घायल करने के बाद कहता है कि युद्ध बराबरी वालों के साथ किया जाता है जाओ अपने शिविर लौट जाओ। यह देखकर कर्ण के सारथी शल्य कहते हैं कि क्या तुमने उसे मेरा भांजा समझ कर छोड़ दिया अंगराज कर्ण? तब कर्ण कहता है नहीं। आप मेरे रथ को युधिष्ठिर के रथ की ओर ले चलो। वहां पहुंचकर कर्ण घायल दुर्योधन को बचाकर युधिष्ठिर से युद्ध करने लगता है। युधिष्ठिर के धनुष और तलवार को कर्ण तीर से दूसरी ओर फेंककर युधिष्ठिर को असहाय कर देता है। तब वह युधिष्ठिर के पास जाकर कहता है कि तुम तो आचार्य द्रोण की सिखाई शिक्षा को भूल चुके हो धर्मराज युधिष्ठिर, तो तुमसे मैं क्या युद्ध करूं? रथ आगे बढ़ाइये मद्र नरेश और अर्जुन के पास ले चलिए।
शल्य फिर से कर्ण को अर्जुन का भय दिखाता है। तक कर्ण कहते हैं कि आपने भी ‍अभी मेरे विजय धनुष की टंकार नहीं सुनी है मद्र नरेश। फिर अर्जुन और कर्ण दोनों में घमासान युद्ध होता है। फिर कर्ण अर्जुन के धनुष की प्रत्यंचा तोड़ देते हैं। ऐसा दो बार होता है। हर तरह से अर्जुन को असहाय देख श्रीकृष्ण सोच में पड़ जाते हैं। उधर, कर्ण व्यंग से कहता है अपने सारथी मद्र नरेश से कि आप देख रहे हैं मद्र नरेश आप सही कहते थे कि अर्जुन तो अर्जुन है।
 
इधर, श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अब दिव्यास्त्र का प्रयोग करो पार्थ। अर्जुन दिव्यास्त्र का आह्वान करता है तो उसके हाथ में एक अस्त्र आ जाता है। तभी उधर, कर्ण के रथ का पहिया एक गड्ढे में धंस जाता है। यह देखकर कर्ण चीखता है- हे ब्राह्मण तुम मेरे रथ के पहिये को धरती में धंसा सकते हो लेकिन मेरे धनुष से चलने वाले ब्रह्मास्त्र को नहीं रोक सकते। यह कहते हुए कर्ण ब्रह्मास्त्र का आह्‍वान करता है लेकिन परशुराम के श्राप के चलते उसके हाथ में अस्त्र आता ही नहीं है। तब असहाय कर्ण कहते हैं कि हे अर्जुन मेरे रथ का पहिया भूमि में धंस गया है। मैं उसे निकालने के लिए रथ से उतर रहा हूं। इसलिए अपने बाणों को रोक लो। अर्जुन ऐसा ही करता है।
 
तब कर्ण रथ से उतरकर भूमि में धंसे रथ के पहिये को निकालने का प्रयास करते हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि देख क्या रहे हो पार्थ? अर्जुन कहते हैं कि मैं रथ पर हूं केशव और वो पैदल है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि युद्ध में रथ तो टूटते रहते हैं। वो महारथी है दूसरे रथ पर क्यों नहीं जाता? तब अर्जुन कहते हैं कि ये युद्ध के नियमों के विरुद्ध हे केशव। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अंगराज कर्ण ने कब युद्ध नियमों का पालन किया था पार्थ? वो दुर्योधन के हर कपट का भागिदार है। भूल गए वो दिन जब इस कर्ण ने द्रौपदी को वैश्या कहा था और भूल गए जब इसी कर्ण ने अभिमन्यु वध में सबका साथ दिया था। तब अभिमन्यु भी पैदल ही था पार्थ और इसी के भांति निहत्था भी था।
 
यह सुनकर अर्जुन क्रोधित और दुखी होकर प्रत्यंचा चढ़ाकर असहाय कर्ण पर दिव्यास्त्र तान देता है। यह देखकर कर्ण भयभीत हो जाता है। अभिमन्यु को याद करते हुए अर्जुन तीर छोड़ देता है। तीर सीधा कर्ण की गर्दन को उड़ाकर भूमि में धंसा देता है। कर्ण का कटा सिर तीर के साथ भूमि में धंस जाता है।
शाम के एपिसोड में दुर्योधन को छोड़कर कर्ण के आसपास अश्वत्थामा, कृपाचार्य, शकुनि आदि एकत्रित होते हैं। अश्वत्थामा कर्ण के सिर को उठाकर धड़ के पास रख देता है। शकुनि रोते हुए कहता है कि तुम बड़े वीर थे लेकिन मैंने कभी तुम्हें आदर नहीं दिया राधेय। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं।
 
यह सूचना देने के लिए मद्र नरेश दुर्योधन के शिविर में पहुंचते हैं। कर्ण के वध की सूचना पाकर दुर्योधन बदहवास हो जाता है और इस सूचना पर विश्वास नहीं करता। तब मद्र नरेश कहते हैं कि मैं अंगराज कर्ण का सारथी था। मैं उसकी रक्षा नहीं कर पाया, किंतु मैं उसकी वीरता और अर्जुन की कायरता का साक्षी हूं। हे गांधारीनंदन कर्ण जैसे वीर केवल एक ही बार जन्म लेते हैं। दुर्योधन भूमि पर गिर पड़ता है और कहता है कि मद्र नरेश मुझे अपने मित्र कर्ण के बिना जीना नहीं आता मद्र नरेश। फिर दुर्योधन मद्र नरेश को सेनापति नियुक्त कर देता है।
 
अगले दिन के युद्ध में मद्र नरेश शल्य का युधिष्ठिर वध कर देते हैं तो दूसरी ओर सहदेव शकुनि का वध कर देता है।
 
इसके बाद रात्रि में दुर्योधन पितामह भीष्म के पास जाकर रोते हुए कहता है। पितामह आज मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूं पितामह। भीष्म पितामह कहते हैं कि हे वत्स क्षत्रिय का यूं रोना शोभा नहीं देता। राधेय की मृत्यु तो उसके जीवन का एक प्रसाद है वत्स और उसे राधेय न कहो वो कौंतेय था। यह सुनकर दुर्योधन सन्न रह जाता है। तब भीष्म कहते हैं कि और कर्ण ये जानता था कि वह कौंतेय है फिर भी वह तुम्हारे पक्ष में लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गया।
 
दुर्योधन कहते हैं कि तो क्या वह कौंतेय था पितामह? भीष्म कहते हैं हां और मैं कुंती के ज्येष्ठ पुत्र को प्रणाम करता हूं यह सुनकर दुर्योधन की आंखें फटी की फटी रह जाती है।
दूसरी ओर कुंती अकेली युद्ध भूमि में कर्ण के शव के पास जाती है और फूट-फूट कर रोने लगती है। तभी वहां श्रीकृष्ण के साथ पांचों पांडव आ जाते हैं। युधिष्ठर कहता है माताश्री हमारे इस प्रधान शत्रु के शव के पास बैठी हुई आप क्यूं रो रही हैं? तब युधिष्ठर के कंधे पर हाथ रखकर श्रीकृष्ण कहते हैं, इन्हें रोने दीजिये बड़े भैया। इन्हें रोने दीजिये, चलो यहां से।
 
तब युधिष्ठर कहते हैं कि नहीं वासुदेव माताश्री को यूं छोड़कर हम नहीं जा सकते। माताश्री कृपया ये बताइये कि आप अंगराज कर्ण के शव को अपने आंसुओं से क्यों सम्मानित कर रही हैं? तब कुंती कहती हैं कि ये लो पोंछ दिए मैंने अपने आंसू, अब तुम जाओ। जाओ और जाकर अपने सैनिकों के शव उठवाओ, जाओ। यह कहकर कुंती फिर रोने लगती है।
 
तब अर्जुन कहता है कि किंतु आप यह बताती क्यों नहीं माताश्री कि आप इस सूतपुत्र के शव पर विलाप क्यों कर रही हैं? तब कुंती कहती हैं कि जो बता दिया तो तुम्हारे कांधे से वह गांडिव गिर पड़ेगा पुत्र, जिसके बाणों ने इसकी छाती को छलनी किया है। इसलिए जाओ पुत्र, जाओ और मुझे रोने दो।
 
तब युधिष्ठिर कहते हैं वासुदेव आप माताश्री को समझाते क्यों नहीं कि इस शत्रु पर आंसू बहाकर अपने आंसुओं का अपमान न करें। ये राधेय...तभी कुंती कहती है ये राधेय नहीं है। यह सुनकर अर्जुन पूछते हैं तो फिर ये कौन है? तब कुंती अर्जुन की ओर देखकर कहती है...कौंतेय।
यह सुनकर युधिष्ठिर कहते हैं... कौंतेय? तब कुंती कहती हैं...हां मेरा ज्येष्ठ पुत्र और तुम्हारा ज्येष्ठ भ्राता। यह सुनकर युधिष्ठिर और अर्जुन सन्न रह जाते हैं। अर्जुन कहता है क्या? ये मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं? कुंती हां में गर्दन हिला देती है। श्रीकृष्ण भी यह दृश्य देखते हैं।
 
तब युधिष्ठिर थोड़ा क्रोधित होकर कहता है कि आपने हमने इतनी बड़ी बात छिपाई माताश्री, नहीं। तब कुंती कहती हैं कि हां छिपाई। लेकिन मैंने एक-एक दिन हजार-हजार दिन जैसे गुजारे हैं। जब इसे कोई सूतपुत्र कहता था तो मेरे हृदय में घात हो जाता था किंतु मैं विवश थी।
 
तब युधिष्ठिर कहता है कि आपके मौन ने हजारों लाखों वध करवा दिए माताश्री। आपकी ये विवशता भारतवर्ष को बहुत महंगी पड़ी माताश्री। इस रणभूमि के हर शव के लिए आप उत्तरदायी हैं केवल आप। आपके मौन ने हमें ज्येष्ठ भ्राताश्री का हत्यारा बना दिया। यह कहते हुए युधिष्ठिर रोने लगते हैं। फिर युधिष्ठिर कहते हैं कि आज इस रणभूमि में मैं अपने ज्येष्ठ भ्राताश्री को साक्षी मानकर सारी नारी जाती को ये श्राप देता हूं कि आज के उपरांत वो कभी कोई भेद न छुपा सकेगी। 
 
उधर, गांधारी दुर्योधन से कहती हैं कि मैं तुम्हें विजयश्री का आशीर्वाद तो नहीं दूंगी किंतु यह शिव भक्तिनी एक कवच पहना सकती है। हे पुत्र गंगा जाकर स्नान कर आओ और वहां से सीधे मेरे पास आओ किंतु ऐसे ही जैसे तुम जन्म के समय थे। तब दुर्योधन कहता है नग्न माताश्री? गांधारी कहती है मां के समक्ष कैसी लज्जा? जाओ स्नान करके निर्वस्त्र आओ। दुर्योधन कहता है जो आज्ञा माताश्री।
 
दुर्योधन के जाने के बाद श्रीकृष्ण गांधारी के कक्ष में जाते हैं। गांधारी कहती है कि आओ देवकीनंदन। ये तो तुम्हें याद ही होगा की 17 दिन पहले मैं सौ पुत्रों की मां थीं और अब केवल एक ही पुत्र की मां हूं? श्रीकृष्ण हाथ जोड़कर कहते हैं कि हां माते। इन शवों में एक शव ऐसा भी है जिन्हें आप पहचानकर भी नहीं पहचानती हैं और वह शव है ज्येष्ठ कौंतेय का। तब गांधारी कहती है क्या युधिष्ठिर का? तब श्रीकृष्ण कहते हैं नहीं माता, राधेय था ज्येष्ठ कौंतेय। यह सुनकर गांधारी दंग रह जाती है। श्रीकृष्ण कहते हैं इसलिए ये मत सोचिए माता कि आपके पुत्रों की ओर से मेरी बुआ का कोई पुत्र युद्ध नहीं कर रहा था।
यह राज बताकर श्रीकृष्ण शिविर से बाहर निकलकर जाने लगते हैं तब रास्ते में दुर्योधन नग्न अवस्था में ‍अपनी माता के शिविर में जाता हुआ श्रीकृष्ण को दिखाई देता है। श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं युवराज दुर्योधन आप और इस अवस्था में? तुम अपने वस्त्र कहां भूल आए? और तुम्हारा मुंह तो माता गांधारी के शिविर की ओर है। यह सुनकर दुर्योधन सकपका जाता है।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं क्या तुम अपनी माता के पास इस दशा में जा रहे हो? तब दुर्योधन कहता है कि माताश्री का यही आदेश था। तब श्रीकृष्ण कहते हैं किंतु वो तुम्हारी माता है। उन्होंने अनेक बार तुम्हें गोदी में लिया होगा। तुम तो पुत्र हो लेकिन अब एक वयस्क पुत्र हो और कोई वयस्क अपनी माता के सामने पूर्ण नग्न नहीं जाता युवराज। भरतवंश की तो ये परंपरा नहीं है? फिर श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं किंतु तुमने तो भरतवंश की परंपरा का पालन करना कभी का छोड़ दिया। जाओ जाओ माता को प्रतीक्षा नहीं करवाना चाहिए, जाओ। यह कहते हुए श्री हंसते हुए वहां से चले जाते हैं।
 
तब दुर्योधन सोच में पड़ जाता है और फिर वह अपने गुप्तांगों पर केल के पत्ते लपेटकर माता गांधारी के समक्ष उपस्थित हो जाता है और कहता है कि मैं स्नान करके आ गया माताश्री। तब गांधारी कहती है मैं क्षणभर के लिए अपनी आंखों पर बंधी ये पट्टी खोलने जा रही हूं। मैंने तुम्हारे भाइयों को तो नहीं देखा। मैं तुम्हें आज देखूंगी।
 
ऐसा कहकर गांधारी अपनी आंखों की पट्टी खोलकर दुर्योधन को देखती है तो उसकी आंखों से प्रकाश निकलकर दुर्योधन के शरीर पर गिरता है। बाद में गांधारी देखती है कि ये क्या दुर्योधन ने तो अपने गुप्तांग छुपा रखे हैं। तब वो कहती है ये तुमने क्या किया पुत्र? तब दुर्योधन कहता है कि मैं आपके सामने नग्न कैसे आता माताश्री? तब गांधारी कहतीALSO READ: Mahabharat 29 April Episode 65-66 : श्रीकृष्ण को बंदी बनाने का आदेश, कर्ण की सत्यकथा है किंतु मैंने तो तुम्हें यही आदेश दिया था। 
 
दुखी होकर वह पुन: अपनी आंखों की पट्टी बांध लेती हैं। फिर वह कहती हैं, तुम्हारे शरीर का वह भाग जिस पर मेरी दृष्टि पड़ी ही नहीं, दुर्बल रह गया पुत्र। शरीर का शेष भाग वज्र का हो गया। यदि तुम बड़ों का आदेश मानने की परंपरा भूले ना होते तो अजेय हो गए होते पुत्र।
 
यह सुनकर दुर्योधन कहता है कि तो मैं ये केले के पत्ते हटा देता हूं माताश्री। तब गांधारी कहती है कि मैं कोई मायावी नहीं हूं। मैंने उस एक दृष्टि में अपनी भक्ति, अपना सतित्व और अपनी ममता की सारी शक्ति मिला दी थी पुत्र।
 
तब दुर्योधन कहता है कि आप चिंता न करें माताश्री। मैं कल भीम से गया युद्ध करूंगा और गदा युद्ध के नियम के अनुसार कमर के नीचे प्रहार करना वर्जित है। कल में उसको इतनी मार मारूंगा कि वह घबराकर विरगति को प्राप्त हो जाएगा। फिर चाहे इस युद्ध का अंत कुछ भी हो।
 
इधर, पांचों पांडव कर्ण की चिता तैयार कर उसकी चिता में अग्नि लगाने ही वाले होते हैं तभी दुर्योधन वहां पहुंचकर कहता है रुक जाइये भ्राताश्री। आप इसका दाह संस्कार नहीं कर सकते। मैं जानता हूं भ्राताश्री की मेरा मित्र आपका बड़ा भाई था। परंतु ये शव आपके बड़े भाई का नहीं, राधेय का है और राधेय की चिता पर आपका कोई अधिकार नहीं है। राधेय की चिता पर केवल मेरा अधिकार है। तब भीम कहता है कि ये बात तुमने सूर्योदय के समय कही होती तो मैं तुम्हारा वध कर देता। तब दुर्योधन कहता है तो सूर्योदय की प्रतीक्षा कर लो भीमसेन। किंतु ये शव किसी कौंतेय का नहीं है और हे अर्जुन तुमने बाण अपने भाई पर चलाए थे या मेरे मित्र राधेय पर?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुर्योधन ठीक कह रहे हैं बड़े भैया। राधेय के शव पर इनका अधिकार हम सबसे अधिक है। यह सुनकर युधिष्ठिर जलती हुई मशाल को दुर्योधन को सौंप देता है।
 
तब दुर्योधन कर्ण के सामने खड़ा होकर कहता है, हे मित्र यदि मेरी मृत्यु मेरे सामने खड़ी होगी तो तुम्हारी याद आएगी और मृत्यु का भय जाता रहेगा। हे मित्र जब तक इस संसार में यह जीवन रहेगा, तुम मित्रता का प्रतीक बनकर सैदव जीवित रहोगे। तुम धन्य हो राधेय तुम धन्य हो।
 
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