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गांधी जी की पुण्यतिथि पर कविता : तीस जनवरी
रेखा भाटिया
प्रात:काल का समय, रोजमर्रा की जिंदगी,
उलझी अंगुलियां-दिमाग, स्वत: चलते,
मस्तिष्क पर थोड़ा जोर डाला, कुछ याद आया,
खींचकर पर्स से, चेकबुक बाहर निकाली।
मेरा योगदान! गुरुओं के लिए उपहार था खरीदना,
हाथ में कलम, चेक पर कुछ शब्द भरे, कुछ संख्या,
तारीख पर कलम सरकी कौंध गया मेरा भीतर,
लाठी लिए चादर ओढ़े, एक आकृति उभरी मस्तिष्क में।
आज तीस तारीख है, पुण्यतिथि महान गुरु की,
वो अच्छे आदमी थे, कहीं पढ़ा था,
वे अहिंसा के गुरु, आजादी के गुरु,
सच्चाई के मापदंड, अच्छाई के प्रतिबिम्ब।
उन्नीसवीं सदी के, बीसवीं सदी के महानायक,
जब अच्छी जनता की आत्मा में उनका वास था,
अच्छे नेता अच्छाई के लिए, जिनकी कसमें खाते थे,
तपती धूप का आंचल ओढ़, तपती सड़क पर कठोर कदम बढ़ाते।
आजादी के चमकते सूरज की ओर बढ़ चले थे,
अहिंसा की लाठी और सत्य की चादर ओढ़े,
कठिन राहों पर, अच्छी जनता ने पीछे चलकर,
कई बलिदान दे, दिया था अपना योगदान।
इक्कीसवीं सदी की तीस तारीख है, लिख रही हूं मैं एक चेक,
दे रही हूं अपना योगदान, गुरु दक्षिणा के रूप में,
अपनी आज की युवा पीढ़ी के गुरुओं के प्रति।
सत्तर साल के युवा भ्रष्टाचार के प्रति,
जो अब बहुत बलवान हो चुका है,
वो अच्छा आदमी अब बूढ़ा हो चला है,
देश के पाठशालाओं में, विश्वविद्यालयों के हर कोने में,
तस्वीरों में सज चुका है।
प्रात:काल के व्यस्त उलझे क्षणों में,
मूक आत्मा के दो आंसू आंखों के कोरों से,
रास्ता बना बाहर टपक पड़े,
सरकती कलम ने तारीख भर दी तीस जनवरी!
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