भगवान महावीर का जन्म

पुनर्भवों की साधना का ‍परिणाम

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- महावीर सरन जैन

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जैन ग्रंथों में भगवान महावीर के पूर्व भवों का वर्णन मिलता है। इतिहास इसकी पुष्टि नहीं करता। प्रश्न उपस्थित होता है कि इस प्रकार के पौराणिक विवरणों को प्रस्तुत करने की क्या सार्थकता है?

मेरी दृष्टि में इसके प्रस्तुतीकरण का महत्व दो कारणों से है। एक तो इससे जैन धर्म की तत्संबंधी विशिष्ट मान्यताओं की जानकारी प्राप्त होती है, दूसरे इससे पाठक को यह सहज प्रतीति हो सकेगी कि किस प्रकार प्राणी उत्तरोत्तर विकास कर आत्मसाक्षात्कार कर, परम पद की प्राप्ति कर सकता है।

पूर्व जन्मों में महावीर एक संसारी जीव मात्र थ। वे न तो 'अमरत्व के अधीश्वर' थे और न सच्चिदानंद स्वरूप, अरूप, अव्यक्त, अनाम, अनंत, निर्विकल्प, निरवयव तथा देशकाल परिच्छेद रहित ब्रह्म। उनका जन्म निर्गुण से सगुण तथा निराकार से साकार होने की घटना नहीं है। उनका जन्म किसी अवतार का पृथ्वी पर शरीर धारण करना नहीं है।

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उनके ‍जीवन-चरित का इतिवृत्त एक सामान्य जीव का अपने विकारों पर चरम पुरुषार्थ एवं तप, त्याग, साधना द्वारा विजय प्राप्त करने के बाद निज स्वरूप को प्राप्त करने की गाथा है।

इस कारण उनका जीवन आकाश से पृथ्वी पर उतरना नहीं है। पृथ्वी स उत्तरोत्तर विकास करते हुए इतना उठना है कि इसके बाद उठने की कोई सीमा ही शेष न रहे। उनका जन्म नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है, नर का ही नारायण हो जाना है।

प्रत्येक जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करता चला आ रहा है। महावीर के जीव के भी असंख्यात पर्याय-जन्म होंगे। जीव के असंख्यात पर्याय-जन्मों का तब तक महत्व नहीं, जब तक कि वह आत्मचेतना के साक्षात्कार के लिए कोई प्रयास नहीं करता।

महावीर के जीव के संख्यातीत जन्मों में आत्मचेतना के साक्षात्कार का आरंभ पुरुरवा ‍भील का भव अथवा नयसार का भव से होता है। इसी कारण महावीर के पूर्व भवों का समारंभ इसी भव के वर्णन से करना प्रासंगिक है।

साभार - भगवान महावीर एवं जैन दर्शन

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