* भगवान महावीर ने प्राणीमात्र की हितैषिता एवं उसके कल्याण की दृष्टि से धर्म की व्याख्या की।
आपने कहा : ' धम्मो मंगल मुक्किट्ठं. अहिंसा संजमो तवो' ( धर्म उत्कृष्ट मंगल है। वह अहिंसा, संयम, तप रूप है) एक धर्म ही रक्षा करने वाला है। धर्म के सिवाय संसार में कोई भी मनुष्य का रक्षक नहीं है।
गणधर सुधर्मी ने अपने शिष्य आर्य जम्बू को महावीर के प्रवचन का हेतु सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय एवं सर्वजन समाचरणाय बतलाया : ' सव्व जगजीव रखण दयट्ठयाए भगवया पावयणं सुकहियं' ।
* धर्म भावना से चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म से वृत्तियों का उन्नयन होता है। धर्म व्यक्ति की पाशविकता को समूल नष्ट करता है। धर्म व्यक्ति में मानवीयता व सामाजिकता के गुणों का उद्रेक करता है। धर्म व्यक्ति के आचरण को पवित्र एवं शुद्ध बनाता है। धर्म से सृष्टि के प्रति करुणा एवं अपनत्व की भावना उत्पन्न होती है।
इसी कारण भगवान महावीर ने कहा : ' एगा धम्म पडिमा, जं से आया पवज्जवजाए', ( धर्म एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुद्धिकरण होता है)।
* मनुष्य को अपने जीवन में जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। धारण करने योग्य क्या है? 'क्या हिंसा, क्रूरता, कठोरता, अपवित्रता, अहंकार, क्रोध, असत्य, असंयम, व्यभिचार, परिग्रह आदि विकार धारण करने योग्य हैं?' यदि संसार का प्रत्येक व्यक्ति हिंसक हो जाए तो समाज का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा, सर्वत्र भय, अशांति एवं पाशविकता का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा।
यदि समाज के सभी व्यक्ति यौन-मर्यादा के नैतिक एवं सामाजिक बंधनों को तोड़ने लग जाएं तो क्या परिवार की कल्पना की जा सकेगी, सामाजिक संबंधों की स्थापना हो सकेगी।
यदि सभी व्यक्ति असंयमी, परिग्रही एवं व्यभिचारी हो जाएंगे तो इसकी परिणति क्या होगी। इन्द्रिय भोगों की तृप्ति असंख्य भोग सामग्रियों के निर्बाध सेवन एवं संयम-शून्य कामाचार से संभव नहीं है।
साभार- भगवान महावीर एवं जैन दर्श न