महावीर स्वामी की दृष्टि में 'हिंसा और अहिंसा'

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- अहिंसा परम धर्म - भगवान महावीर
 

 
महावीर की दृष्टि में अहिंसा परम धर्म है। वे अहिंसा को धर्म की आंख से नहीं बल्कि धर्म को अहिंसा की आंख से देखते हैं। अहिंसा पर जितना जोर महावीर ने दिया है उतना शायद ही किसी अन्य महापुरुष ने दिया हो।
 
बेहद स्थूल और संकीर्ण अर्थ में तो प्राणियों का वध करना हिंसा और वध न करना अहिंसा है। पर महावीर की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का अर्थ जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे बहुत सूक्ष्म और व्यापक है। जैन ग्रंथों में हिंसा के साधारणतः चार प्रकारों का संकेत मिलता है : - 

* आरंभी- जीवन को बनाए रखने के लिए थोड़ी बहुत हिंसा तो होगी ही। चलने-फिरने, नहाने-धोने, उठने-बैठने, खाना बनाने जैसे कामों में जो हिंसा होती है वह आरंभी हिंसा है। 

* उद्योगी- नौकरी, खेती, उद्योग, व्यापार आदि जीवकोपार्जन के साधन अपनाने में जो हिंसा होती है वह उद्योगी हिंसा है।

* प्रतिरोधी हिंसा- अपने सम्मान, संपत्ति और देश की रक्षा करने में, आतंक और आक्रमण के विरुद्ध उठ खड़े होने में जो हिंसा होती है वह प्रतिरोधी हिंसा है। आज की दुनिया में यह आए दिन की जरूरत बनती जा रही है।

 
* संकल्पी- युद्ध थोपने, सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने, शिकार करने, धार्मिक अनुष्ठानों में बलि चढ़ाने, दूसरों को गुलाम बनाने, गैर की जमीन हड़पने, गर्भपात करने/कराने, सत्ता और बाजार पर काबिज होने आदि में जो हिंसा होती है वह संकल्पी हिंसा है।

आरंभी, उद्योगी और प्रतिरोधी हिंसाएं ही हैं तो सही, पर इनसे पूरी तरह बचना संभव नहीं है। ऐसे में इनमें हमारी दृष्टि न्यूनतम हिंसा की रहनी चाहिए। ये हिंसाएं हमारी मजबूरी हों, हमारे राग-द्वेष आदि की, हमारे अहंकार की उपज नहीं। 

संकल्पी हिंसा न जीवन के लिए जरूरी है न देश और परिवार के लिए। अपने राग, द्वेष और अहंकार के संतोष के लिए ही हम संकल्पी हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। यह आत्मा का पतन करती है और घोर पाप है। महावीर इसका कठोरतापूर्वक निषेध करते हैं।


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