दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों की ओर बढ़ते इस पर्यटन या पर्यटन की लपेट में आते ग्रामीण जीवन के बीच का रिश्ता उतना सरल और सीधा नहीं होता, जितना ऊपर से दिखाई देता है। पहली बात तो यह कि आजादी के बाद ग्रामीण जीवन में ऊपरी तौर पर बेशक कुछ बदलाव आया हो, गांव की वास्तविक दशा में कोई खास बदलाव नहीं आया है, उल्टे अंदरूनी तौर पर उसकी अपनी आत्मनिर्भर व्यवस्था- कृषि, पुश्तैनी काम-धंधे, ग्रामीणों के बीच का पारस्परिक सद्भाव और अन्याय-अत्याचार के प्रति संवेदनशीलता और कमजोर हो गई है। जातीय विद्वेष, ऊंच-नीच की भावना और सामाजिक न्याय के मसले इस बदले हुए राजनीतिक माहौल में और खराब अवस्था में पहुंच गए हैं।
स्त्रियों की दशा पहले भी खराब थी, वह समुचित शिक्षा-सुरक्षा और बढ़ती व्यावसायिकता के दौर में और भी बदतर अवस्था में पहुंच गई है- गांवों में बलात्कार, अपहरण, दहेज के कारण होने वाली हत्याओं और स्त्रियों के प्रति घरेलू हिंसा की घटनाओं में इन सालों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई है। बेशक स्त्री संगठनों में इस बात को लेकर कुछ जागरूकता आई हो, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र और असर शहरों और बड़े कस्बों तक ही सीमित है, छोटे गांवों और ढाणियों की स्त्री आज भी उतनी ही अकेली और असुरक्षित है। इस पर्यटन व्यवसाय की गांवों में विकसित हो रही उन भौतिक सुविधाओं और अपने आमोद-प्रमोद में तो पूरी दिलचस्पी है, लेकिन ग्रामीणों की इस अन्दरूनी हालत और स्त्री की बिगड़ती दशा पर विचार करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है।
ऐसा नहीं है कि गांव में विकसित हो रहे नए साधनों और सेवाओं का उपयोग गांव के लोग नहीं कर पा रहे हैं, बल्कि ये सारे साधन और सुविधाएं उन मुट्ठी भर लोगों के काम आ रही हैं, जो इन्हें हस्तगत कर पाने में सक्षम हैं। जिनके लिए सुबह-शाम का आहार ही प्राथमिक समस्या है और ऐसे लोगों की तादाद इन पिछले पच्चीस-तीस सालों में आबादी के अनुपात में और बड़ी हो गई है, उनके लिए इन साधनों और सुविधाओं का होना, न-होना लगभग एक-समान है। खुद भारत सरकार के योजना आयोग द्वारा सन 1993- 94 में कॉपनहेगन में सामाजिक विकास पर आयोजित विश्व सम्मेलन में उसी के विशेषज्ञ समूह द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार यह बताया गया था कि भारत में 39.9 प्रतिशत लोग गरीबी की सीमारेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं, उनमें सबसे बड़ी संख्या उन ग्रामीण गरीबों की ही थी, जिन्हें दो-वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता। इनमें बड़ी परियोजनाओं के कारण विस्थापित होने वाले 2.6 करोड़ लोगों और 1.3 करोड़ तपेदिक से पीडि़त लोगों की संख्या शामिल नहीं थी।
भारत की एक प्रमुख विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने विगत 12 अप्रेल 2005 को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ‘फ्रीडम फॉर हंगर’ व्याख्यानमाला के अन्तर्गत खेती के संकट और ग्रामीण भारत की मुसीबत पर अपना व्याख्यान देते हुए कहा था, ‘‘भारत 1991 से ‘डिफ्लेशन’ की नीतियों पर ही चल रहा है, जिनका कृषि क्षेत्र पर बहुत बुरा असर पड़ा है और ग्रामीण लोगों की- खासतौर से ग्रामीण गरीब लोगों की - बड़ी मुसीबत हो रही है। ग्रामीण लोगों के पास आज न तो करने के लिए पर्याप्त काम है, न पेट भरने के लिए पर्याप्त अनाज और न ही पीने के लिए पर्याप्त पानी। मगर न तो केन्द्र और राज्य की सरकारें ग्रामीण भारत की मुसीबत पर ध्यान दे रही हैं, न कोई और ही इस दिशा में कुछ कर रहा है। यहां तक कि इसके बारे में लिखने-बोलने वाले लोग भी बहुत कम हैं और जो लिखते-बोलते हैं, वे भी अक्सर इसके वास्तविक कारणों पर ध्यान नहीं देते।’’
ऐसे दौर में यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि ग्रामीण क्षेत्र में बढ़ती पर्यटन की गतिविधियों से एक आम ग्रामीण की जिन्दगी में दरअसल क्या परिवर्तन आया है, क्या उसकी जीवन-चर्या में इसका कोई सकारात्मक असर दिखाई देता है? तथ्य और आंकड़े तो यही बताते हैं कि इससे उसकी जिन्दगी और जीवन-निर्वाह और कठिन हो गया है, उसका अस्तित्व और अस्मिता दोनों लगभग खतरे के निशान को पार करने लगे हैं।
जो गांव किसी बड़े शहर के करीब थे, उनका अलग अस्तित्व अब समाप्त हो गया है। वे खेत, जिन पर कभी किसानों की फसलें लहलहाती थीं, अब उन पर कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं और वे छोटे या मंझोले किसान, जो उन पर अपने परिवार के लिए दो-जून रोटी कमा लिया करते थे, अब बेगारी और बेरोजगारी के गहरे अंधेरे में धकेल दिए गए हैं। यही हाल राष्ट्रीय राजमार्गों और नए विशेष आर्थिक क्षेत्रों की प्रक्रिया का है। जमीनों की खरीद-फरोख्त से होने वाला मुनाफा उन्हीं कंक्रीट-जंगल के ठेकेदारों के हिस्से में चला गया है, जो इस कारोबारी कला के सबसे कुशल कारीगर हैं।
सन् 1990 के बाद के नए आर्थिक सुधारों ने जो परिस्थितियां पैदा की हैं, उनमें गांव के किसानों और छोटे कारीगरों का तो जो बुरा हाल हुआ है, उससे उबर पाने का कोई रास्ता खुद उन नीति-निर्माताओं के लिए भी एक अजूबी पहेली की तरह हो गया है। हालांकि वे दावा यही करते हैं कि सब-कुछ उन्हीं की सोच-बूझ के अनुरूप हो रहा है और लगातार देश की आर्थिक प्रगति को विश्व-मंच पर इसी तरह पेश किया जा रहा है- विश्व बैंक और विकसित देश भी भारत की इस प्रगति से काफी संतुष्ट दिखाई देते हैं, दुविधा अगर कोई है तो उसी ग्रामीण और निम्न-मध्य वर्ग के शहरी को लेकर है, जिसे अपनी आर्थिक कठिनाइयों से उबर पाने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। सूखा-बाढ़ और आंधी-तूफान के आगे तो असहाय वह सदियों से रहा ही, अब आजाद लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी आर्थिक कठिनाइयों, बेरोजगारी, विस्थापन, भुखमरी और कुपोषण जैसी समस्याओं से लड़ता हुआ वह अपने आपको अकेला और असहाय ही पाता है।
पी. साईनाथ जैसे खरी-खरी लिखने वाले संवेदनशील मीडियाकर्मियों ने अपनी बरसों की मेहनत से ऐसे पीड़ित लोगों के बीच काम करते हुए इनकी वास्तविक समस्याओं को सामने लाने का जो प्रयत्न किया है, वह वाकई काबिले गौर है। खासतौर से उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और विदर्भ के किसानों की गरीबी का हाल बयान करते हुए 25 जून 2005 के ‘दि हिन्दू’ में छपी एक रिपोर्ट में उन्होंने लिखा था - ‘‘विदर्भ में कर्ज के कारण आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा है। और यह तब जबकि उनको गिनने का तरीका भी गलत होता है। एक वरिष्ठ अधिकारी कहता है - ‘हम जो तरीका अपनाते हैं, वह इसकी जांच करने के लिए होता है कि आत्महत्या से हुई मौत का मआवजा दिया जाना चाहिये या नहीं। बस! हमें इससे कोई मतलब नहीं कि आत्महत्या क्यों हुई।’....बहुत-सी आत्महत्याएं कर्ज के कारण की गई आत्महत्याएं नहीं मानी जातीं। फिर भी, ग़लत गिनती के बावजूद, जो आंकड़े सामने आते हैं, चौंकाने वाले होते हैं।’’
विचारणीय बात यह है कि ऐसे में ग्रामीण पर्यटन को किस नजरिये से देखा जाए! हालत यह है कि अपनी गरीबी और दीन-दशा के कारण वह ग्रामीण वैसे भी सैलानियों के लिए अवांछित व्यक्ति की तरह है। जिस गांव में वह रहता है, वहां अब उसके लिए कोई काम नहीं रह गया है, पैसा खर्च करके प्राप्त की जा सकने वाली बिजली-पानी की सुविधाएं वैसे ही उसकी पहुंच से बाहर हैं। जन-संचार और दूर-संचार के साधनों का उसके लिए कोई खास अर्थ-मतलब नहीं है, वे अब भी उसके लिए विलासिता की चीजें हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का उपयोग भी वह और उसका परिवार कम ही कर पाता है। अपनी बढ़ती हुई संख्या और दीन-हीन दशा के कारण वह भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और जन-संचार के व्यावसायिक माध्यमों के लिए स्वयं किसी मनोरंजन से कम नहीं रह गया है।
उनके क्राइम-वारदात के सनसनीखेज सीरियल उसी के तो बूते चलते हैं, जो विज्ञापन जगत में अच्छा बिजनेस बटोरते हैं। राजनीतिक दलों के लिए वह मतदाता तो है ही, इसलिए उसे अनदेखा भी नहीं किया जा सकता - ऐसे में एक ही तरीका बच रहता है कि उसके सामने देश की गरीबी और बढ़ती हुई आबादी का रोना रोया जाय, और वह भी कुछ इस अंदाज में कि इसके लिए भी वही अपने आपको कोसे! उसे बताया जाता है कि देश लगातार तरक्की कर रहा है, लेकिन वे अभागे लोग अपने पिछड़ेपन, अशिक्षा और अपनी बुराइयों के कारण उस प्रक्रिया में भाग नहीं ले पा रहे, उन्हें जल्द-से-जल्द अपनी इन कमजोरियों पर काबू पाना चाहिए और विकास की मुख्य-धारा में शामिल हो जाना चाहिए। वह जब तक अपनी दुरावस्था पर इस तरह के बयान सुनता रहेगा, उससे बाहर निकलने के उपाय पर खुद कोई विचार या पहल नहीं करेगा और उन लोगों को अपनी सोच पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य नहीं कर देगा, तब तक इस विकट परिस्थिति का क्या हल संभव है, कहना आसान नहीं है!
नंद जी के बारे में : नन्द भारद्वाज हिन्दी लेखन के क्षेत्र में एक सम्मानित और स्थापित नाम हैं। जयपुर दूरदर्शन केन्द्र के पूर्व निदेशक नंद जी की जनसंचार पर तो अच्छी पकड़ है ही साथ वे राजस्थानी साहित्य की जड़ों से भी जुड़े हैं।