बच्चों के बचपन को सहेजना जरूरी

Webdunia
- अनुराग तागड़े

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बच्चों से माता-पिता की अपेक्षाएँ काफी बढ़ गई हैं और अधिकांश पालकों से बातचीत में यह तथ्य सामने आता है कि हम अपनी इच्छा आकांक्षाएँ बच्चों पर नहीं लाद रहे हैं, बल्कि यह प्रतिस्पर्धा का जमाना है। इस कारण बच्चों को मेहनत कर सफलता तो प्राप्त करना ही होगी। बच्चों के मन में अच्छाई और बुराई के बीच के अंतर को समझाने की अपेक्षा सफलता की परिभाषा ही रटवाते रहते हैं।

बच्चे भावनाओं और प्रेम से ऊपर सफलता को समझने लगते हैं और एक रोबोट की तरह काम करने लगते हैं। इस प्रक्रिया में बचपन कहीं खो-सा जाता है। बच्चों का बचपन माता-पिता की सामाजिक प्रतिष्ठा और आकांक्षाओं की बलि चढ़ जाता है। बचपन मन ही मन रोता होगा, पर उसका रुदन माता-पिता को सुनाई नहीं देता, क्योंकि वे अपने बच्चों को सफलता दिलवाने के लिए स्वयं इस प्रक्रिया में इतने उलझ जाते हैं कि अपने बच्चे की तरफ ही उनका ध्यान नहीं जाता।

गत 5 वर्षों में चैनलों पर बच्चों के लिए भी रियलिटी शो के आयोजन किए गए, जिनमें देश के सभी राज्यों से बच्चों ने भाग लिया था। बच्चों पर सफलता प्राप्त करने का दबाव इतना ज्यादा था कि कोलकाता में एक बच्ची की आवाज ही बंद हो गई। काफी प्रयासों से उसकी आवाज को वापस सामान्य स्थिति में लाया गया।

  बच्चे भावनाओं और प्रेम से ऊपर सफलता को समझने लगते हैं और एक रोबोट की तरह काम करने लगते हैं। इस प्रक्रिया में बचपन कहीं खो-सा जाता है। बच्चों का बचपन माता-पिता की सामाजिक प्रतिष्ठा और आकांक्षाओं की बलि चढ़ जाता है।      
गत दिनों इंदौर में संस्था सानंद द्वारा सानंदोत्सव के अंतर्गत आयोजित लिटिल चैम्प्स कार्यक्रम के दौरान बच्चों व उनके अभिभावकों के अलावा इन बच्चों के साथ लगातार 6 महीनों तक रहने वाले लोगों से मुलाकात हुई। इन सभी ने एक ही स्वर में कहा था कि चैनल से लेकर कार्यक्रम के निर्देशक तक का सबसे पहला उद्देश्य यह था कि बच्चों के बचपन को सहेजा जाए और उसके बाद ही उनसे गाने की बात की जाए।

प्रतियोगिता में 5 बच्चों रोहित राउत, प्रथमेश लघाटे, आर्या अंबेकर, मुग्धा वैशंपायन तथा कार्तिकी गायकवाड़ फाइनल राउंड तक पहुँचे। इन बच्चों को लिटिल चैम्प्स बनाने में कमलेश भड़कमकर का योगदान सबसे ज्यादा रहा, परंतु इनका भी यही मानना था कि हम सभी ने आरंभ से ही यह सोचा था कि बच्चों पर अनावश्यक दबाव न पड़े, इसका ध्यान रखा जाए। इस हेतु उन्होंने कई तरह के प्रयास किए।

सभी बच्चों के लिए मनोवैज्ञानिक व संगीतज्ञ वर्षा भावे की नियुक्ति की गई थी। वर्षा ने सभी बच्चों के मनोविज्ञान को समझा। खासतौर पर 9 वर्ष की छोटी मुग्धा वैशंपायन को भी काफी करीब से जाना। ये बच्चे माता-पिता से दूर रहते थे। इस कारण माता-पिता से भी बातचीत कर उन्हें यह समझाया गया कि बच्चों से जब भी बातें करें, उसमें रियलिटी शो के अलावा ही बातें करें और उन पर अनावश्यक दबाव न डालें।

कई बार मुग्धा के साथ यह समस्या आती थी कि वह यह क हती थी कि माता-पिता की याद आ रही है। इस कारण माता-पिता को ही काफी समय तक मुग्धा के साथ रहने के लिए कहा गया। किसी भी गीत को बच्चों को गाने के लिए कहने से पूर्व गीत के इतिहास के अलावा इस गीत को कैसे बनाया आदि की भी जानकारी दी गई, ताकि वे गीत क्यों गा रहे हैं, इसके बारे में उनके विचार बिल्कुल स्पष्ट हो।

कमलेश भड़कमकर के अनुसार वे स्वयं संगीतज्ञ है। इस कारण वे जानते है कि बच्चों से संगीत के बारे में कैसी बातें की जाए। सभी साथी व संगत कालाकारों ने इन बच्चों से दोस्ती कर ली थी। इसके अलावा बच्चों के खान-पान का सबसे ज्यादा ध्यान रखा गया। उन्हें घर का बना ठेठ महाराष्ट्रीयन खाना ही परोसा जाता था, क्योंकि भाग लेने वाले सभी बाल कलाकारों में महाराष्ट्र के गाँवों से भी थे और कुछ ही बच्चे शहरी क्षेत्र के थे।

शो के दौरान इस बात का पूर्ण खयाल रखा गया कि बच्चों की पढ़ाई बिल्कुल भी प्रभावित न हो। सप्ताहभर में भले ही दो या तीन दिन मिलते थे, जब शूटिंग नहीं होती थी। उस दौरान इन बच्चों को अपने शहरों के स्कूलों में भेजने के प्रयत्न भी किए गए और जब भी समय मिलता, इन्हें पढ़ाई करने के लिए भी प्रेरित किया जाता था। इसके अलावा पाँचों में प्रतिस्पर्धा की भावना बिल्कुल समाप्त कर दी गई थी। इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि पाँचों ने यह मान लिया था कि वे सभी विजेता है। कुल मिलाकर जी मराठी के लिटिल चैम्प्स ने यह साबित कर दिया है कि बच्चों के बचपन को सहेजना सबसे महत्वपूर्ण है और अगर यह कर लिया तो बाकी सब कुछ काफी आसान हो जाता है।
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