जब भगवान से यह जिज्ञासा व्यक्त की गई कि आत्मा आंखों से क्यों नहीं दिखाई देती? तथा इस आधार पर आत्मा के अस्तित्व के संबंध में शंका व्यक्त की गई तो भगवान ने उत्तर दिया :
' भवन के सब दरवाजे एवं खिड़कियां बंद करने के बाद भी जब भवन के अंदर संगीत की मधुर ध्वनि होती है, तब आप उसे भवन के बाहर निकलते हुए नहीं देख पाते। आंखों से दिखाई न पड़ने के बावजूद संगीत की मधुर ध्वनि बाहर खड़े श्रोताओं को आच्छादित करती है। संगीत की ध्वनि पौद्गलिक (भौतिक द्रव्य) है। फिर भी आंखों को दिखाई नहीं देती। आंखें अरूपी आत्मा को किस प्रकार देख सकती हैं? अमूर्त्तिक आत्मा को इन्द्रिय दर्शन नहीं होता, अनुभूति होती है।
प्रत्येक आत्मा में परम ज्योति समाहित है। प्रत्येक चेतन में परम चेतन समाहित है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में स्वतंत्र, मुक्त, निर्लेप एवं निर्विकार है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकती है। शुद्ध तात्विक दृष्टि से जो परमात्मा है, वही मैं हूं और जो मैं हूं वही परमात्मा है। इस तरह मैं ही अपना उपास्य हूं। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है :
' य: परमात्मा स एवाऽहं स परमस्तत:।
अहमेव मयोपास्यो, नान्य: कश्चिदिति स्थिति:। ।
मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है। भगवान महावीर का कर्मवाद भाग्यवाद नहीं है, भाग्य का निर्माता है। बाह्य जगत की कल्पित शक्तियों के पूजन से नहीं, अपितु अंतरात्मा के दर्शन एवं परिष्कार से कल्याण संभव है। शास्त्रों के पढ़ने मात्र से उद्धार संभव नहीं है।
यदि चित्त में राग एवं द्वेष है तो समस्त शास्त्रों में निष्णात होते हुए भी व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। क्या लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर के सामने शरणागत होना ही अध्यात्म साधना है? क्या धर्म-साधना की फल-परिणति सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति में निहित है? सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के उद्देश्य से आराध्य की भक्ति धर्म है अथवा सांसारिक इच्छाओं के संयमन के लिए साधना-मार्ग पर आगे बढ़ना धर्म है? क्या बाह्य आचार की प्रक्रिया को धर्म-साधना का प्राण माना जा सकता है? धर्म की सार्थकता वस्तुओं एवं पदार्थों के संग्रह में है अथवा राग-द्वेषरहित होने में है? धर्म का रहस्य संग्रह, भोग, परिग्रह, ममत्व, अहंकार आदि के पोषण में है अथवा अहिंसा, संयम, तप, त्याग आदि के आचरण में?
आत्मस्वरूप का साक्षात्कार अहंकार एवं ममत्व के विस्तार से संभव नहीं है। अपने को पहचानने के लिए अंदर झांकना होता है, अंतश्चेतना की गहराइयों में उतरना होता है। धार्मिक व्यक्ति कभी स्वार्थी नहीं हो सकता। आत्म-गवेषक अपनी आत्मा से जब साक्षात्कार करता है तो वह 'एक' को जानकर 'सब' को जान लेता है, पहचान लेता है, सबसे अपनत्व-भाव स्थापित कर लेता है। आत्मानुसंधान की यात्रा में व्यक्ति एकाकी नहीं रह जाता, उसके लिए सृष्टि का प्राणी मात्र आत्मतुल्य हो जाता है।